संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 20-06-2024
परिणय सूत्र मे बांधने से पूर्व वर-वधू को परंपरागत विधि विधान अथवा लोक रीति-अनुसार हल्दी, सरसो तैल, और दूर्वा को सम्मिलित कर मंत्रोचरण के साथ देह-लेप या चढ़ाये जाने की प्रथा को हरिद्रालेपनम या हल्दी पूजा कहा जाता है। विवाह समारोह में यह प्रथा जितनी धार्मिक और व्यावहारिक है, उतनी ही वैज्ञानिक और स्वास्थ्य वर्धक भी है। जीवन में सदैव सामंजस्यता, पवित्रता, उर्वरता और समृद्धि के साथ माँ गौरी का प्रतीक हल्दी की शुभता और पवित्रता के कारण देवी-देवताओं का पूजन हल्दी के बिना अधूरा माना जाता है।
आयुर्वेद अनुसार सर्वाधिक महत्वपूर्ण औषधि हल्दी हानिकारक जीवाणु, विषाणु नाशक, त्वचा निरोधक और यकृत, हृदय और आंतों के लिए अमृत के समान बताई गई है। गर्म तासीर का सरसो तैल झुर्रियों की दवा, मासपेशियों, रक्त संचार हेतु अतिलाभप्रद, झाइयो और शरीर में चैतन्यता व स्फूर्ति प्रदाता है और दूर्वा प्रतिरोधकता का गुण लिए हुए खाज खुजली, चकत्ता, तीव्र ग्रहीता की औषधि और लाल रक्त कोशिका वर्धक वनस्पति है।
इन सभी की संयुक्ति से शारीरिक सौंदर्यता का निखार, त्वचीय रोगो से मुक्ति और मसपेशियां बलवान व ऊर्जावान होती है, जो दैहिक रूप से नवजीवन का उन्नत आधार बनाती है। यह सभी धार्मिक और सामाजिक प्रवृत्तियाँ या प्रथा, भावी दम्पति के मध्य मजबूत संबंध की आधारशिला रखते हुए समृद्ध, संतुलित और सुखमय जीवन की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। हल्दी से उत्पन्न सकारात्मक दृष्टि-रक्षक ऊर्जा शरीर के सभी चक्रों को नियंत्रित कर सूर्य के समान शक्ति और तेज संचारित करती है, जो समस्त पापों का नाश करती है और आकर्षित करने की ऊर्जा संरक्षित करती है।
षट्कर्म, कलश पूजन, गुरुवन्दना, गौरी गणेश पूजन, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन कराकर वर के दाहिने हाथ में तथा कन्या के बायें हाथ में रक्षा सूत्रकंकण पीत वस्त्र में पीली सरसों, अक्षत, हिंग ,कौड़ी, लौह मुद्रिका आदि बाँधकर मंत्र उच्चरित करते हुए वर / कन्या हथेली व लोक-रीति के अनुसार अंग अवयवों के सात स्थानो पर दूर्वा से हल्दी व सरसो तैल चढ़ावा कर शान्ति पाठ के साथ क्षमा, नमस्कार कायर्क्रम पूर्ण कराते हुए कराई जाती है।
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