संकलन : जया मिश्रा Advocate तिथि : 24-06-2024
सर्वशक्तिमान या ईश्वरीय की आराधना में उनके गुणों, रूपों, महिमा और दैवीय शक्तियों का गेय वर्णन ही आरता / आरती कहलाता है, जिसमें सुर संगीत, वादय यंत्रों का भी प्रयोग होता है। अर्थात् देवी- देवताओं के प्रति समर्पण और आदर्श भावना का प्रकटीकरण ही 'आरता' या 'आदर' या आरती है, आरती गायन भक्ति मार्ग का सर्वाधिक शुद्ध व सरल आराधना प्रणाली है, जिसमें संगीत के साथ ढोल, नगाड़े, घड़ियाल आदि भी बजाते हुए (भजन) नृत्य भी होता है।
इसका उपयोग लगभग सभी धर्मों पंथों और संस्कृतियों में प्रचलित है। तमिल भाषा में आरती को दीप आराधनई कहते हैं। आरती के रूप में ध्वनियों, प्रकाश, और गंध का मिश्रण ईश्वरीय उपासना और स्तुति का सर्वोत्तम तरीका है, जिसमें ईश्वर की प्राप्ति, उपासना और ध्यान ही इसका मुख्य उद्देश्य होता है। आराध्य के सामने आरती गायन से पूर्व ईश्वरीय रूप में अग्नि की लौं को सूर्य का विकल्प मानते हुए स्थान देते हुए एक विशेष विधि से घुमाना की विधि है। इसमें कई बार वातावरणीय शुद्धता के लिए इसके साथ वैकल्पिक रूप से, घी, धूप तथा सुगंधित पदार्थों को मिलाया जाता है, क्योकि ईश्वरीय पचतत्वों (जल, थल, नभ, अनल, समीर) में भगवत शक्तियो का वास माना जाता है।
प्राचीन काल से मान्यता है कि मात्र आरती करने या आरती में सम्मिलित होने से ही अनन्त पुण्य मिलता है और आरती करने पर महापुण्य फल की प्राप्ति होती है। प्रायः आराधना प्रणाली के समापन पर आरती किए जाने का विधान है, परन्तु प्रातः सायान्ह एवं रात्रि में दैव स्थली । देव घरों में कपाल खुलने के बाद और कपाल बंद होने से पूर्व आरती किया जाना आवश्यक माना जाता है। इसके अतिरिक्त गुरु, अध्यापक, आचार्य, राजा, राजतुल्य गणमान्यों, और शुभचिंतकों के दैवीय स्वागत में उनकी आरती किये जाने का विधान भी प्रचलित है। संक्षेप में आध्यात्मिक और धार्मिक पूजा पद्धति में यह अनुभव को विकसित करने का एक महत्वपूर्ण तरीका है।
जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक को पंच-प्राणों को माना जाता है, इसीलिए प्रायः एक दिवस में एक से पांच बार ईश्वरीय ज्योति पंच-प्राण प्रतीक रूप में आरती की जाती है। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से की जाने वाली आरती को पंच-प्रदीप कहते हैं। भक्त अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारती कहलाती है।
प्रमुख धार्मिक आचरण आरती दिव्यता की प्राप्ति के लिए आरती के पांच प्रकार होते हैं। 1. दीपमाला से, २. जल से भरे शंख से, ३. धुले हुए वस्त्र से, 4. आम और पीपल आदि के पत्तों से और 5. साष्टांग अर्थात् शरीर के पांर्चा भाग (मस्तिष्क, हृदय, दोनों कंधे, हाथ व घुटने) से। मंगलाचरण, गुरुवन्दना, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन आदि कृति के साथ भक्ति व श्रद्धा अनुरूप भेट रूपी वस्त्र, मिष्ठान, फल, फूल, पंचमेवा इत्यादि सामग्रियों अर्पित कराकर निर्गुण भाव से उपासना, भजन कीर्तन और गायन आरती सम्पन्न किया जाता है।
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