संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 08-09-2023
पवित्रता, विविधता और चमत्कारों की भूमि भारत, वैदिक संस्कृति का भण्डार है, जिसे संक्षेप में बता पाना बहुत कठिन है, लेकिन प्राचीन संस्कृति की गहराई में जाने पर भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं और उनके वर्गीकृत स्वभाव और प्रकृति के अनुसार व्याख्या अवश्य मिलेगी। इस ब्रह्मांड में त्रिगुणी यानी सात्विक, तामसिक और राजसिक पद्धति के अनुसार व्यवहार, अनुभूति, अनुभव, संप्रदाय सभी कुछ भिन्न हो जाते है। कुछ सनातनी समृद्धि पाने के इच्छुक होते हैं, वे समृद्धि स्वभाव और प्रकृति के देवी-देवताओं का पूजा चुनते हैं। कुछ सनातनियों को सफलता की चाह होती है, वे समृद्धि स्वभाव और प्रकृति के देवी-देवताओं का उपदेश करते हैं और जिन्हें सार्वभौमिक समग्र ऊर्जा की आवश्यकता होती है, वे सभी संप्रदाय और त्रिगुणी प्रकृति के देवता और देवियां का चयन करते हैं।
प्रत्येक देवी-देवता का अपना स्रोत होता है और सभी शिव में समाहित होते है, जिनका उल्लेख उपनिषदों और पुराणों में शक्ति के केंद्र और दिव्यता के रूप में मिलता है। आक्रान्ताओं और लुटेरों के कारण यह वैदिक संस्कृति लगभग नष्ट ही हो गयी है, किन्तु प्राचीन पाठ्य पुस्तकों का विशाल भंडारो में वैदिक संस्कृति के अनुसार जानकारी की एक विशाल सूची हैं।
भारतीय संस्कृति सदैव ही गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित शिक्षा उपदेशकों से विभिन्न देवी-देवताओं को अनुसंधानित करती रही है। इसी परंपरा के माध्यम से ज्ञान का भंडार पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थापित और हस्तांतरित होता रहा है। इस ब्रह्मांड की शक्ति में कई बिखरे हुए ब्रह्मांडों की शक्ति भगवान शिव और पार्वती की ही शक्ति हैं। प्रमुख उपनिषदो के अनुसार शिव प्रकृति और पार्वती शाश्वत शक्ति हैं, जिनका स्मरण कर कई चमत्कारिक शक्तियों को प्राप्त कर जीवन में दिव्यता प्राप्त किया जा सकता हैं। प्रकृति और उसके चमत्कारों से जीवन के परे आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए देवी-देवताओं का आवाहन व पूजन मानव जाति के लिए आवश्यक हो जाता है।
प्रत्येक माह की अमावस्या (अमावस) के बाद की तृतीय रात्रि अथवा पूर्णिमा के उपरान्त की तृतीय रात्रि को तीज कहा जाता है और तीज के साथ ही आन्तरिक उर्जा में तीव्रता से परिवर्तन भी आता है, जिसे चौथ से मान्यता मिल जाती है। इसी प्रकार श्रावण मास से मानसून या बरसात के मौसम के दौरान आस-पास का वातावरण हरा-भरा होता है, तो उसमें आने वाली शुक्ल पक्ष की तृतीया को हरियाली तीज कहा जाता है और भद्रपद मास से प्रकृति की उदारता, बादलों और बारिश के आगमन, हरियाली और पक्षियों के उत्सव का समय माना जाता है, जिसमे सौभाग्यवती व सात्विक पात्रता के लिए रीति-रिवाजों के साथ सामाजिक गतिविधियों और अनुष्ठानों के साथ हरतालिका व्रत आन्तरिक अवसाद और उदासीनता को पूर्णतया समाप्त कर देता है। इसमे हाथों से पैरों तक सजना, नाचना, गाना, मेहंदी लगाना, कहानियाँ सुनाना, चटकदार सुहागिन वस्त्र पहनना, पेड़ों के नीचे खेलना, उत्सव के भोजन साझा करना इत्यादि सभी कृत्य शिव और पार्वती को समर्पित होते है।
सौभाग्यवती स्त्रियों के सुहाग को अखण्ड बनाए रखने में हरतालिका तीज एक प्रगतिशील त्यौहार है, क्योंकि यह मानसिक समझ और समर्पण को बढ़ावा देता है, जिसे स्त्री व पुरुष दोनो ही पाना चाहते हैं। यह आपसी बाध्यता को कम करते हुए आकर्षण को बढ़ाने वाला व्रत है।
इसलिए इस त्यौहार को प्रतिकूल कहने से पहले विज्ञान और तर्क को जानना आवश्यक है। स्त्री व पुरुष दोना ही एक साथ उपवास कर एकजुटता के साथ इस दिवस को उपवास, भक्ति, सात्विकता के साथ दैविक शक्तियों का जागरण करते हैं।
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को हस्त नक्षत्र की संयुक्ति को हरतालिका व्रत होता है, इसे बड़ी तीज या तीजा भी कहते हैं। प्रत्येक सौभाग्यवती स्त्री इस व्रत को रखने में अपना परम सौभाग्य समझती है। इसे विशेषकर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और बिहार प्रान्त का सर्वाधिक कठिन व्रत माना जाता है, क्योकि इस व्रत की बाध्यता है कि एक बार व्रत रखने के उपरांत जीवन पर्यन्त व्रत को रखना पड़ता है। इसिलिये यदि व्रती गंभीर रोगिनी स्थिति में हो, तो उसके स्थान पर दूसरी महिला व उसका पति भी इस व्रत को रखने की पात्रता का विधान है। इस व्रत में पूरे दिन निर्जल व्रत (निशिवासर निर्जला) रखकर अगली तिथि को पूजनोपरांत ही व्रत सम्पन्न किया जा सकता है। मान्यता है कि बड़ी तीज या तीजा व्रत से स्त्रियां सुखपूर्वक पति रमण रहते हुए पार्वती जी के समान ही शिवलोक को प्राप्त करती हैं। विवाह योग्य अविवाहित कन्याएं भी उत्तम वर पाने की अभिलाषा से हरितालिका तीज का व्रत करती हैं।
संस्कृत शब्द के हरित और आलिका से मिलकर बना है हरितालिका, जिसका अर्थ "हरण" और "सखी" है। इस व्रत में विशेष रूप से गौरी−शंकर का ही पूजन होता है। जिसमें व्रती स्त्रियां सूर्योदय से पूर्व ही उठकर स्नानादि के उपरान्त पूर्ण श्रृंगारित होकर केले के पत्तों से बने मंडप में गौरी−शंकर की प्रतिमा स्थापित करती हैं और साथ ही शिव-पार्वती विवाह की कथा सुनती है, जिसमें शिव से विवाह करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पार्वती की सखी (आलिका) के द्वारा उनका हरण और शिव के अर्धासन को प्राप्त करने का वृतांत समाहित होता है। व्रती का रात्रि में शयन करना भी निषेध होता है, इसके लिए व्रती रात्रि में भजन कीर्तन के साथ रात्रि जागरण भी करती है। पुनः प्रातःकाल स्नानाददि के पश्चात् सुपात्र सुहागिन महिला को श्रृंगार सामग्री, वस्त्र, खाद्य सामग्री, फल, मिष्ठान्न एवम यथाशक्ति आभूषण का दान कर व्रत का पारण करती है।
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