संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 20-06-2024
जीवन चक्र के अनंत गूढ़ रसायन शास्त्र का सर्वभौमिक, दिव्य, शाश्वत एवं सामाजिक अवधारणा का मूल विवाह है, जिसमें नर-नारी की अनेक अभिलाषाएं एवं संतान प्राप्ति की आकांक्षाएँ पूर्ण होती हैं। वैयक्तिक दृष्टि से विवाह पति-पत्नी की मैत्री और साझेदारी है, जो समाज निर्माण की सामाजिक संस्था की प्रथा का अत्यंत महत्वपूर्ण सारांश है, जिससे समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार निर्मित होता है।
नर-नारी दोनों के सुख, विकास और पूर्णता के लिए आवश्यक सेवा, सहयोग, प्रेम और निःस्वार्थ त्याग के अनेक गुणों की शिक्षा वैवाहिक जीवन से मिलती है। पति तब तक अधूरा रहता है, जब तक पत्नी का संचित सहयोग न मिले अर्थात पत्नी अपने पति का आधा अंश है, जिसे निश्चित विधियों को पूरा करके धार्मिक स्वीकृत से ही विवाह के दायित्वों को स्वीकारा जा सकता है।
धर्मसंहिता के अनुसार विवाह से बचने वाला व्यक्ति सामाजिक कर्तव्यों का उल्लंघन कर हत्यारे जैसा अपराधी माना गया है। विवाह परिणय सहवास मात्र नहीं है। विवाह को धार्मिक बंधन एवं सभ्य कर्तव्य समझा जाता है। इस प्रकार शास्त्रोक्त वर्णन अनुसार प्रकृति में शक्ति बिना शिव और शिव शक्ति के बिना अधूरे हैं।
सनातन संस्कृति में भी वैदिक युग से बिना पत्नी के कोई यज पूर्ण नहीं हो सकता है, अर्थात् याजिक या धार्मिक कर्म में पत्नी की अनिवार्यता स्पष्ट है, अर्थात् यज्ञ में साथ बैठने वाली स्त्री को ही पत्नी की संज्ञा दी गई है। यह नर नारी के मध्य सामाजिक या धार्मिक मान्यता प्राप्त मजबूत और अनमोल बंधन है, जो उनके और किसी भी परिणामी जैविक या दत्तक बच्चों के बीच अधिकारों और दायित्वों को स्थापित करता है।
उन्हें यह संतोष होता है कि उनके न होने पर संतान उनका नाम और कुल की परंपरा को अक्षुण्ण रखते हुए उनकी संपति की उत्तराधिकारिणी बनेगा और वृद्धावस्था में उन्हें अवलंबन देगा। जिसका स्पष्ट संदेश है कि परलोक में मृत पूर्वजों को सुखी रहने के लिए उनका मृतक संस्कार यथाविधि हो तथा उनकी आत्मा शांति के लिए उन्हें अपने वंशजों की प्रार्थनाएँ, भोज और भेटें यथासमय मिलती रहे अर्थात पितरों की आत्माओं का उद्धार संतान के पिंडदान व तर्पण से ही होता है, इस धार्मिक विश्वास ने ही विवाह को धार्मिक कर्तव्य बनाया है।
विवाह के बंधन को जीवन में मजबूती से संजोते हुए एक-दूसरे के अनुभव, संचार, समर्पण व सम्मान सरक्षित रखने का पर्व ही विवाह वर्ष गांठ है, जिसमें परस्पर विश्वास का पारंपरिक आधुनिक रीति-रिवाजों का मिश्रण प्रदर्शन होता है। इस प्रकार अपनी आपसी संवादिता को एक- दूसरे के साथ अनुभवों का साझा ही विवाह वर्ष गांठ हैं, जिसमें जीवन साथी एक-दूसरे के साथ बिताए गए समय का सम्मान और स्मरण करते हैं।
विवाह वर्ष गांठ एक-दूसरे में समर्पित विश्वास को प्रदर्शित करने का समर्पण, उत्सव और आनंद का प्रतीक है। इस समारोह से विवाहित जोडे विवाह की वर्षगांठ के अवसर पर आत्मिक, सामाजिक और आर्थिक संबंधों को मजबूत कर आपसी प्रेस, सम्मान और सहयोग में बढ़ावा उन्नत करने के सद्भाव से भगवान की कृपा और आशीर्वाद की प्राप्ति के लिए प्रार्थना कर धार्मिकता और प्रेम की भावना को सजीवता और अधिक बलवती करते हैं। जिसके फलस्वरूप वैवाहिक जीवन में स्थायित्व समृद्धि के साथ आनंदमय और संतुष्ट जीवन की प्रेरणा जागृत होती है। धार्मिक पद्धति के अनुसार वार्षिक वर्षगांठ पूजा के दौरान ईश्वरीय आवाहन, धन्यवाद, सकुशलता की प्रार्थना, मंत्रों का जंप, हवन, आरती और विशेष प्रसाद का वितरण, भोज इत्यादि कृत्यों को कर पूर्ण किया जाता है।
सारांश में, वार्षिक वर्षगांठ पूजा विवाहित जोड़ी के लिए एक महत्वपूर्ण और आध्यात्मिक अनुष्ठान है, जो उनके साथी के साथ अनुभव की वर्षगांठ को मानने का समय होता है। इस समोररोह का आयोजन धार्मिकता और आत्मिकता के लिए विवाहित जोड़े को एक-दूसरे के प्रति निष्ठा और समर्थन की भावना को स्थायी रूप से बनाए रखने में सहायक की भूमिका में महत्वपूर्ण होता है. जिससे जीवन साथी के साथ गतिविधियों का उत्कृष्टाधिकार स्रोत प्राप्त करते हुए विवाहित जीवन को प्रेरणा और निरंतर समर्थन मिलता है। विवाह एवं परिवार की संस्था को नैतिक पक्ष और समाजिक पृष्ठ भूमि की पटकथा का अतिमहत्वपूर्ण सोपान वार्षिक वर्षगांठ पूजा है।
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निरोगिता और सुन्दर काया माया रुपी लक्ष्मी जी का प्रत्यक्ष वरदान है अर्थात उन्नत-माया, निरोगी काया पुराणोक्त विधि-विधान के साथ अष्ट सिद्धिधियों की देवी माँ लक्ष्मी की आराधना करने से धन- धान्य और प्रसन्नता की देवी से ...
सामाजिक उपभोक्ता की उत्पाद या सेवाओं की लक्ष्य पूर्ति हेतु वैधानिक मान्यता प्राप्त निर्मित संस्था ही व्यापार को जन्म देती है। वैदिक शास्त्रों में प्रतिष्ठान का अर्थ जड़, नींव, मूल आधार स्थापित या प्रतिष्ठित करने की ...