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Agarbatti - बांस को जलाने से वंश वृद्धि बाधित, अस्थमा, कैंसर, सरदर्द एवं खांसी संभावित और ईश्वर भी अप्रसन्न


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संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 11-05-2023

सनातन संस्कृति मे कोई भी नियम अथवा कर्म कपोल कल्पना पर आधारित नहीं है, सब कुछ प्रकृतिक संरक्षण के नियमो और विज्ञानपरत तथ्यो के अधीन ही होता है। सनातन संस्कृति मे पूजन पाठ की अनगिनत श्रंखलाए है, जिन्हे भिन्न भिन्न प्रकार से संपन्न कराने के लिए कई प्रकार की पूजा सामग्रियों का उपयोग किया जाता है। इन पूजन सामग्रियों में भिन्न भिन्न प्रकार की लकड़ियों सम्मिलत हैं, जिनके उपयोग से पूजन एवं अनुष्ठïन सम्पन्न होते हैं।

इन्हीं में से एक लकड़ी हैं बांस... सनातन संस्कृति मे अधिकतर शुभ कार्यों यानी शादी, जनेऊ, मुण्डन जैसे शुभ कामों में बांस से निर्मित्त और बाँस की समग्रियाँ का उपयोग अनिवार्य और शुभ ही माना जाता है, जिसके पीछे मान्यता है कि अग्रिणी पीढ़ी से जुड़े शुभ कार्यों में बांस से निर्मित्त समग्रियाँ उपयोग करने से वंश वृद्धि और धन धान्य स्थिर होता है। इसीलिए प्रायः बेटियों के विवाह में बांस से निर्मित्त समग्रियों का उपयोग अवश्य होता है, जिसका तात्पर्य माना जाता है कि बांस अर्थात बंस बेटी के साथ जिस घर में जाएगा, उस घर मे बांस के समान तीव्रता से वंश और धन धान्य वृद्धि होने लगती है।

बाँस की प्राकृतिक सुदंरता के कारण दुनिया में बाँस का आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्व है। इसका उपयोग घरेलु उपयोग की वस्तुएँ, चटाइयाँ, कुर्सी, टेबुल, चारपाई एवं साज-सज्जा के सामान, फसल, वास्तुकला, भंडारण संरचनाओं, आवास, मत्स्य पालन संरचनाएं, मछलीजाल, मछली बीजों का परिवहन, पुल बाँधने इत्यादि में किया जाता है। चिकित्सकीय उपकरण के अभाव मे बाँस के तनों एवं पत्तियों को काट छाँट कर सफाई करके खपच्चियों का उपयोग किया जाता है। बाँस का खोखला तना अपंग लोगों का सहारा है और इससे खेती के औजार, ऊन तथा सूत कातने की तकली बनाई जाती है।

पुराने समय मे बाँस से तीर, धनुष, भाले आदि लड़ाई के सामान तैयार किए जाते थे एवं किलों की रक्षा बाँस की काँटेदार झाड़ियों से की जाती थी। इससे तरह-तरह के बाजे, जैसे बाँसुरी, वॉयलिन इत्यादि बनाया जाता है। बाँस की नई शाखाओं में रस एकत्रित होने पर वंशलोचन बनता है और तब इससे सुगंध निकलती है। बाँस का अचार तथा मुरब्बा भी बनता है। जानवरों को बच्चा होने के बाद पेट की सफाई के लिए छोटी छोटी टहनियों तथा पत्तियों को उबाल कर दिया जाता है।

सनातन संस्कृति से ही विकसित हुई बौद्ध संस्कृति में भी बांस अत्यधिक शुभ माना जाता है। नागा लोगों में पूजा के अवसर पर इसी का बरतन उपयोग मे लेते है और ऐसी मान्यता है कि बांस का पौधा जहां पाया जाता है, वहां नकारात्मक ऊर्जा विकसित नहीं होती है, किन्तु इसके विपरीत विद्वानों और बुजुर्गों को यह कहते अवश्य सुना जाता है कि पूजन पाठ बांस नहीं जलाना चाहिए। जिसका प्रमाण ही यह है कि लगभग सभी सनातनियों में मृत्युपरांत बांस की हरी, मजबूत, लचीली और हल्की लकड़ी का इस्तेमाल कर पार्थिव शरीर को शमशान तक ले जाकर अंतिम संस्कार किया जाता है, लेकिन अन्य लकडिय़ों के साथ बांस को नहीं जलाया जाता हैं। बांस न जलाने के पीछे ठोस वैज्ञानिक कारण है। यह तथ्य अक्षरश: सत्य है। सनातन संस्कृति मे बांस को जलाना शुभ नहीं माना गया है और परंतु बांस को जलाना क्यों अशुभ है और इसके पीछे क्या वैज्ञानिक कारण है, इसे जानने और समझने मे यह यह लेख अत्यधिक सहायक सिद्ध होगा।

भारत में पाई जाने वाली अत्यंत उपयोगी घास बाँस है, बाँस एक सपुष्पक, आवृतबीजी, एकबीजपत्री कुल का पादप है। इसके अन्य महत्वपूर्ण सदस्य दूब, गेहूँ, मक्का, जौ और धान हैं। भारत में बाँस के कुल जंगल का क्षेत्रफल 13 प्रतिशत है और बाँस के जंगलों का कुल क्षेत्रफल 11.4 मिलियन हेक्टेयर है। भारत में बाँस के लगभग 24 वंश पाए जाते हैं एवं 70 से अधिक वंशो वाले बाँस के 1000 से अधिक प्रजातियाँ है। यह पृथ्वी पर सबसे तेज बढ़ने वाला काष्ठीय पौधा है।

इसकी कुछ प्रजातियाँ एक दिन (24घंटे) में 121 सेंटीमीटर (47.6इंच) तक बढ़ जाती हैं। थोड़े समय के लिए ही सही पर कभी-कभी इसके बढ़ने की रफ्तार 1मीटर (39मीटर) प्रति घंटा तक पहुँच जाती है। बाँस का तना, लम्बा, पर्वसन्धियुक्त, खोखला एवं शाखान्वित होता है। तने को सन्धि-स्तम्भ कहते हैं। पर्वसन्धियाँ ठोस एवं खोखली होती हैं। बाँस की पत्तियों का शीर्ष भाग भाले के समान नुकीले होते हैं। बाँस परिस्थिति के अनुकूल, जैव-क्षयी एवं प्राकृतिक निर्माण पदार्थ होने से बेहतर क्षमता एवं निर्माण गुण रखता है। बाँस का सबसे उपयोगी भाग तना है, तने की मजबूती उसमें एकत्रित सिलिका तथा उसकी मोटाई पर निर्भर है। यह पौधा अपने जीवन में एक बार ही सफेद फूल और फल धारण करता है।

इसका बीज साधारणतया घास के बीज के समान होता है। साधारणत: शुष्क एवं गरम हवा, सूखे की स्थिति मे ही जब खेती मारी जाती है और दुर्भिक्ष पड़ता है, तभी बाँस पत्तियों के स्थान पर कलियाँ खिलती है। फूल खिलते ही पत्तियाँ झड़ जाती हैं और बाँस का जीवन समाप्त हो जाता है। मिट्टी में आने के प्रथम सप्ताह में ही बीज उगना आरंभ कर देता है, बीजों से बाँस धीरे-धीरे उगता है। कुछ बाँसों में वृक्ष पर दो अंकुर निकलते हैं। बाँस का जीवन 1 से 50 वर्ष तक होता है। प्रत्येक बाँस में 4 से 20 सेर तक जौ या चावल के समान फल होते हैं, जो चावल की अपेक्षा सस्ते बिकते हैं। यह भोजन का भी स्रोत है। बाँस के 100 ग्राम बीज में 60.36 ग्राम कार्बोहाइड्रेट और 265.6 किलो कैलोरी ऊर्जा रहती है। बाँस के बीज से अधिक कार्बोहाइड्रेट और अधिक ऊर्जा देने वाला स्वास्थ्यवर्धक पदार्थ कोई और नहीं है।

बाँस के पानी में बहुत दिन तक बाँस खराब नहीं होते और कीड़ों के कारण नष्ट होने की संभावना रहती है। भारत में बाँसों का पाँच प्रकार पाये जाते है- 1.वेदुर बाँस 2.काँटेदार बाँस 3.पेका बाँस 4.पीली एवं हरी धारी वाला बाँस 5.शिवालिक पर्वतीय बाँस

वैज्ञानिक शोध में पता चला है कि बाँस का पेड़ अन्य पेड़ों की अपेक्षा 30 प्रतिशत अधिक ऑक्सीजन छोड़ता और कार्बन डाई ऑक्साइड खींचता है साथ ही यह पीपल की तरह दिन में कार्बन डाई ऑक्साइड लेता है और रात में आक्सीजन छोड़ता है। अन्य तीव्र गति से बढ़ने वाले पेड़ों की तुलना में बाँस वातावरण से कई गुना ज्यादा कार्बन संरक्षित करता है। बाँस का एक हेक्टेयर क्षेत्र प्रतिवर्ष वातावरण से 17 टन कार्बन अवशोषित कर सकता है। बांस की लकड़ी में लेड के साथ अन्य कई प्रकार के धातु होती हैं। ऐसे में बांस की लकड़ी जलाने से ये धातुएं अपनी ऑक्साइड बना लेते हैं, जिससे वातावरण दूषित होकर जान भी ले सकता है, दूषित हवा के अंश सांस के द्वारा शरीर में प्रवेश कर न्यूरो और लीवर संबंधी परेशानियो का खतरा बढ़ते है।

अगर आप नियमित पूजा में खुशबूदार अगरबत्ती जलाते हैं, तो घर के अंदर धुएं की सान्द्रता बढ़ जाती है और कार्बन मोनोऑक्साइड फैलता है, जिसका फेफड़ों पर ज्यादा असर होता है,  अगरबत्ती के धुएं में पाए जाने वाले पॉली एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन से पूजा करने वाले को अस्थमा, कैंसर, सरदर्द एवं खांसी ज्यादा पाई गई है।

घर में हर रोज जाने अनजाने में बांस जला रहे हैं। पूजा की अगरबत्तियों में बांस के साथ साथ सुगंध के प्रसार के लिए फेथलेट नाम के विशिष्ट केमिकल का प्रयोग किया जाता है। यह भी सांस के साथ शरीर में प्रवेश करता है। इस प्रकार अगरबत्ती की सुगंध न्यूरोटॉक्सिक एवम हेप्टोटोक्सिक को भी सांस के साथ शरीर में पहुंचाती हैं। इसकी लेश मात्र उपस्थिति कैंसर या मस्तिष्का घात का कारण बन सकती है।

धर्म के जानकार कहते हैं कि बांस को जलाने से कुल के वंश की वृद्धि रूक जाती हैं एवं ईश्वर भी प्रसन्न नहीं होते हैं। बांस की लकड़ी का धुंआ प्रजनन क्षमता को प्रभावित करता है, इसीलिए मान्यता है कि बांस को जलाने से कुलवंश जलता है, इसलिए बांस को जलाना अर्थात अपना वंश जलाना। अगरबत्ती में बांस की सींके लगी होती हैं और अगरबत्ती जलाने से पितृदोष लगता है। सेहत और धर्म दोनों ही दृष्टि से अगरबत्ती का उपयोग हानिकारक है, जबकि धूपबत्ती वातावरण में मौजूद विषाणुओं का नाश करती है। इसके उपयोग से घर में सकारात्मक ऊर्जा का आगमन होता है। कुल मिलकर धर्म शास्त्रो के अनुसार बांस को शुभ मानने की वजह से इसकी लकड़ी को नहीं जलाना चाहिए, जिसके कारण बांस की लकड़ी को जलाना वर्जित है। 

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