संकलन : जया मिश्रा Advocate तिथि : 11-09-2023
जैविक परम्पराओं में मानव को एक सामाजिक प्राणी कहा जाता है और सांसारिक मोह-माया जगत् में उसके पास कर्म के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं होता, कर्म तो सांसारिक जीवन की बाध्यता है। केवल वही मानव कर्म से परे है, जिसके लिए आत्मा ही सर्वस्व है। जो सम्पूर्ण रूप से आत्मतृप्त है, जिसकी आत्मा,अब मन के अधीन ना हो, मन आत्मा को छोड़ अन्यत्र कहीं भी गमन ना करता हो, अन्य कोई अतिरिक्त लालसा ना हो, इसी मार्ग को मुक्ति पथ या मोक्ष कहा जा सकता है। सही मायने में अपवर्ग ही मोक्ष (मुक्ति) का तात्पर्य है। जिसका मूल अर्थ दु:ख-सुख दोनों से परे होना है।
जिस प्रकार से जल का स्रोत स्वाधीन भाव से रमण करते हुए किसी गड्ढे में गिरकर भँवर में परिवर्तित होकर गड्ढे के चारो ओर चक्कर काटने के बाद पुनः एक उन्मुक्त स्रोत के रूप में बाहर आकर अनिर्बन्ध रूप से बह जाता है, ठीक इसी प्रकार मानव जीवन भी है। मानव भी संज्ञान पाते ही नाम रूपात्मक भँवर में चिल्लाता है - यह मेरे पिता, यह मेरी माता, यह मेरा भ्राता, यह मेरा नाम, यह मेरा यश, यह मेरी कीर्ति इत्यादि इत्यादि। समस्त संसार का यही हाल है। पिता, माता, भ्राता और निकटस्थ इष्ट के बिछोह के बाद वास्तविक ज्ञान और विद्या के प्रज्जवलित प्रकाश से वह सांसारिक भँवर से बाहर हो पाता है, अन्यथा फिर वह पुनः अन्य गड्ढे के चारो ओर चक्कर काटने लगता है।
जीवन रुपी अज्ञानता से ज्ञान ही मोक्ष का प्रथम सोपान है। ज्ञान के प्रथम पड़ाव पर आते ही मानव को वास्तविक अज्ञानता का आभास हो जाता है कि शरीर त्यागने मात्र से ही मोक्ष नहीं मिलता। अशरीर होने पर भी आत्मा पर पड़ा बोझ, धूल अज्ञानता, अहंकार और अंधकार समाप्त नहीं होता और उसका बोझ उसे बहुत भारी प्रतीत होता है। भारी बोझ से मोक्ष का पथ वास्तविक ज्ञान और विद्या से प्रज्जवलित प्रकाश से ही, हो सकता है। प्रज्जवलित वास्तविक ज्ञान और विद्या के प्रकाश से ही मोक्ष का द्वार मिलता है।
श्री मद्भागवत पुराण के अनुसार सांसारिक विषय-चिंतन छोड़, ईश्वर-चिंतन से जीव अपवर्ग मार्ग पाता है। आत्मा तो सदैव ही मुक्त है, इसीलिए यह सतत संज्ञानित कराती रहती है, भेद बताती है, किन्तु मानवीय मन तो, विचारो के अधीन बाध्य होता है, जो आत्मवाणी का तिरस्कार कर सांसारिक विषय लालसाओं में अन्यत्र कहीं भी गमन करने लगता है। जिसके बाद मन ही सर्वस्व हो जाता है,आत्मा तो मात्र शून्य दर्शक बनकर रह जाता है।
इसीलिए मोक्ष का सही अर्थ है, मन के बंधन से मुक्त होना, क्योंकि यहाँ मोक्ष मन का होना चाहिए,जीवात्मा का नहीं। यदि मानव सामाजिक होकर अपने वैराग्य व विवेक से तत्व ज्ञान और मोह-माया की पहचान कर अज्ञानता की परत हटा लें, तो सही मायनों में प्रथम पड़ाव पर आते ही मानव मुक्ति का पथ आगे बढ़ जाता है।
मोक्ष का लाभ इस असीम विश्व के परे जाकर ही मिलता है। मुक्ति का मार्ग न तो स्वर्ग में है, न नर्क में है, मुक्ति का मार्ग सदैव मन और विचार के पास ही है। कल्पना शक्ति और इन्द्रियों के मेल से उपजता है कर्म व योग और कर्म व योग के अनुभव से ही चिंतन तथा ज्ञान का जन्म होता है। चिंतन और ज्ञान ही राग व वैराग के भेद को संज्ञानित कराता है। जिसका वैराग्य भाव मजबूत हो, वह व्यक्ति मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। शास्त्रों में इसके दो मार्ग बताये गये हैं- एक ‘नेति, नेति’ और दूसरा ‘इति, इति’।
पहला मार्ग निवृत्ति का, जिसमें सर्वस्व का त्याग करना पड़ता है और दूसरा मार्ग प्रवृत्ति, जिसमें सब वस्तुओं का भोग करके फिर उनका त्याग किया जाता है। जिसमे निवृत्ति मार्ग अत्यन्त कठिन है, यह केवल प्रबल इच्छा शक्ति सम्पन्न तथा विशेष उन्नत महापुरुषों के लिए ही साध्य है, क्योकि शरीर और मन तुरन्त आज्ञा का पालन करता है, परन्तु ऐसे लोग बहुत ही दुर्लभ हैं। इसीलिए अधिकांश विद्यजन प्रवृत्ति मार्ग ग्रहण करते हैं। वैसे यह भी एक प्रकार का त्याग है, बस अन्तर इतना ही है कि क्रमश: धीरे-धीरे सब पदार्थों को भोगकर, जानकर, अनुभवकर अंततः मन अज्ञानताओं को छोड़ देने में समर्थ हो जाता है और आसक्त शून्य बन जाता है।
जिसके निम्न चार प्रकार के मार्ग है, जो निम्न चरणों मे क्रियाशील होते हैं :-
निष्कर्ष:- सांसारिक आडम्बर से दूर अज्ञानताओ को समझ और जानकर ही, उसे विलुप्त किया जा सकता है और सांसारिक मोह-माया से दूर आत्मा-परमात्मा में विलीन होना ही सच्चा मोक्ष मार्ग है। इस प्रकार अज्ञानता से मुक्त परम ब्रह्म को प्राप्त करना ही मोक्ष है।
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