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Pooja Path मुंडन संस्कार / चुड़ाकरण / चौल-मुंड संस्कार / चूड़ाकर्म संस्कार


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संकलन : Abhishek Rai तिथि : 28-07-2024

सनातन संस्कृति की परंपराओं में स्वर्णिम क्षण एवं विज्ञान व वैज्ञानिकता के संजीवनी संदेशों से संरक्षित हैं।

आधुनिक समय में वैज्ञानिक और तर्क संगत परंपराएं और मान्यताएं को बनाए रखना सभी सनातनियों का साझा दायित्व और वास्तविक कर्म है क्योकि सनातन संस्कृति से जुड़ी परंपराएं और मान्यताओं का सीधा संबंध वैज्ञानिकता और विज्ञान से है, जिनके परिक्षण या जानकारी करने से ही उन तर्कसंगत कारणों का पता लगता है। संस्कृति के माध्यम से परिवार में संजीवनी संदेशों और उसकी परंपरा को निरंतर विशेष स्वर्णिम यादगार क्षण के रूप में संस्कार या परंपराएं संरक्षित करते हैं।

वैदिक नियमानुसार अतिअनिवार्य परम्परा मुंडन संस्कार, शिशु के सर्वांगींण विकास को उन्नत करता है। 

वैदिक रीति रिवाजों के नियमों के अनुसार मुंडन संस्कार अतिअनिवार्य परम्परा है, जिसके बिना शिशु का सर्वांगींण विकास बाधित रहता है। सनातन संस्कारो में मनुष्यता का अष्टम प्रमुख महत्वपूर्ण व पवित्र समाजिक संस्कार शिखा संस्कार है, जिसे मुंडन, चौलमुंड, चौला, चूड़ाकरण तथा चूड़ाकर्म आदि नामों से भी प्रचलित है। जन्म के उपरान्त प्रथम बार शिशु के कपाल को केशों से मुक्त करने की प्रक्रिया को ही चूड़ाकर्म यानी मुण्डन संस्कार कहते हैं। यह अन्नप्राशन संस्कार के उपरांत शिशु के एक, तीन, पांच अथवा सात वर्ष की आयु हो जाने पर होता है। समान्य रूप से बालक व बालिका दोनों का मुंडन संस्कार होता है।

रक्षक के समान केश त्याग से आत्मा से कुसंस्कारों का शमन होता है, क्योंकि बिना रक्षक सर्वत्र भय है।

सनातन रीति-रिवाजों के अनुसार एक आत्मा 84 लाख योनियों से गुजरने के बाद मानव रूप को धारण कर पाती है, जिनमें पूर्वजन्मों के नकारात्मकताओं और पापात्मक कृत्य समाविष्ट होते हैं, उनसे छुटकारा दिलाने के लिए ही यह संस्कार प्रथा का एक हिस्सा हैं। चूड़ाकरण संस्कार शिशु का स्वच्छता और साफ- सफाई के प्रति चक्रीय कदम है। यह संस्कार शिशु के जीवन का पड़ाव के सामान होता है। कपाल ही केशों के मूल रक्षक है और बिना रक्षक सर्वत्र भय होता है। इसलिए केश त्याग के साथ ही दिव्य वातावरणीय प्रभाव में शिशु के आत्मा से कुसंस्कारों का शमन करने हेतु ही देवस्थल या तीर्थ स्थान पर यह संस्कार पूर्ण कराये जाते हैं।

योगी, साधक सकारात्मकता ऊर्जा हेतु मुंडन करवाते हैं, इसका प्रत्यक्ष प्रभाव मस्तिष्क तीव्रता से है। 

बौद्धिक तीव्रता हेतु कुलाचार के अनुसार ही शिशु के कपाल को मूँडवाकर कपाल के केंद्र बिन्दु पर कनिष्ठिका के बराबर की शिखा (चोटी) छोड़ी जाती है। मनुस्मृति के कथनानुसार गर्भकाल में गर्भगत माता पिता से प्राप्त मलिन, अशुद्ध और झड़ने वाले केश की जड़े बहुत पुष्ट नहीं होती है, जिसका सीधा प्रभाव मस्तिष्क की तीव्रता से होता है। सार्थक रुप में स्वस्थ, मानसिक और सकारात्मकता ऊर्जा का मार्ग प्रशस्त किये जाने हेतु ही चूड़ाकर्म संस्कार होता है। चिकित्सा शास्त्रानुसार चौल कर्म मस्तिष्क का संस्कार है, क्योकि गर्भत्याग के बाद शिशु का कपाल व केश लगभग तीन वर्ष तक कोमल, जीवाणु व कीटाणु से युक्त होते हैं, जो गर्भकाल से ही चिपके रह कर शनै शनै कठोर होने लगते हैं।

शिशु की बुद्धि, स्वास्थ्य, आयु, शक्ति व चपलता बढ़ाने हेतु मुंडन संस्कार दिव्य भूमिका निभाता है।

चौल कर्म से सभी जीवाणु व किटाणु नष्ट होते हैं और कपाल पुष्ट व बुद्धि तीक्ष्ण हो जाती है। गर्भगत केशों के रोमछिद्र गर्भत्याग के बाद बंद ही रहती है, वे सभी रोमछिद्र मुडंन से खुलते हैं और पुनः स्वच्छ घने और मजबूत नव केशों विकसित होकर मस्तिष्क को सुरक्षित करते हैं। शिशु जिस मस्तिष्क के साथ गर्भ त्याग कर सांसारिक गति आरम्भ करता है, इस संस्कार से उस मस्तिष्क की शिथिलता को समाप्त कर शिशु को स्वास्थ्य और लम्बी आयु का वरदान मिलता है। यजुर्वेद के अनुसार शिशु की बुद्धि, स्वास्थ्य, आयु, शक्ति और चपलता को बढ़ाने हेतु यह संस्कार अतिमहत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस संस्कार से शिशु के दन्त अंकुरण में सरलता हो जाती है।

आध्यात्मिक अभिषेक, शिक्षा से साक्षात्कार, ब्रह्मज्ञान या ब्राह्मणत्व प्राप्ति ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। 

इसलिए द्विजातियों का पहले या तीसरे वर्ष में (अथवा कुलाचार के अनुसार) मुण्डन होता है। इस सामाजिक समारोह में शिशु के चारों ओर अनेक आध्यात्मिक अभिषेक और पूजा की रस्में ही इस संस्कार को धार्मिक बनाती है। मुंडन संस्कार का उद्देश्य शिशु के जीवन में शुभता, उत्तम स्वास्थ्य, और लंबी आयु की कामना करना है। कभी-कभी इस अनुष्ठान को औपचारिक पठनीय शिक्षा की शुरुआत, उपनयन संस्कार के साथ जोड़ा जाता है। इस प्रकार बालक का मुंडन के द्वारा शुभ कार्यों की शुरुआत और धार्मिक शिक्षा का साक्षात्कार होता है। इस पौराणिक अनुष्ठान का उल्लेख लगभग सभी सनातनी शास्त्रों में अनादिकाल से वन्दनीय है, यह कितने प्राचीन हैं इसका प्रमाण बौद्ध प्रथा से ही मिलता है, क्योकि उनका मूल सिद्धान्त ही मुंडन से आरम्भ होता है।

मुंडन संस्कार का शास्त्रोक्त विधि व विधान।  

किसी कर्म कांड विशेषज्ञ विप्र या भिग्य की उपस्थिति में इस संस्कार को करवाने से इससे संबंधित हर महत्वपूर्ण विधि और प्रक्रिया को पूरे विधि विधान कराकर बालक के लिए शुभ फलों की प्राप्ति की संभावना को पुष्ट किया जाता है, जिसका मुंडन कराते हुए ध्यान रखना सबसे आवश्यक हो जाता है। यद्यपि यह समारोह किसी मंदिर या नदी के पास हो, ऐसा अनिवार्य नहीं है, फिर भी सभी परिवार वालों और कुटुंब की मौजूदगी में मुंडन संस्कार सदैव किसी धार्मिक स्थान पर हो, तो ज्यादा शुभ व लाभप्रद रहता है। मुंडन के पश्चात् शिशु के हाथों से दान-पुण्य करना भी एक जरूरी हिस्सा है।

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