संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 18-06-2024
सामान्यतः सभी सनातनी धार्मिक स्थलो और घरो में स्वस्ति चिन्ह देखने को मिलता है, किन्तु इस प्रतीक चिन्ह का मर्म बहुत कम सनातनी को ज्ञात है। स्वस्ति चिन्ह आत्मा या ब्रह्म का प्रतीक है, जिसमे अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के द्वारा आत्मा को उन्नत और समर्थ बनाने हेतु मार्ग और साधन दोनों का व्यापक और विस्तारित वर्णन है। जिस प्रकार से विशिष्ट व दिव्य कर्म वाले व्यक्ति को उसके नाम से प्रसिद्धि मिलती है और उस नाम में ही ऊर्जा समाहित होती है, ठीक वैसे ही स्वस्ति चिन्ह भी समग्र आत्मा या ब्रह्म ऊर्जा को समाहित किए हुए है।
स्वस्ति मे दो शब्द समाहित है, एक सु दूसरा अस्ति, जिसका तात्पर्य है कि सुन्दर, शुभ, शांति और कल्याण के साथ विद्यमान होना। सनातन संस्कृति की यह प्राचीनतम परम्परा रही है कि किसी भी प्रकार के मांगलिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और सभी प्रकार के कर्मकांडो में मंगल की कामना के साथ मंगल सूचक मंत्रों का पाठ अवश्य किया जाता है, जो आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है। स्वस्तिवाचन में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक तथ्य छुपे हुए हैं। जिसके ध्वनि तरंगें से सकारात्मक ऊर्जा न केवल धार्मिक, बल्कि मानसिक, शारीरिक, स्वास्थ्य और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी समग्र कल्याण की दिशा में अत्यंत लाभकारी हैं। इसीलिए स्वस्तिवाचन (स्वस्ति मन्त्र का वाचन या पाठ करने की क्रिया) धार्मिक अनुष्ठान नहीं है, बल्कि सर्वोपरि वैदिक परंपरा है।
मान्यता है कि स्वस्तिवाचन के श्रवण से तन, मन और आत्मा सभी एक साथ निर्मल और उज्ज्वल हो जाते हैं और मन को सात्विक वेग मिलता है। अप्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति, परिवार और समाज में शांति, सुख और समृद्धि की कामना के दर्भ से जल के छींटे में मिश्रित स्वस्तिक मंत्रोच्चार की शुभता और शांति के प्रयोग से पारस्परिक क्रोध और वैमनस्य के शान्तिपाठ की क्रिया को स्वस्तिवाचन कहते हैं।
स्वस्तिवाचन में मंगलाचरण, गुरुवन्दना, सर्वदेव नमस्कार आदि कृत के साथ ऋग्वेद, यदुर्वेद, सामवेद की वैदिक स्वस्ति मंत्रो का भक्ति व श्रद्धा में निर्गुण भाव से उपासनात्मक वाचन किया जाता है।
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