संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 18-06-2024
शिव शब्द की उत्पत्ति दो शब्दों के संग्रह से निर्मित हैं - 1.शव २. शैव। शव का मूल तात्पर्य तो मृत पार्थिव है, जिसमे स्थिरता हो, जड़ हो, गतिविहीनता हो, शुन्यता हो, अनंत शान्ति हो, किन्तु शैव शब्द शैवाल से उपजता है, जिसमे निर्माण है, उन्नति है, विकास है, सौम्यता है, चेतना है और जीवन की नयी आशा है। इन सभी का संगृहित गुण और महिमा शिव में बसता है। अर्थात शिव प्रलय भी हैं, लय भी है। शिव जन्म भी हैं और मृत्यु भी हैं। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। शिव दुखों को हरने वाले परम कल्याणकारी अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के देव स्रोत हैं। वेदों और शस्त्रों मे शिव को स्थावर-जंगम, सर्वपदार्थ, सर्वजाति, मनुष्य, देव-दानव, पशु-पक्षी, जड़-मूल, वनस्पति आदि नाना रूपों में सर्वोत्तम अंतर्यामी भाव, सर्वसिद्धि एवं शक्ति के पुंज स्वरूप सर्वज्ञाता, अद्वैतनिष्ठ सिद्ध साधक का रूप वर्णित किया गया है।
सृष्टि के अस्तित्व का आधार और संपूर्ण ब्रम्हांड का मौलिक गुण ही एक विराट शून्यता है। वैज्ञानिक शोधों से सिद्ध है कि सृष्टि में सर्वस्व शून्यता से आता है और वापस शून्य में ही चला जाता है। उसमें मौजूद आकाश गंगाएं केवल सूक्ष्म गतिविधियां हैं जो किसी फुहार की तरह हैं। उसके अलावा सब एकांतवास या शून्य गर्भता है, इसे ही शिव के नाम से उदबोधन दिया गया है। शिव ही वो गर्भ हैं, जिसमें से सर्वस्व उपजता है और उन्ही में फिर से सर्वस्व समा जाता है। शिव अस्तित्वहीन है, जिनका ना आदि और ना अन्त है। सृष्टि के मौजूद विपरीत गुण सकारात्मकता और नकारात्मकता, दोनों ही मूल्य-संगम से परे शिव एक समाधि अवस्था हैं, जिसमें एक ही समय में वो शांत भी है और पूरी तरह जागरूक भी है| जहाँ शिव विद्यमान होंगे, वहां मन पूरी तरह समभाव में रहता है| अर्थात शिव सभी को समान दृष्टि से देखते है| अंधकार ब्रम्हांड का मौलिक शाश्वत है, किन्तु प्रकाश का अस्तित्व सीमित है।
प्रकाश की सीमित संभावनाऐ है, जिनके लिए किसी प्रकाशित श्रोत की आवश्यकता रहती है। बिना किसी श्रोत के प्रकाश का प्रभाव नहीं है। दिव्य अंधकार अर्थात प्रकाश का जितना बड़ा या गहरा श्रोत होगा, प्रकाश उतना ही अधिक प्रभावशाली होगा। इस प्रकार शिव जीवन मे प्रकाश रूपी गुरु हैं, जो निरन्तरता प्रदान करते है, लेकिन अंधकार भी शिव ही है, जहां जड़ और चेतना का वास है। निर्माण, पालन, चेतना जागरण के स्वामी शिव निद्रा और स्वप्न अवस्था के परे हैं| कुछ पथभ्रष्ट दिव्य अंधकार कों राक्षस रूप में जानते है, वे इसका विज्ञान भी नहीं जानते। ब्रम्हांड और सृष्टि की पूरी प्रक्रिया में स्पष्ट सिद्धांत नहीं मिलेगा, किन्तु प्रत्येक सनातनी दिव्य अंधकार को अचेतन तरीके से जानता है। इन्ही तथ्यों के आधार ही शिव को संहारक, अघोर (भंयकर), गौरम या रूद्र (उग्र), राक्षसों के देव की उपाधि भी दी जाती है। सनातन संस्कृति में शिव की सौम्य आकृति एवं रौद्र रूप दोनों ही देवगणों में पूजित है, अंशावतार कोई भी हो, बिना शिव भक्ति के किसी भी देव को मृत्युलोक में देवत्व प्राप्त नहीं है। शिव को देवादिदेव महादेव का सम्बोधन इन्हें अन्य देवों में अग्रिणी या देव शिरोमणि बनाता है।
शिव पूजा एक अत्यंत पावन,शक्तिशाली महत्वपूर्ण एवं अद्वितीय धार्मिक प्रक्रिया है। जिसमें भक्तों को मनोबल आनंद, शांति और आरोग्यता प्राप्त होती है। शिव पूजा करने से मानव जीवन में मन की शुद्धता, अपार आनंद, सफलता, सुख, संतुलन, समाज में मान-सम्मान , ऐश्वर्य की प्राप्ति और कर्मों में मोक्ष आता है। सबसे जल्दी प्रसन्न होने वाले देव को गुरु के रूप में पूजन करने पर भगवान शिव का भरपूर आशीर्वाद एवं कृपा मिलती है।
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समस्त देवों और सांसारिक आत्माओं का केंद्र रुद्र - सृष्टि के कर्ता, संहारकर्ता, पालनकर्ता हैं! रुद्रहृदयोपनिषद में समस्त देवो और संसारिक आत्माओ का केंद्र रुद्र को बताया गया है। सभी देवों की आत्मा रुद्र में हैं और ...
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