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Rishi Panchmi - वैदिक परम्पराओं में वेद-ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता ऋषि परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टा ऋषि की मूल पहचान


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संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 13-09-2023

ऋषियों का सानिध्य सांसारिक जीवन को श्रेष्ठ और उन्नत बनाता है

सनातन संस्कृति में ऋषियों का सम्पूर्ण और वास्तविक ज्ञान सनातनियों में अल्प है, इसीलिए संभवतः अनादि वैदिक ऋषियों को एक दिन पूर्णतः समर्पित करते हुए ऋषि व्रत का प्राविधान किया होगा, जिसे आज के परिवेश में ऋषी पंचमी की मान्यता प्राप्त हैं, किन्तु ज्ञान और तथ्यों की जानकारी का अभाव भारतीय मानस में इसको उतना महत्त्व नहीं देता, जितना इसका तेजस है। वास्तव में ऋषियों की गाथा और उनके प्रताप का सोपान प्रत्येक भारतीय को करना चाहिए। सभी ज्ञात-अज्ञात ऋषियों, सप्त ऋषियों, वायु पुराण, मत्स्य पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण में ऋषि शब्द का व्यापक वर्णन किया गया है।

ऋषियों का सानिध्य भाग्य को बदलता है और भाग्य मानव के विचारों के अधीन है और विचार, व्यवहार एवं कर्मो पर आधारित रहते है। तपस्या से पवित्र अंतर्ज्योति सम्पन्न, मन्त्र द्रष्टा एक ॠषि, तत्वों से साक्षात्कार कर अपरोक्ष अनुभूति के माध्यम से मानव में नए विचारों को स्थापित कर पापात्मक विचार सुधारते हुए सांसारिक आडम्बर से दूर उसके व्यवहार और कर्मों में भक्ति व आनंद का रूप धारण कराता है, जो उनके सांसारिक जीवन को श्रेष्ठ और उन्नत बनाता है.

समस्त वेद की परम्परा के मूल पुरुष ब्रह्मा जी (ऋषि) हैं।

तैत्तिरीय आरण्यक के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में ॠषि को तपस्या के बल पर अयोनि संभव व्यक्तियों के पास स्वयंभू ब्रह्म (वेद ब्रह्म) या ब्रह्म ज्ञान प्राप्त होना ही ॠषित्व प्राप्ति बताया गया है। अर्थात ॠषि वह व्यक्ति है, जिसने वेद मन्त्र के स्वरूप को यथार्थ रूप में समझा है। वेदज्ञान की स्वत: प्राप्ति के कारण ‘ॠषित्व’ स्वयमेव आविर्भाव होने से ही ॠषि हैं। इस यथार्थ’- ज्ञान के प्राय: चार प्रकार से होता है 1. परम्परा के मूल पुरुष होने से, २.उस तत्वों के साक्षात दर्शन से, ३.श्रद्धापूर्वक प्रयोग तथा साक्षात्कार से और ४.इच्छित (अभिलषित)-पूर्ण सफलता के साक्षात्कार से। शास्त्रोक्त दर्शन करने वाला तत्व साक्षी अथवा तत्वों को अपरोक्ष अनुभूति रखने वाला विशिष्ट पुरुष ही ॠषि है। 

ऋषियों को प्राप्त धातुओं (गुणों) में ब्रह्मा जी का निवेश

आदि के कल्प में सर्वप्रथम अनादि वैदिक ऋषि शब्द का प्रथम उपदेश ब्रह्माजी के हृदय में हुआ और ब्रह्मा जी से अध्ययन-अध्यापन की परम्परागत गतिमान होकर विकसित होती गयी, जिसका निर्देश ‘वंश ब्राह्मण’ आदि ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। अतः समस्त वेद की परम्परा के मूल पुरुष ब्रह्मा जी (ऋषि) हैं। ऋषी शब्द के अनेक अर्थ बताए गए हैं किन्तु श्लोक (ॠषित्येव गतौ धातु: श्रुतौ सत्ये तपस्यथ्। एतत् संनियतस्तस्मिन् ब्रह्ममणा स ॠषि स्मृत:॥) के अनुसार 1. गति 2. श्रुति 3. सत्य तथा 4. तपस्। ये चारों वस्तुएँ ब्रह्मा जी द्वारा जिस साधको में नियत कर दी जायें, वही ‘ॠषि’ होता है।

  1. गति - ॠषित्व प्राप्ति के उपरान्त ॠषि को अमुक कर्म में किस अमुक मन्त्र विशेष की सहायता से किस प्रकार का फल परिणत होगा, उन तथ्यों का पूर्ण ज्ञान होता है, जिसे गति की संज्ञा मिलती है।
  2. श्रुति - अपौरुषेय वेद ॠषियों के ही माध्यम से वेद के वर्णमय विग्रह को अपने दिव्य श्रोत्र व श्रवण से विश्व को आविर्भूत किया, इसीलिए उनको श्रुति भी कहा गया है।
  3. सत्य - आदि ॠषियों की वाणी के पीछे सम्पूर्ण अर्थ जगत दौड़ता-फिरता है, किन्तु ॠषि अर्थ के पीछे कभी नहीं दौड़ते। इसीलिए ॠषियों की वाणी को सत्य भी कहा गया है, जो अपरिवर्तनीय है एवं शाश्वत और अटल है।
  4. तपस् - तपस्या से पवित्र अंतर्ज्योति सम्पन्न मन्त्र द्रष्टा व्यक्तियों की ही संज्ञा ॠषि है। ॠषित्व प्राप्ति तपस्या या साधना के बिना सम्भव नहीं होती, अर्थात तपस् के बिना ॠषित्व नहीं और ॠषित्व के बिना ॠषि नहीं।

संसार की चरम सीमा को देखने वाले ऋषियों की पहचान

वेद-ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता ऋषि परोक्षदर्शी, दिव्य दृष्टि वाला ही होता है. जो अपने ज्ञान के द्वारा संसार की चरम सीमा को देखता है। ऋषि ज्ञान पर आधारित मंत्रों के प्रयोगों को ऋचाओं या अनुभूतियों के बदलाव की स्पष्ट क्षमता रखते है, इस प्रकार तत्व-साक्षात्कार के मूलाधार पर ऋषियों के भिन्न-भिन्न रूप या अनेक ऋषियों के सामूहिक रूप से एक ही मन्त्र का अनेक शब्द हुए थे। अत: वे सभी उस मन्त्र के ऋषि माने गये हैं। इसी आधार पर एक ही मन्त्र को उक्त चारों प्रकार से या एक ही प्रकार से देखने वाले भिन्न-भिन्न व्यक्ति ऋषि हुए हैं। फलत: एक मन्त्र के अनेक ऋषि होने में परस्पर कोई विरोध नहीं रहा है, क्योंकि मन्त्र ऋषियों की रचना या अनुभूति से सम्बन्ध नहीं रखता था, अपितु ऋषि मन्त्र से ही बहिरंग रूप में उस सम्बद्ध व्यक्ति पर होने वाले प्रभाव मुख्य था। वेद की परम्परा के मूल पुरुष ब्रह्मा जी के इन ऋषि की निम्नवत 21 प्रकार की पहचान बताई गई है :- 

  1. वैखानस - ब्रह्मा जी के नख (नाखून) से इस समूह के ऋषियों की उत्पत्ति हुई थी।
  2. वालखिल्य - ब्रह्मा जी के त्वचा व रोम से इस समूह के ऋषियों की उत्पत्ति हुई थी।
  3. संप्रक्षाल - भोजन के बाद, दूसरे समय के लिए ये भोजन नहीं बचाते अर्थात भोजन के बाद ये बर्तन धो-पोछकर रख देना ही इन ऋषियों की विशेषता है।
  4. मरीचिप - पंचतत्वों के आहार सहित सूर्य और चन्द्र की किरणों का पान करना ही इन ऋषियों की विशेषता है।
  5. बहुसंख्यक अश्म्कुट - कच्चे अन्न को पत्थर से कूटकर खाते इन ऋषियों पहचान है।
  6. पत्राहार - वनस्पति और पत्र (पत्तों) का ही सेवन करना इन ऋषियों की विशेषता है।
  7. दंतोलूखली - कच्चे अन्न को अपने दांतों की मदद से ही ऊखल खाना ही इन ऋषियों पहचान है।
  8. उन्मज्ज्क - जल में गले तक डूब कर तप करना इन ऋषियों की विशेषता है।
  9. गात्रशय्य - अपने भुजाओं पर सिर रख कर शरीर को ही शय्या बना विश्राम करना ही इनकी विशेष बात है
  10. अश्य्य - सोने के लिए कोई साधन नहीं, सीधे जमीन पर ही विश्राम करते हैं
  11. अनवकाशिक - लगातार सत्कर्म से दूर नहीं रहते हैं सत्कर्म ही इनका मूल कार्य होता है
  12. सलिलाहार - प्राकृतिक जल सेवन ही इन ऋषियों की विशेषता है।
  13. वायुभक्ष - ये ऋषि मात्र वायु सेवन ही करते हैं।
  14. आकाश निलय - खुले स्थलों में निवास करना और वर्षा (वृष्टि) के समय वृक्षों के नीचे निवास करते है.
  15. स्थनिडन्लाशाय - इन ऋषियों की विशेषता है कि ये वेदी पर ही विश्राम करते हैं.
  16. उर्ध्व्वासी - पर्वत, शिखर या कोई ऊंचा स्थान इनका निवास होता हैं.
  17. दांत - मन और सभी इन्द्रियों को वश में करके रखना ही इन ऋषियों की विशेषता है
  18. आद्रपटवासा - इस समूह के ऋषि सदा भीगे वस्त्र ही धारण करते हैं.
  19. सजप - निरंतर जप करते हुए लगातार सत्कर्म रहना ही इनकी पहचान विशेषता है
  20. तपोनिष्ठ - ऋषियों का यह समूह सदा तपस्या या ईश्वर के विचारों में लीन रहते है.
  21. प्रशिक्षक - ये आश्रम बनाकर लोगों को प्रशिक्षित करते हैं प्रशिक्षक ही इनका मूल कार्य होता है!

उक्त के अतिरिक्त भी वैदिक परम्पराओं के आधार पर अन्य ऋषि की पहचान निम्नवत है :-

  1. ऋषि ने अपनी तपश्चर्या के द्वारा प्रजापति की वैदिक परम्परा वैदिक मन्त्र तत्व को विशेष अवसर पर प्रत्यक्ष दर्शन करने पर ऋषि कहलाता है।
  2. अति श्रद्धापूर्वक मन्त्र या कर्म का प्रयोग तथा तत्व साक्षात्कार किये जाने के प्रतिफल से कल्प ग्रन्थों के निर्देशों में ऐसे व्यक्तियों को भी ऋषि कहा गया है
  3. वैदिक ग्रन्थों विशेषतया पुराण-ग्रन्थों के मनन से किसी मन्त्र का एक विशेष प्रकार के प्रयोग तथा साक्षात्कार से सफलता प्राप्त करने वाले को भी उन मन्त्र का ऋषि माना गया हैं।

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