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Pooja Path गीता पाठ / श्रीमद्भगवद्गीता परायण


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संकलन : Abhishek Rai तिथि : 28-07-2024

प्रत्येक उर्जा पुंज में मैं (ईश्वरीय सत्ता) हूँ और सर्वाधिक प्रभावशाली उर्जा पुंज प्रतीक सूर्य भी मैं ही हूँ!

पृथ्वी की उत्पति से पूर्व भी अनेक स्वरूप व अनुसंधान ‌द्वारा अमूल्य ज्ञान का उपहार पौराणिक ऋषि मुनियों, तपस्वियों और सिद्ध ज्ञानियों ने वैदिक काल से सभी सनातनियों को विरासत के रूप में समर्पित किया हुआ है। जिनमें स्पष्ट है कि प्रत्येक उर्जा पुंज में मैं (ईश्वरीय सत्ता) हूँ और उर्जा पुंज का सबसे ज्यादा प्रभावशाली उर्जा प्रतीक सूर्य भी मैं (ईश्वरीय सत्ता) ही हूँ और प्राणी भी देह त्यागने के बाद मैं (ईश्वरीय सत्ता) में सम्मिलित हो जाता है।सभी जिज्ञासुओं के हृदय में यह मैं का विचार अनवरत गतिमान रहता है। गीता शास्त्र में मैं (ईश्वरीय सत्ता) के प्रश्नों का उत्तर अति सहज ढंग से धर्म संवाद के माध्यम से मिलते हैं।

निष्काम कर्म का जीवन्त संदेश एवं धर्म से अधिक जीवन दर्शन का दृष्टिकोण श्रीम‌द्भगवद्‌गीता ग्रंथ।

गीता का उपदेश अत्यन्त पुरातन है। इसकी ख्याति विश्व के पवित्र धार्मिक ग्रंथों में सम्मिलित है। यह मात्र प्रसिद्ध पुस्तक नहीं है, इसमें निष्काम कर्म का जीवन्त संदेश धर्म से अधिक जीवन दर्शन का दृष्टिकोण ही विश्व को अपनी ओर आकर्षित करती है। अर्जुन जब कुरुक्षेत्र में युद्ध से विरक्ति होकर अस्त्र शस्त्र का त्याग करते हैं, तब श्रीकृष्ण उन्हें कर्म व धर्म के सच्चे ज्ञान का उपदेश देते हैं, वो ही संकलित उपदेश आज श्रीम‌द्भगवद्‌गीता ग्रंथ के नाम से विश्व पूजित है।

पूर्ण शुद्ध ज्ञान, आनन्द व शान्ति का अक्षय धाम आत्मा का स्वभाव धर्म है अर्थात् आत्मा ही धर्म है। 

गीता उपदेश के अनुसार ज्ञान की विभिन्न मात्रा से क्रिया शक्ति का उदय होता है और क्रिया प्रकृति के गुणों (सत्व, रज, तम) के अधीन हैं, किन्तु आत्मा अक्षय ज्ञान का स्रोत है। अर्थात् आत्मा अपने संकल्प से देह धारण कर अवतार ग्रहण करती है। गीता में जगह-जगह धर्म शब्द का उपयोग आत्म स्वभाव और जीव स्वभाव के लिए प्रयुक्त हुआ है. जिसे धर्म एवं अधर्म की परिभाषा में समझा जा सकता है। मूलतः आत्मा का स्वभाव धर्म है अर्थात् आत्मा ही धर्म है। जो पूर्ण शुद्ध ज्ञान और ज्ञान ही आनन्द है। आनन्द व शान्ति का अक्षय धाम ही आत्मा है। इसके विपरीत मन मोह, स्वार्थ, अज्ञान, अशांति, क्लेश और अधर्म का मूल है।

स्वभाव सदैव से ही कर्म के अधीन होता है, किन्तु कर्म, मन के अधीन चलायमान रहता है।

आत्मा इस संसार का बीज अर्थात पिता है और प्रकृति गर्भ धारण करने वाली योनि अर्थात माता है। इन्ही के सममिश्रण से धर्म एवं अधर्म की उत्पत्ति संभव है। अर्थात बीज तो शुद्ध हैं, परंतु गर्भ भिन्न-भिन्न रूपों को जन्माता है, अर्थात् सांसारिक कर्म में जिस प्रकृति स्वरूप को धारण किए हुए देह जन्मा होगा, उसी स्वभाव के अनुरूप ही सदैव बु‌द्धि को सूक्ष्म रखकर महाबु‌द्धि को आत्मा में लगाये और सरल हो जाए। स्वभाव सदैव से ही कर्म के अधीन होता है, किन्तु कर्म, मन के अधीन चलायमान रहती है। इसीलिए दूसरे के स्वभावगत कर्म को अंगीकार करके चलना कठिन है, क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न-भिन्न प्रकृति को लेकर जन्मा है, जीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है, उसमें सरलता से उसका निर्वाह कर सकता है। इसीलिए शास्त्रों में बारम्बार आत्मरत, आत्मस्थित होने के लिए कहा है। इसे ही निश्चयात्मक मार्ग माना जाता है। स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि को ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग आदि को भगवत् चरणों में अर्पित करते हुए सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाए, तो सभी योग बु‌द्धि से किये जा सकते है, यह सरल है।

गीता में समाहित अध्यात्म विद्या का सर्वांश ही उपनिषदों में गौ और गीता को दुग्ध कहा गया है।

गीता धर्म-कर्म के मध्य सत्ज्ञान का अद्‌भुत संकलन है, जिसका गेय रूप में भी वर्णन होता है। मूलगीता में संस्कृत भाषित 18 अध्याय, 700 श्लोक हैं। सनातन विज्ञान में उपनिषदों की अध्यात्म विद्या का सर्वांश गीता में समाहित है और संस्कृति में उपनिषदों को गौ और श्रीम‌द्भगवद्‌गीता को उनके दुग्ध की संज्ञा दी गई है। युद्ध क्षेत्र में सांसर्गिक जीवन-मृत्यु का भेद, माया मोह की वास्तविकता, वीरता व साहसं का भेद, अजेय व अमरता का दुर्लभ ज्ञान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिये उपदेश ही गीता उपनिषद् के नाम से विश्वविख्यात हैं, जिसे श्रीम‌द्भगवद्‌‌गीता भी कहा जाता है।

वेदों के ब्रह्मवाद व उपनिषदों के अध्यात्म का संनिविष्ट संकलित शब्दों में ब्रह्मविद्या कहा गया है।

उपनिषदों की अनेकों अश्वत्थ, अव्यय पुरुष, अक्षरपुरुष, क्षरपुरुष विद्याएँ, संसार का स्वरूप में अनादि अजन्मा ब्रह्मसूत्र, पराप्रकृति-अपराप्रकृति जीव और भौतिक जगत का विस्तृत रेखांकन गीता में स्पष्ट रूप से पिरोया हुआ है। वेदों के ब्रह्मवाद व उपनिषदों के अध्यात्म का संनिविष्ट संकलित शब्दों में ब्रह्मविद्या कहा गया है। श्रीम‌द्भगवद्‌गीता के अतिरिक्त अष्टावक्र गीता, अवधूत गीता, कपिल गीता, श्रीरामगीता, श्रुतिगीता, उ‌द्धवगीता, वैष्णवगीता, कृषिगीता, गुरुगीता इत्यादि भी गीता के रूप में भाष्य है।

श्रीम‌द्भगवद्‌गीता शास्त्रोक्त विधि व विधान एवं ज्योतिषीय उपचार 

गीता में ज्योतिष विश्लेषित ग्रहों के दुष्प्रभावो और जीवन की विपत्तियों से छुटकारा पाने के सूत्र अत्याधिक लाभकारी संकेत भी मिलते हैं। विशेषकर प्रथम अध्याय द्वारा शनि संबंधी पीड़ा से मुक्ति, द्वितीय अध्याय द्वारा गुरु संबंधी पीड़ा से मुक्ति, तृतीय अध्याय द्वारा मंगल व उनके भाव से संबंधी पीड़ा से मुक्ति, चतुर्थ अध्याय द्वारा 9वें भाव से संबंधी कारक ग्रह की पीड़ा से मुक्ति, पंचम अध्याय ‌द्वारा 9वे व 10वे भाव के अन्ततः परिवर्तन के लाभ को बढ़ाने के साथ बुद्ध संबंधी पीड़ा से मुक्ति, छठा अध्याय ‌द्वारा गुरु व शनि का संयुक्त दुष्प्रभाव एवं शुक्र के कुप्रभावो से मुक्ति, सातवे व आठवे अध्याय द्वारा सूर्य व चंद्र से संबंधी पीड़ा से मुक्ति, और शेष सभी अध्याय द्वारा समस्त ग्रह व नक्षत्रों से संबंधी पीड़ा से मुक्ति दिलाता है।

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