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संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 20-06-2024

सामाजिक उपभोक्ता की उत्पाद या सेवाओं की लक्ष्य पूर्ति हेतु वैधानिक मान्यता प्राप्त निर्मित संस्था ही व्यापार को जन्म देती है।

वैदिक शास्त्रों में प्रतिष्ठान का अर्थ जड़, नींव, मूल आधार स्थापित या प्रतिष्ठित करने की क्रिया देवमूर्ति की स्थापना, बैठाना, कोई व्यापारिक संस्था या संगठन, नगर स्थापन, विश्रामालय इत्यादि वर्णित है। व्यवसाय (Business) वैधानिक मान्यता प्राप्त संस्था है, जो सामाजिक या उपभोक्ता की उत्पाद या सेवा प्रदान करने के लक्ष्य पूर्ति हेतु निर्मित की जाती है। जिसे कम्पनी, इंटरप्राइज या फर्म भी कहते हैं। पूँ‌जीवादी अर्थ व्यवस्थाओं में व्यापार लाभ कमाने और अत्पाद या रोग प्रदान करने का प्रमुख कार्य सम्पादित करती हैं।

प्रत्येक वर्ग पर निर्भर व्यापार, स्वयं की वृ‌द्धि के साथ-साथ राष्ट्र के विकास में प्रमुख घटक है

व्यापार स्वयं की वृ‌द्धि के साथ-साथ राष्ट्र के विकास में प्रमुख घटक है, जिनका प्रभाव प्रत्येक वर्ग पर हो सकता है। इसीलिए व्यापार में सद् भाव, सद्विचार, परोपकारी और कल्याणकारी भावनाएं नितांत आवश्यक होती हैं। अन्यथा स्वयं की समृद्धि, उन्नति और सफलता विनाशकारी और नकारात्मकता का रूप ले लेती है। पौराणिक काल से ही विनाशकारी और नकारात्मकता को नष्ट कर सकारात्मकता, और सद्‌भाव स‌द्विचार को संतुलित संचालन देने के भाव से ही प्रत्येक व्यवसायिक गतिविधियों में पूजा को अनिवार्य उपाय या घटक ही माना जाता है। उन्नति को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में व्यापारिक पूजाओं का आयोजन व्यापार की सकारात्मक ऊर्जा बढ़ाने, बाधाओं को हटाने, व्यापारियों को अधिक संवेदनशीलता, सकारात्मकता और निरंतरता बनाए रखने में सहायता करती है।

विकास और विस्तार ही किसी व्यवसाय के दो पहिये हैं

व्यापार में कभी भी स्थिरता नहीं रह सकती, यहाँ सदैव ही उतार-चढ़ाव, समस्याओं, बाधाओं के मध्य सफलता अपना मार्ग बनाती रहती हैं और यदि सफलता का मार्ग अवरु‌द्ध हो जाये, तो अवसाद, परेशानी, हताशा, लाचारी, निर्धनता और खराब स्वास्थ्य इत्यादि इसके दुष्परिणाम होते हैं। विकास और विस्तार ही किसी व्यवसाय के दो पहिये हैं, जिनके गतिमान रहने से ही उत्साह, आशातीत आय वृद्धि, लाभ, मानसिक शांति, स्थिरता, अनुपम शक्तियां, उच्च कर्म की क्षमता/ आत्मविश्वास मिलता रहता है। व्यवसायिक दृष्टिकोण से धार्मिक पूजा और अनुष्ठानों का महत्व अ‌द्वितीय होता है। इससे प्राकृतिक दिव्य शक्तियों और देवी-देवताओं का हस्तक्षेप, संरक्षण, विशेष ऊर्जा और आशीर्वाद मिलने के साथ- साथ ग्राहक, सहयोगी, सेवकों, कर्मचारियों का सहयोग और राजकीय अनुरक्षण भी अर्जित होता है।

व्यवसाय में धार्मिक पूजा और अनुष्ठान से सही निर्णय लेने की क्षमता, संतुलन और उत्तराधिकारिता को बढ़ावा मिलता है। 

इस प्रकार पूजा और धार्मिक अनुष्ठानों से व्यवसाय में जिम्मेदारियों को समझने, स्थिरता, संवाद, सही निर्णय लेने की क्षमता, संतुलन और उत्तराधिकारिता को बढ़ावा ही मिलता है। सफलता की दिशा में सम्बन्ध और विश्वास के निर्माण के अधिक सकारात्मक सजीव मार्ग को प्रोत्साहन देकर व्यवसायिक संवेदनशीलता, निरंतरता, और सकारात्मक ऊर्जा का संचार व्यापारियों में धार्मिक और आध्यात्मिक उन्नति का अनुभव ही कराता है। सामान्यतः किसी भी व्यवसाय से मानसिक और आत्मिक जुड़ाव हेतु अथवा व्यापार आरम्भ में प्रतिष्ठान पूजन विधान प्रचलन में है, क्योकि व्यापार या प्रतिष्ठान शुभारम्भ या उ‌द्घाटन से व्यापार में लक्ष्मी-वास (प्रसन्नता का वास) होता है, किन्तु वैदिक काल से ही नववर्ष आरम्भ तिथि को भी विधि अनुसार पूजन का विधान प्रचलित था, जो अज्ञानता के कारण लुप्त पर्याय है।

व्यापरिक सफलता हेतु शास्त्रोक्त विधि व नियम 

सारांश में, प्रतिष्ठान पूजन में नक्षत्रों, नवग्रहों, सार्वभौमिक ऊर्जाओं (धरती माँ, देवी देवता, गंगा, गणेश, गौरी, सूर्य, अग्नि, ब्रहमा, लक्ष्मी जी, कुबेर, पंचतत्व, वैभव प्रतीक और दशों दिशाओं के देव देवियों) का आवाहन कराकर पूजक से सुख, शान्ति, वैभवपूर्ण जीवन, व्यापारिक समृ‌द्धि की अभिलाषा पूर्ति के लिए शास्त्रीय नियमानुसार देवों को विस्तृत संस्करण होमा या यज्ञ या हवय (हवन) करवाकर यह अनुष्ठान पूर्ण होता है, जिनसे सभी पाप और बीमारियों से मुक्त उनका आशीर्वाद सदैव व्यापार और जीवन इत्यादि पर उन्नति और संतुलन सत्तत बना रहे। अनुष्ठान से व्यापारिक क्रिया कलाप को सकारात्मक मार्ग प्राप्त होता है। जिससे व्यापारिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर और मनोबल में तादी होती है। का व्यापारिक अनुष्ठान एक धार्मिक, समानिक, और आदिक अनुभव हो सकता हो। जो व्यापरिक सफलता को समर्थ बनाने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है 

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