संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 11-09-2023
सनातन संस्कृति के शास्त्रानुसार राधा जी का प्राकट्य दिवस, भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि है, जो श्री राधाष्टमी के नाम से प्रख्यापित है। जिसे 'राधा जयंती' के नाम से भी जाना जाता है। वेद तथा पुराणादि में इनका ‘कृष्ण वल्लभा’ कहकर गुणगान किया गया है। कल्पभेद में मान्यतानुसार वृन्दावनेश्वरी श्री राधाजी का प्राकट्य दिवस, वृषभानुपुरी (बरसाना) या उनके ननिहाल रावल ग्राम की यज्ञ भूमि में प्रातःकाल का मानते हैं। पुराणोक्त कुछ विद्वानों के अनुसार प्राकट्य काल मध्याह्न का वर्णन भी प्राप्त होता है। शास्त्रों में श्री राधा कृष्ण की शाश्वत शक्ति स्वरूपा एवम कृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी के रूप में वर्णित हैं।
इस दिवस राधा को व्यक्तिगत आत्मा और कृष्ण को सार्वभौमिक आत्मा मानते हुए मथुरा, वृन्दावन और बरसाना में राधाष्टमी का भव्य उत्सव होता है। कृष्ण जन्माष्टमी पर जहां आधी रात को कान्हाजी का जन्मोत्सव मनाया जाता है, वहीं राधाष्टमी की पूजा प्रातः काल होती है। राधाष्टमी पर राधारानी के साथ कृष्णजी की भी पूजा की जाती है। मान्यता है कि राधा अष्टमी व्रत का पालन करने वाले को समृद्ध जीवन का आशीर्वाद मिलेगा। राधा अष्टमी व्रत रखने और देवी लक्ष्मी की पूजा करने से सभी पापों से छुटकारा मिल सकता है और जातक सभी बाधाओं को पार कर मनोरथ और मोक्ष को प्राप्त करता है।
राधा सदा श्री कृष्ण को आनन्द प्रदान करने वाली साध्वी कृष्ण प्रिया थीं। अतः राधा जी की पूजा के बिना श्रीकृष्ण जी की पूजा अधूरी मानी गयी है। यह तिथि कृष्ण और राधा के बीच के निस्वार्थ प्रेम बंधन, मानव और भगवान के बीच एक अनोखे रिश्ते का भी सम्मान करता है। भगवती राधा की अर्चना से संपूर्ण कामनाओं का राधन (साधन) करती हैं, इसी कारण इन्हें श्री राधा कहा गया है और राधा और कृष्ण संयुक्त उपस्थिति को ही 'राधाकृष्ण' कहा जाता है। श्रीमददेवी भागवत में अति प्राचीन परंपरा तथा विलक्षण महिमा के प्रसंग वर्णन में नारायण ने नारद जी को श्री राधा पूजा की अनिवार्यता का निरूपण करते हुए बताया है कि यदि श्री राधा की पूजा न की जाए, तो मानव श्री कृष्ण की पूजा का अधिकार नहीं रखता। राधा श्री कृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी हैं, इसलिए भगवान कृष्ण इनके अधीन रहते हैं।
राधा अष्टमी से लगातार 16 दिनो तक श्री राधा को महालक्ष्मी रूपा मानते हुए व्रत का आरम्भ होता है, इसमें श्री राधा रानी को ही लक्ष्मी स्वरूपा मानते हुए पूजा करने से मन के नकारात्मक विचार दूर होते हैं और व्रती को आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति होती है।
व्रती मन मे संकल्प के साथ निश्चय करता है कि वह माता लक्ष्मी के हर नियम का पालन करते हुए यह व्रत पूरे विधि-विधान से पूरा करेंगा। संकल्प के साथ प्रार्थना भी की जाती है कि माता लक्ष्मी जी कृपा करे, कि यह व्रत बिना किसी विघ्न के पूर्ण हो जाए और संकल्प के बाद प्रथम दिवस ही एक सफेद डोरे मे 16 गठान लगाकर उसे हल्दी से पीला कर व्रती घर के हर सदस्य के हाथ की कलाई पर बांधता है और पूजन के बाद इसे लक्ष्मी जी के चरणों मे चढ़ाया जाता है।
पूजन के मुहूर्त पर पाटा या चौकी पर रेशमी कपड़ा बिछा पानी से भरा कलश पर अखंड ज्योत प्रज्वलित कर स्थापित करते हुए लाल रंग से सजी लक्ष्मी माता की तस्वीर और गणेश जी की मूर्ति के साथ मिट्टी से बने हाथी स्थापित कर लक्ष्मी जी की पूजा प्रातः व सन्ध्या मेवे तथा मिठाई का भोग लगाकर पूजन किया जाता है। व्रत समाप्ति के उपरान्त लक्ष्मी जी से व्रत के फल प्राप्ति की प्रार्थना कर विप्र को भोजन कराकर दान-दक्षिणा दी जाती है।
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