संकलन : Abhishek Rai तिथि : 28-07-2024
श्री हरी विष्णु की कृपा पाने का सांकेतिक रूप में सर्वाधिक सरल मार्ग गजेंद्र मोक्ष पाठ को बताया गया है। गजेंद्र मोक्ष पाठ द्वापर युगीन प्रमुख काव्य ग्रंथ महाभारत के उद्योग पर्व का अभिन्न अंग है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद के रूप में श्रीमद्भगवत गीता के अष्टम स्कंध के दूसरे, तीसरे और चौथे अध्याय के कुल 33 श्लोक में गजेंद्र नामक हाथी का दुखद अनुभव कथन है, इसे ही गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र के नाम से जाना जाता है। गजेंद्र मोक्ष पाठ में सांकेतिक रूप में श्री हरी विष्णु की कृपा पाने का सर्वाधिक सरल मार्ग का विस्तृत वर्णन है। समस्त पापों का नाशक, साधक गजेन्द्र मोक्ष का माहात्म्य कहा गया है। जिसमें अनन्त कारुण्य और भगवान की कृपा का व्यक्तिगत और धार्मिक उत्तरदायित्व वर्णन है।
भक्ति, शरणागति और विश्वास को गजेंद्र मोक्ष पाठ से प्राप्त किया जा सकता है।
भक्ति, शरणागति और विश्वास को दर्शाना ही गजेंद्र मोक्ष पाठ का मुख्य उदेश्य है, जो किसी भी जीव को भगवत कृपा प्राप्ति के बाद दुःख, संताप, पीड़ा और दरिद्र से मुक्ति प्रदान करता है। भगवत्कृपा स्तोत्र सन्देश में ग्राह के मुख में फंसे दारुणभय, संताप, दुख, कष्ट एवं पीड़ित गजेन्द्र की श्री हरि की स्तुति का वृतान्त है, जिसने अपने अधिकार के गलत प्रयोग के कारण विचलित, दारुण करुण दुखी, अपार कष्ट में रहकर भी भगवत्स्तुति करनी नहीं छोड़ी और भगवत्कृपा से भगवत शरण में जाकर प्राण रक्षा पाकर शरणागति मोक्ष प्राप्त की। गजेंद्र मोक्ष पाठ का मुख्य उद्देश्य भक्ति, शरणागति और विश्वास की दर्शाना है।
घनघोर कर्ज, दारुणभय, संताप, पीड़ा आदि संकटों से मुक्ति व रक्षा का मार्ग गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र है।
जब आर्थिक परेशानी बढ़ रही हो, और कर्ज उतरने का नाम नहीं ले रहा हो, तो गजेन्द्र मोक्ष पाठ बहुत लाभकारी हैं। दारुणभय, संताप, दुख, कष्ट, पीड़ा, कर्ज आदि सभी प्रकार के संकटों से मुक्ति व रक्षा का मार्ग गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र से मिलता है। वैदिक शस्त्रानुसार पुराणोक्त स्तोत्र का जाप करके मनुष्य किसी भी संकट से मुक्त हो सकता है। प्रतिदिन स्मरण करने से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त घोर संकट मुक्ति से होती है।
गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का शास्त्रोक्त विधि व् विधान
किसी कर्मकांड विशेषज्ञ वैदिक विप्र या भिज्ञ की उपस्थिति या अध्यक्षता में घनघोर कर्ज, दारुणभय, संताप, पीड़ा आदि संकटों घिरे याचक के कल्याण, मंगल व तेजोवान स्वास्थ्य के लिए शुभ फलों की प्राप्ति की संभावना को पुष्ट किया जाता है, जिसमें शास्त्रोक्त रीतिनुसार किसी भी शुभ दिवस, मुहूर्त, योग में प्रातःकाल स्नान करके पूर्व विमुखी कुश के आसन पर बैठकर अपनी समस्या का स्मरण कर मुक्ति की कामना करते हुए सर्वतोभद्र, षोडशमात्रिका मंडल तथा सार्वभौमिक ऊर्जा के देवी देवताओं का मंत्रोच्चारण से विधिनुसार आह्वान कराकर उनकी इच्छानुसार संख्यात्मक गजेन्द्र मोक्ष स्त्रोत सहित श्रीमद्भगवत का एक पाठ सम्पन्न कराकर हवन, आरती, दान आदि कराकर गजेन्द्र मोक्ष अनुष्ठान पूर्ण होता है।
पाण्ड्यवंशी राजा इंद्रद्युम्न के गजेन्द्र गज बनने के श्राप की कथा
कथासार- द्रविड देश के पाण्ड्यवंशी राजा इंद्रद्युम्न भाग्वाताराधना में ही अधिक समय व्यतीत करते थे। उनका मानना था कि प्रभु ही उनके राज्य की सुख-शांति, व्यवस्था देखते हैं। यद्यपि राज्य में प्रजा प्रत्येक रीति से संतुष्ट और सर्वत्र सुख-शांति थी। धीरे-धीरे इंद्रद्युम्न का मन में आराध्य-आराधना की लालसा उत्तरोत्तर बढ़ने से वे राजपाठ त्याग मलय-पर्वत पर रहने लगे। जहाँ निरंतर परमब्रहम की आराधना में तल्लीनता से उनका वेश तपस्वियों जैसा होने लगा और बाह्य जगत से विमुख उन्हें राज्य, कोष, प्रजा तथा पत्नी आदि किसी प्राणी या पदार्थ की स्मृति ही नहीं होती थी। मौनव्रती इन्द्रद्युम्न प्रतिदिन की भांति स्नानादि से निवृत होकर सर्वसमर्थ की उपासना में तल्लीन थे, तभी संयोगवश महर्षि अगस्त्य शिष्यों सहित आ पहुँचे। प्रभु के ध्यान में निमग्न इंद्रद्युम्न, महर्षि अगस्त्य का स्वागत ना कर सके। जिससे कुपित महर्षि अगस्त्य ने इंद्रद्युम्न को जड़बुद्धि, घोर अज्ञानमयी हाथी की योनि प्राप्त होने का श्राप दे दिया। वस्तुतः महर्षि अगत्स्य के शाप से राजा इंद्रद्युम्न ही गजेन्द्र गज हो गए और कालखंड में महर्षि देवल के शाप से गन्धर्व श्रेष्ठ हूहू ग्राह (मगरमच्छ) बन चुके थे।
अत्यंत सुन्दर एवं श्रेष्ठ त्रिकुट नामक पर्वत पर ऋतुमान कीड़ा कानन में ग्राह और गजेन्द्र का एक सहस्त्र वर्ष का दारुण संघर्ष
क्षीराब्धि में दस सहस्त्र योजन लम्बा, चौड़ा और ऊंचा त्रिकुट नामक अत्यंत सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था, जिसकी तराई में चहुँओर दिव्य सदा पुष्पों और फूलों से लदे वृक्ष सुशोभित वरुण जी का ऋतुमान नामक कीड़ा कानन था। उस गहन वन में हथिनियों के साथ अमित पराक्रमी, अत्यंत बलशाली गज (गजेन्द्र) रहता था। तृषाधिक्य (प्यास की तीव्रता) से व्याकुल गजेन्द्र, कमल की गंध से चित्ताकर्षक होकर विशाल सरोवर के निर्मल, शीतल और मीठे जल में प्रवेश कर जल तृषा बुझा जलक्रीड़ा करने लगा। अकस्मात् ही ग्राह ने गज का पैर पकड़ लिया, गज ने पैर छुड़ाने के लिए पूरी शक्ति लगाई, परन्तु उसका वश नहीं चला और सूंड उठाकर चीत्कार करने लगा। यह संघर्ष एक सहस्त्र वर्ष तक चलता रहा, संघर्ष के दौरान कभी गज स्वयं को खींचता और ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींचता। सरोवर का निर्मल जल गंदला, कमल-दल क्षत-विक्षत होने से जल-जंतु व्याकुल हो उठे। यह द्रश्य देखकर देवगण चकित थे।
पूर्वजन्म के निरंतर भगवद आराधना अभ्यास के फलत भगवतस्मृति से पूर्वजन्म के सीखे श्रेष्ठ स्त्रोत द्वारा परम प्रभु की स्तुति का फल।
अंततः गजेन्द्र के शरीर में शक्ति, मन में उत्साह शिथिल और पराक्रम का अहंकार चूर-चूर होने से वह पूर्णतया निराश हो गया। परन्तु जलचर ग्राह की शक्ति कम होने की अपेक्षा शक्ति बढ़ गई और वह नवीन उत्साह सें अधिक शक्ति लगाकर खींचने सें असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में पड़ गए। इसी मध्य पूर्वजन्म के निरंतर भगवद आराधना के फलत उसे भगवतस्मृति हो आई और करालकाल के भय से चराचर प्राणियों के शरण्य सर्वसमर्थ प्रभु की शरण ग्रहण कर निश्चय मन की एकाग्र कर पूर्वजन्म में सीखे श्रेष्ठ स्त्रोत द्वारा परम प्रभु की स्तुति करने लगा। स्तुति सुनकर सर्वात्मा सर्वदेव विष्णुजी गरुड़ पर अरूण होकर अत्यंत शीघ्रता से सरोवर के तट पर पहुंचे। तब जीवन से हताश निराश तथा पीड़ित कमल का एक सुन्दर पुष्प गजेन्द्र ने सूंड में उठाया और समर्पित किया।
भगवद आराधना अभ्यास के फलतः शापमुक्त गजेन्द्र, त्रैलोक्य वन्दित के पार्षद होकर वैकुंठ धाम को गए।
अत्यंत पीड़ित गजेन्द्र के लिए भगवान विष्णु गरुड़ की पीठ से कूद कर ग्रह को सरोवर से बाहर खींच लाए और तीक्ष्ण चक्र से ग्रह का मुंह फाड़कर गजेन्द्र को मुक्त कर दिया। यह सब देख ब्रह्मादि देवगण, गन्धर्व, सिद्ध और ऋषि-महर्षि श्री हरि की प्रशंसा, गुणगान करते हुए स्वर्गिक सुमनों की वृष्टि करने लगे। तत्क्षण ही विष्णुजी के मंगलमय वरद हस्त के स्पर्श से गजेन्द्र भी शापमुक्त हुए और पाप मुक्त होकर अभिशप्त हुहू गन्धर्व ग्रह से दिव्य शरीरधारी गन्धर्व हो गया और प्रभु की परिक्रमा कर त्रैलोक्य वन्दित चरण-कमलों में प्रणाम करते हुए गन्धर्व लोक को चला गया। गजेन्द्र की स्तुति से प्रसन्न विष्णु जी ने कहा "प्यारे गजेन्द्र! जो ब्रहम मुहूर्त में तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि का दान करूँगा।" शापमुक्त गजेन्द्र को श्री हरि अपना पार्षद बना उसका उद्धार कर दिया। इस प्रकार विष्णु ने पार्षद गजेन्द्र को साथ लिया और गरुड़ारूढ़ होकर दिव्य वैकुंठ धाम को चले गए।
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सनातन संस्कृति की परंपराओं में स्वर्णिम क्षण एवं विज्ञान व वैज्ञानिकता के संजीवनी संदेशों से संरक्षित हैं। आधुनिक समय में वैज्ञानिक और तर्क संगत परंपराएं और मान्यताएं को बनाए रखना सभी सनातनियों का साझा दायित्व और वास्तविक ...
प्रसन्नता, समृद्धि और शुभकामनाओं का प्रतीक शगुन, सामाजिक और धार्मिक कल्याण के लिए सनातन संस्कृति में धर्मसम्मत है। शगुन दिए जाने की परम्परा मानवीय सभ्यता के साथ ही विकसित हुए हैं, जिसको पौराणिक व्यवस्था भी कहा ...