संकलन : जाह्नवी पाण्डेय तिथि : 31-07-2024
सनातन ऋषि-मुनियों के अविष्कृत संस्कार केवल धार्मिक संस्कृति ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से विशेष महत्व रखते हैं। तभी यह सभी संस्कार मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने में अदभुत एवं दिव्य योगदान करते हैं। बदलते परिवेश तथा व्यस्ततम सामाजिक व्यवस्था के प्रभाव से स्वत: विलुप्त होते होते सनातन संस्कार के लगभग चालीस संस्कार से सोलह संस्कारों में वर्त्तमान युग सिमट गया है। ब्रह्माजी की सृष्टि के दैवी जगत में परिचय, प्रगाढ़ता, धार्मिक मर्यादित दीर्घकाल भोगयात्रा में नवजात के जन्म से जीवन चक्र के पूर्ण होने तक इन संस्कारों से पूर्ण होते हैं।
जन्म के पश्चात् शिशु और प्राकृतिक भोगो के बीच संवेदनशील संबंध के बाद किसी भी संक्रमण को रोकना इस प्रथाओं का मुख्य उद्देश्य होता है। शिशु के स्वास्थ्य की रक्षा और पवित्रता को बहाल रखने के लिए अन्नप्रासन किया जाता है। इसीलिए अन्नप्रासन संस्कार शिशु के जीवन में महत्वपूर्ण होता है। इसे बंगाली संस्कृति में मुखभात, या मामाभात 'मातृ-चावल' भी कहा जाता है। वैदिक युग से अन्नप्राशन की विधि क्षेत्रों के संस्कार व रिवाजों के अनुसार दक्षिण एशिया, ईरान के साथ-साथ पारसियों में भी मनाई जाती है। परंपरा के हिसाब से शुभ मुहूर्त पर एक वर्ष के अन्दर चार महीने से कम या से ऊपर के शिशु के लिए अन्नप्राशन का भव्य-उत्सव का आयोजन कर यह धार्मिक संस्कार पुजारी के माध्यम से पूर्ण कराया जाता है।
अन्नप्राशन शब्द संस्कृत दो शब्दों से बना है, 1. अन्न २. प्राशन। यहाँ अन्न का तात्पर्य पके हुए सुपाच्य अनाज से है और प्राशन का अर्थ ग्रहण करना या खिलाना। अर्थात शिशु को जीवन में प्रथम बार देवी देवताओं से प्रार्थना कर पका हुआ सुपाच्य भोजन खिलाना ही अन्नप्राशन है, जो आयुर्वेदिक दृष्टि से स्वास्थ्य और उत्तम विकास के लिए महत्व रखता है। शिशु को पारंपरिक विधियों के साथ सर्वप्रथम बार अनाज से परिचित कराया जाता है, इस परम्परा से शिशु की पाचन प्रणाली एवं आहार के प्रति ग्राह्य क्षमता विकसित होती है।
अन्नप्राशन से पूर्व शिशु केवल माँ के दूध पर ही निर्भर रहता है और यह परम्परा शिशु के विकास में अगले महत्वपूर्ण कदम को दर्शाता है। अन्नप्राशन के उत्सव में परिजनों, इष्टमित्रो, शुभचिंतको की उपस्थिति में माता-पिता शिशु को स्नान व औपचारिक पोशाक पहनाकर गोद में बिठा शिशु को स्वादिष्ट पाचक भोज्य द्रव्य (शिशु के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए देवताओं से आशीष मांगते हुए) खिलाया जाता है।
प्राचीन सनातन ग्रंथों में इस अनुष्ठान के निष्पादन हेतु विषयक विस्तृत निर्देश प्राप्त हैं, जिसमें शिशु के आहार, प्रकार, गुणवत्ता, मात्रा और भोजन हेतु ठोस पकवान की प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं। पारंपरिक रूप से रजत (चाँदी) पात्र में मां या दादी द्वारा तैयार विशिष्ट प्रकार का भोजन, खीर या अलग-अलग प्रकार के पांच तले हुए खाद्य पदार्थ अथवा मछली का व्यंजन शंखनाद के साथ मामा या नाना द्वारा खिलाया जाता है और आगंतुक परिजनों, इष्टमित्रो, शुभचिंतको द्वारा बारी-बारी से शिशु को खीर या भोज्य खिलाकर उसके सिर पर धान (चावल के बीज) व दुर्बा (घास के डंठल) रखते हुए आशीर्वाद देने के बाद परिवार के वृद्ध पंडित या गुरु व शिशु को पवित्र श्लोकों और मंत्रों के साथ अन्न, बहुमूल्य उपहार का दान करते हैं।
उपस्थित महिलाएं पवित्रता को चिह्नित करने के लिए उल्लास गीत भी गाती हैं। इस भव्य-उत्सव में वह शिशु एक क्रीडा का हिस्सा भी बनता है, जिसमें शिशु को केले का पत्ता या चांदी की प्लेट दी जाती है और सम्मुख मिट्टी (संपत्ति का प्रतीक), एक किताब (सीखने का प्रतीक), एक कलम (ज्ञान का प्रतीक), और सिक्के या पैसा (धन का प्रतीक) चयनित करने के लिए रख दिया जाता है। जिसके लिए पारंपरिक मान्यता है कि शिशु द्वारा स्पर्शित वस्तु ही उनके भविष्य का प्रमुख आकर्षण होगा।
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