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Pooja Path मूर्ती स्थापना


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संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 18-06-2024

प्राकृतिक सत्य के शुभ आभास को पिंडात्मक स्वरूप/रूप में आकृति मिलना मूरत (मूर्ति) है।

प्रकृतिक प्रदत्त सत्य को आकृति मिलना ही मूरत (मूर्ति) कहलाता है, जिसको किसी भी ठोस को पिंडात्मक स्वरूप या रूप देकर भौतिक रूप मे अनुभूत या स्पर्श किया जा सकता है। प्राकृतिक व दैवीय शक्तियों के सत्य पिंडात्मक स्वरूप या रूप को जाग्रत कर शुभ आभास देकर नियत स्थल पर स्थापित करना ही मूर्ति स्थापनम है। जहां प्राकृतिक व दैवीय शक्तियों को सचेत और सक्रिय रूप में अनुभूत कर आंतरिक मनः शान्ति व बल प्राप्ति होती है। संस्कृत में प्रतिष्ठा का अर्थ आराम, स्थिर, स्थापित करना, प्रतिष्ठित, सम्मानित करना, स्थापना या पवित्र किया हुआ, एक बर्तन एवं आवास का अभिषेक है, और प्राण का तात्पर्य जीवन शक्ति, श्वास, आत्मा या जैविक शक्ति से है। संक्षेप में किसी पदार्थ को जीवन्त स्वरूप देना ही प्राण है।

मूर्ति द्वारा जीवन संचार, देवत्व आध्यात्मिक और अलौकिक उपस्थिति को संग्रहीत करना ही प्राण प्रतिष्ठा है।

वाक्यांश प्राण प्रतिष्ठा का मूल अर्थ महत्वपूर्ण श्वास में ईश्वरीय सकारात्मक छवि की स्थापना या मंदिर में जीवन लाना। धार्मिक मान्यतानुसार मूर्ति में आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार मंत्रों जप के माध्यम से देवता को वाह्य परिदृश्य से केन्द्रीय स्थान तक लाकर भक्तों के लिए आशीर्वाद का स्रोत निर्मित्त होता है। सर्वप्रथम मानव आश्रय भाव प्राण प्रतिष्ठित मूरत (मूर्ति) को ही देवता मानकर उनके आवास में आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार का विस्तृत और पवित्र अनुष्ठान कर मंदिर में जीवन लाना अथवा मूर्ति स्थापना करना है। प्राण प्रतिष्ठा संस्कार या समारोह द्वारा मूरत (मूर्ति) को देवालयों में प्रतिष्ठित या देवता को निवास करने हेतु मंत्रोच्चारण आमंत्रण से मूर्ति जाग्रत कर देवालय में जीवन का संचार, देवत्व की आध्यात्मिक और अलौकिक उपस्थिति संग्रहीत होती है।

प्राण प्रतिष्ठित मूरत (मूर्ति) स्थल पर आत्मा में परमात्मा का साक्षात्कार होता है।

मानव ईश्वर की छवि को निराकार, अवर्णनीय सर्वव्यापी संपूर्ण के रूप में देखता और मानता है, इसी तथ्य के आधार पर ही ईश्वरीय छवि को प्रकृतिक एवं परालौकिक संपूर्णता की मान्यता प्रदान की प्रथा चली आ रही है। ईश्वर की छवि के रूप में ईश्वरीय दिव्य उपस्थिति आंतरिक विचारों में ब्रह्म उत्कृष्टता के पूजनीय दर्शन को विकसित बनाता है। इस प्रकार धार्मिक अनुष्ठानों में परमात्मा एवं आत्मा की संन्धि स्थली पर प्राण प्रतिष्ठित देव मूर्ति के सम्मुख नियमित भक्तगण की श्रद्धा और भक्ति को प्रकट कर पूजा-अर्चना और देव आशीर्वाद प्राप्ति का विधान है। विश्व के असंख्य प्राण प्रतिष्ठित देवालयो में जाकर, बैठकर ही थोड़े से क्षण में परमात्मा की अनुभूति स्वयं ही आत्मिक व मनः शान्ति का सुख देती है और मन को दुविधाओं से मुक्त कर तन एवं मन को शुद्ध करता है। अर्थात आत्मा का परमात्मा से चेतना प्राप्त किये जाने की स्थली में ध्यान के बल पर आत्मा में परमात्मा का साक्षात्कार होता है।

अस्थिरता को ही स्थिरता की आवश्यकता होती है देवी देवता भी वास स्थिरता को दर्शाते है

मानव की घुमक्कड़ी प्रवृत्ति का पड़ाव, आवास बनाकर रहना उसकी जड़ता या स्थिरता को दर्शाता है, किन्तु प्राचीनकाल से ही मनुष्य अपनी प्रवृत्ति अनुसार पर्वतो की कंदराओं में आश्रय व निवास करता था, जहाँ पौराणिक मतानुसार देवी देवता भी वास करते हैं। मनुष्य आज भी घुमक्कड़ी प्रवृत्ति का ही है, उसमें स्थिरता नही है। इसीलिये अस्थिरता को ही स्थिरता की आवश्यकता होती है और आगे भी यह गति संचालित रखने हेतु नए भवन व निवास बनाता रहेगा। मानवीय उन्नति में निवास रुकावट अनुभूत कराता है और निवास के प्रति आकर्षण, आगे भी यह गति संचालित रखने के लिए नए निवास, भवन बनाता रहता है।

ईश्वरीय चेतना या परमात्मा का केन्द्र पर क्षणिक या दीर्घ मन शान्ति और सुख मिलता है।

मनुष्य पहाड़ो से निकलकर गाँव, गाँव से शहर, शहर से नगर में बसने लगा और कुंद, जड़, धीमा, स्थिर होने के लिये क्षणिक रूप से ईश्वरीय चेतना या परमात्मा का केन्द्र बनाकर अपनी अस्थिरता को स्थिरता में परिवर्तित करने का प्रयास ही दैहिक सकारात्मक ऊर्जा स्फूर्ति से भरता हैं और तनावग्रस्त जीवन में नई प्रेरणा के साथ नई ऊर्जा की संक्रान्ति होती है। निवास के प्रति आकर्षण, सुख का भ्रम ही सिद्ध होता है, जिसमें सदैव परिवर्तन का भाव अस्थिरता उत्पन्न करता है, जिसके विपरीत निदान स्वरूप प्राण प्रतिष्ठित  मूरत (मूर्ति) के पास जड़ता का गुण या भाव होने से क्षणिक मन शान्ति और सुख मिलती है।

अशान्त और अहंकारी मन से ईश्वरीय सत्ता कोषों दूर रहता है, किन्तु शान्त, निश्छल, निर्विकारी और निश्पापी मन को ईश्वर स्वयं महसूस कर लेता है!

सर्वविदित है कि ईश्वर मन में ही है, जब मन शान्त, निश्छल, र्निविकारी और निश्पापी होगा, तो ईश्वर स्वयं महसूस ही होगें, किन्तु अशान्त और अहंकारी मन से ईश्वरीय सत्ता कोषों दूर रहती है। मूरत (मूर्ति) का प्राण प्रतिष्ठा स्थल जहाँ मूरत, धूप, दीप, घण्ट, शंख, जाप, तप, पूजन हवन अर्चन इत्यादि का निरतंर प्रयोग कर ध्वनि और वातारणीय शुद्धता से मन का विकार दूर हो अर्थात मन में चल रहे हजारो विचारों को विराम लगाकर मैं यानि अंहकार भाव भी नष्ट हो जाय एवं जहां नास्तिक मन मस्तिष्क शान्त होता है। सम्भवतः इन्ही कारणों से प्राण प्रतिष्ठित मूरत (मूर्ति) के पास जाने से पूर्व जूते चप्पल, अहंकार, विकार को त्यागने का भी प्राविधान है। 

मूर्ति स्थापनम की शास्त्रोक्त विधि व विधान

मूर्ति स्थापनम में लौकिक रीतियों से कमर्काण्ड के जानकार व्यक्ति की अध्यक्षता में परंपरागत रूप से सप्त धान्य, दुग्ध, घृत, दही, पूजन इत्यादि सामाग्री का प्रयोग कर मंदिर के गर्भगृह के अन्दर मन्त्र जपो के माध्यम से आमंत्रण, स्वागत, स्नान, विश्राम, श्रद्धेय आतिथ्य निवास, चक्षु अनमिलन, वस्त्र, न्यास, भजनों सहित मूर्ति को वाह्य परिदृश्य से केन्द्रीय स्थान तक लाकर अतिथि के रूप में देवो को स्थापित करते हुए देव स्नान, अंग न्याश, वस्त्र, श्रंगार, पुष्पांजलि इत्यादि के बाद भजन, कीर्तन के साथ स्थापना अनुष्ठान प्रक्रिया पूर्ण होती हैं। इस अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण धार्मिक उत्सव अनुष्ठान को चिह्नित करने के लिए पारंपरिक गायन और नृत्य, देवदर्शन रूप में विस्तृत जुलूस भी सम्मिलित किए जाते हैं!

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