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Pooja Path भैरव पूजा


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संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 18-06-2024

भैरव जी - शिव के विनाश से संदर्भित पंचम परम ब्रह्म उग्र वशीकरण अंशावतार हैं।

भैरव पूजा अलग-अलग नामों से प्राय: सम्पूर्ण भारत, श्रीलंका, नेपाल और तिब्बती के अलग-अलग अंचलों में भयदायी और उग्र देवता के रूप में ही जाने-पहचाने जाते हैं और अनेक प्रकार की मनौतियाँ भी स्थान-स्थान पर प्रचलित हैं। महाराष्ट्र के खंडोबा ग्राम में भैरव पूजा की जाती है। शास्त्रीय संगीत में भैरव राग भी इन्हीं के नाम पर आधारित है। शिव के विनाश से संदर्भि पंचम उग्र वशीकरण अंशावतार परमब्रह्म भैरव को माना जाता हैं। भैरव जी को आदि भैरव, दंडपाणि, हरुका, वज्र भैरव और यमंतक, भैरवी बल्लभ, भैरव नाथ, बटुक नाथ महाभैरव और स्वस्वा भी कहा जाता है। दक्षिण भारत में भैरव का नाम शास्ता है। (शाब्दिक अर्थ - जो दिखने में विध्वंसक, भयानक और भयभीत करने वाले हो, किन्तु भय से रक्षा करें) पौराणिक ग्रंथों में दिव्य, अद्भुत और विलक्षण प्रकट शक्तियों के कारण भैरव जी को अत्यंत शक्तिशाली परिणामकारी और प्रमुख देवता मानते हुए उपासना प्रणाली में भैरव की दो शाखाए (बटुक और काल) प्रसिद्ध हैं, किन्तु स्वरूपों और परिणामी विशेषताओं के आधार पर इन्हें अष्ट भैरव की ख्याति भी मिली हुई है। ग्रंथों में अष्ट भैरवों आठों दिशाओं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य) का प्रतिनिधित्व करते हैं। (1. महाभैरव 2. संहार भैरव 3. असितांग भैरव 4. रुद्र भैरव 5. काल भैरव 6. क्रोध भैरव 7. ताम्रचूड़ भैरव 8. चंद्रचूड़ भैरव)

भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, कोटरा और रेवती आदि के सेनानायक भैरव, रक्षा और दंड (दोनों) के देव हैं।

गहरे काले रंग, विशाल प्रलंब, स्थूल शरीर, अंगारकाय त्रिनेत्र, काले डरावने चोगेनुमा वस्त्र, रूद्र कण्ठ माला, हस्तगत भयानक लौहदण्ड, डमरू, त्रिशूल, खडग, कपाल, तलवार, गले में नाग, ब्रह्मा पांचवां सिर, चंवर और काले कुत्ते की सवारी के साथ भैरव रूप की कल्पना होती है। भूत, प्रेत, पिशाच, पूतना, कोटरा और रेवती आदि की गणना भगवान शिव के प्रिय अनन्य गणों में की जाती है। शिव जी प्रलय के देवता भी हैं, जिनके संचालन के लिए विपत्ति, रोग एवं मृत्यु के समस्त दूत और देवता उनके रक्षक या गण (सैनिक) हैं और उन सभी रक्षकों या गणों (सैनिकों) के अधिपति या सेनानायक भैरव हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो विविध रोगों और आपत्तियों, विपत्तियों के अधिष्ठात्री देवता हैं। अर्थात भय, बीमारी, विपत्ति एवं विनाश के पार्श्व में शिव के कृपापात्र सेनापति की उपस्थिति संचालक के रूप में सर्वत्र ही दिखती है। ऐसा माना जाता है कि भैरव जी रक्षा और दंड दोनों के देवता हैं और वे भूखे व भयंकर मुद्रा में रहकर भगवान शिव के सर्वोच्च आदि और अनंत रूप का वास्तविकता में प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके पास भूत-प्रेत, रोग, शत्रु और दुश्मनों से रक्षा की विशेष शक्तियाँ हैं।

शास्त्रानुसार सद्गृहस्थ सौम्य रूप बटुक भैरव या बाल भैरव का पूजन बारम्बार कर सकते हैं।

शास्त्रानुसार गृहस्थ व्यक्ति ना तो अष्टभैरव की पूजा करते हैं, ना ही गृह में स्थापित करते हैं, किन्तु इसके विपरीत भैरवनाथ जी के सौम्य रूप बटुक भैरव या बाल भैरव का पूजन बारम्बार करते हैं। तंत्र साधक तंत्र के प्रमुख देवता रूप में अष्टभैरव की स्थापना और साधना दोनों ही करते हैं। तंत्र शास्त्र में भैरव को उग्र कापालिक सम्प्रदाय का देवता मानते हुए पूजा, उपासना और साधना की प्राधान्यता है। जिसमें तंत्र साधक का भैरव भाव को आत्मसात करना प्रमुख होता है। उपासना की दृष्टि से दयालु भैरवनाथ की जागृत प्रतिमा को मदिरा पान कराकर शीघ्र प्रसन्न किया जाता है और सात्विक भोग में उनको अत्याधिक प्रिय हलवा, खीर, गुलगुले, जलेबी इमरती इत्यादि भी अर्पित होते हैं। भैरव की पूजा उपासना और साधना में काली तिल, उड़द दाल के दही बड़े, पकोड़े, मिठाइयों आदि का भोग लगाकर के मंत्र, चालीसा और अन्य प्रार्थनाओं का उपयोग किया जाता है और उपासना के अन्त में भोग या प्रसाद काले कुत्ते और किसी गरीब को अवश्य खिलाया जाता हैI

भैरव कृपा से भय और भयभीत होना, सजीव जीवन में जीव को गर्भावस्था से ही मिलता है।  

सारांश में - सनातन संस्कृति की परम्परा में प्रत्येक पदार्थ तथा भाव के प्रतीक स्थूल और सूक्ष्म रूप में परिभाषित है, जिन्हें प्रतीकवादी उभयात्मक अवस्था में अनुभूत करते हैं, स्थूल भावनात्मक प्रतीक को प्राकृतिक कण कण में और सूक्ष्म भावनात्मक प्रतीक को देवी देवता रूप में अंगीकार करते हैं। भय और भयभीत होना भी सजीव जीवन का एक प्रमुख भाव है, जो गर्भावर्स्था से ही जीव को मिलता है। अत: भय और भयभीत होने के भाव प्रतीक ही एक देवता रुपी भैरव जी है, जो आत्मनिर्भरता और निर्भयता का वरदान हमारे छोटे से जीवन में संरक्षित करते है।

भैरव जी या कालाष्टमी के पूजन का शास्त्रोक्त विधि व विधान

शिव महापुराण के अनुसार भगवान शिव के क्रोध से कालाष्टमी तिथि को भैरव का अवतरण हुआ था। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि रविवार के दिन अथवा कालाष्टमी के दिन कालभैरव की विधि-विधान से पूजा या उपासना विशेष लाभकारी, फलदायी व प्रभावकारी होती है। कालाष्टमी के दिन भगवान शिव, माता पार्वती और काल भैरव की पूजा करनी चाहिए। भैरव की सावधानीपूर्वक और श्रद्धापूर्वक पूजा और उपासना से भक्तों को आत्मिक शक्ति, भौतिक सुरक्षा, संतोष, शक्ति, खुशहाली, सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है और उनकी कृपा से भक्तों के जीवन में आत्मिक और भौतिक उन्नति के साथ अत्यंत प्रभावशाली बाधाएं भी दूर रहती हैं। भैरव की पूजा उपासना और साधना से अभय रहने का वरदान अर्जित होता है।

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