संकलन : जया मिश्रा Advocate तिथि : 15-09-2023
पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व कृतज्ञता प्रकट या अभिव्यक्ति करने के महापर्व (भाद्रपद मास पूर्णिमा से आश्विन मास अमावस्या तक) को 'महालय या श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष की संज्ञा प्राप्त है। वैदिक काल से मृत्यु-उपरांत जन्मदात्री मातृ-पितृ की सेवा एवं स्मृत रखने हेतु श्राद्ध पक्ष (सोलह दिनों) का विशेष विधान प्रचलन में है। अर्थात शास्त्रविधि से श्रद्धापूर्वक शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप तृप्ति के लिए आत्मा के प्रेतत्व निवृत्ति के निमित्त जो अर्पित या समर्पित किया जाए, वो ही श्राद्ध है। महालय या पितृपक्ष में पितरों की तृप्ति हेतु श्रद्धापूर्वक तर्पण, पिंडदान और गंगा स्नान का विशेष महत्व है।
श्राद्धकर्म के मूलत: चार भाग हैं - तर्पण, पिंडदान, भोजन और वस्त्रदान या दक्षिणा दान। शास्त्रोक्त विधि अनुसार श्राद्ध कर्म पूर्ण करने से सुख, समृद्धि, सौभाग्य, आरोग्य तथा आनन्द की प्राप्ति होती है। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मृत्यु-उपरांत जन्मदात्री मातृ-पितृ का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से निर्मित मातृ-पितृ दोष के परिणामतः कुटुम्ब में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारियाँ, धन संकट, सुख सुविधाओं के बाद भी मन असन्तुष्ट रहना आदि बना रहता है।
मान्यता अनुसार जीवात्मा (मनुष्य) पृथ्वी पर पूर्वजों, माता-पिता, बुजुर्गों के कर्मों और स्वयं के पूर्वजन्मों के संचित कर्मों के अनुसार जन्म लेती है, जिससे जीवात्मा पर पितृऋण चढ़ता है। इसीलिए बुजुर्गों, माता-पिता या परिजनों का यह ऋण चुकाने के लिए श्राद्ध कर्म का विधान है। सभी ऋण में पितृ ऋण सर्वोपरि है, क्योकि पितृ आत्मबल के कारक माने जाते है, अर्थात आत्मबल पर यदि ऋण हो, तो जैविक विकास बाधित रहता है, जिसकी निवृत्ति परमावश्यक हो जाता है। ज्योतिष मान्यताओं के आधार पर जब सूर्य देव कन्या राशि में गोचर करते हैं, तब पितर पुत्र-पौत्रों के यहाँ विचरण करते हैं। पुराणों के अनुसार पितृ-आत्माएँ परालोक से प्रियजनों के लिए महालय पक्ष में पृथ्वी लोक आगमन करती हैं और पृथ्वी पर सूक्ष्म आत्मा भौतिक शरीर के रूप में प्रिय के अतिरेक की अवस्था (प्रेत रूप) धारण करती है, जिसके लिए मृत्यु-उपरांत दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत आत्मा को प्रेत संज्ञा दी जाती है। अर्थात ब्रह्माण्ड की ऊर्जा के साथ पितृ-प्राण व्याप्त रहता है। प्रेतत्व अवस्था में आत्मा को मोह, माया, भूख और प्यास का अतिरेक होता है।
प्रेतत्व अवस्था में पितृगण मोक्ष / तृप्ति की कामना / सुद्देश्य से परिजनों के समीप विविध रूपों में मंडराते हैं और परिजनों द्वारा जो भी अर्पित तर्पण, पिंडदान और नाना पकवान को सेवाभाव किया जाता है, उसमें सम्मिलित होकर सपिण्डन के बाद या उसे प्राप्त कर वह प्रेत, पित्तर पितृप्राण स्वयं आप्यापित होती है अथवा पितृ-लोक को पितृपक्ष अमावस्या में प्रस्थान करते हैं। अर्थात जब भी पितृ-आत्मा का पुत्र या परिजन यव (जौ) तथा तांदुल (चावल) का पिण्ड अंश देता है, उसमें से आपना अंश प्राप्त कर पितर अम्भप्राण ऋण मुक्त होकर उर्ध्वमुख चक्रगति में ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। इसलिए शास्त्रों में जिन्होंने जीवन धारण करने तथा उसे विकासित करने में सहयोग दिया उन पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। पितृपक्ष में मन कर्म एवं वाणी से संयमित होकर पितरों को स्मरण करके जल चढाने से जीवन सुखमय बनता हैं।
तृप्त पितृगण के संतुष्ट होने पर पूर्वज को अनिष्ट घटनाओं से बचाते हुए सुख-समृद्धि, सफलता, आरोग्य और संतान रूपी फल का आशीर्वाद मिलता हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार पितृ पक्ष के दौरान सद्गृहस्थ पितरों को श्रद्धापूर्वक पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन आदि कराने के निर्देश हैं, जिनके फलस्वरूप मृत्यु के उपरांत भी सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। उच्च शुद्ध कर्मों के कारण आत्मिक तेज और प्रकाश से आलोकित जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं। सनातन संस्कृति की वैदिक परंपरा के अनुसार मातृ-पितृ सेवा को देव सेवा से भी श्रेष्ठ सेवा माना जाता है, जिसके सापेक्ष सभी पूजा-पाठ का फल न्यूनतम होता है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार जीवन चक्र के मध्य मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक उल्लेख सहित मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण की प्रमुखता मानी गई है - 1.पितृ ऋण, २.देव ऋण तथा ३.ऋषि ऋण। मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य श्राद्ध बतलाए गए है और यम स्मृति में पांच प्रकार के नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण श्राद्धों का वर्णन मिलता है, किन्तु शास्त्रीय ग्रंथों में कुल 12 प्रकार के श्राद्ध बताए गए हैं :- 1.नित्य श्राद्ध, २.नैमित्तिक श्राद्ध, ३.काम्य श्राद्ध, 4.वृद्धि श्राद्ध, 5.सपिण्डन श्राद्ध, 6.पार्वण श्राद्ध, 7.गोष्ठण श्राद्ध, ८.शुद्धयर्थ श्राद्ध, 9.कर्मांग श्राद्ध, 10.दैविक श्राद्ध, 11.औपचारिक श्राद्ध, 12.सांवत्सरिक श्राद्ध हैं, इन सभी श्राद्धों में सांवत्सरिक श्राद्ध को श्रेष्ठ कहा गया है। धर्म सिन्धु के अनुसार पितरों की संतुष्टि हेतु विभिन्न पित्र-कर्म का विधान हेतु वर्ष की सभी अमावास्याएं (12) पुणादितिथियां (4), मन्वादि तिथियां (14) संक्रान्तियां (12) वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12) पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5) अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु (5) कुल मिलाकर श्राद्ध के यह ९६ दिवस का अवसर मिलते हैं।
दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। पितृ को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ तर्पण प्रदान करने के दिन से जन्म तक के तीन पीढ़ियों (मातृ व पितृ पक्ष सहित) के पापों का नाश होता है और सकल मनोरथ सिद्धि, घर-परिवार, व्यवसाय एवं आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। अकाल मृत्यु से उत्पन्न पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएँ और प्रतिवर्ष पितृपक्ष में पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण इत्यादि के साथ श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा अवश्य करवायें।
तीन पीढि़यों से विख्यात योग्य, शालीन, श्रेष्ठ गुणों से युक्त, शास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मण के अभाव में भानजे, दौहित्र, दामाद, नाना, मामा, साले आदि को आमंत्रित किया जा सकता है। श्राद्धभोक्ता को प्रथम निमंत्रण को त्यागकर किसी अन्य जगह नहीं जाना चाहिए और आमंत्रित ब्राह्मण की जगह अन्य किसी को नहीं खिलाना चाहिए। श्राद्धकर्म में श्रद्धा, शुद्धता, स्वच्छता एवं पवित्रता के अभाव में श्राद्ध निष्फल हो जाता है। दोपहर के समय सुयोग्य ब्राह्मण की सहायता से नदी के किनारे पर अथवा निवास स्थल पर श्राद्धकर्म (पिंड दान, तर्पण) पितृ-आत्माओं को भोज्य पदार्थ निवेदित करने के साथ ही पंचबलि (गौ, कुत्ता, कौवा,देव, पिपीलिका) के लिए संकल्प कर कौए, गाय और कुत्ते को भी आदर भाव के साथ आहार देने के उपरान्त अधिक से अधिक तीन आमंत्रित ब्राह्मण के पैर धोकर तर्जनी से चन्दन-तिलक लगा भोज कराकर अन्न, वस्त्र, ताम्बूल (पान का बीड़ा) एवं दान-दक्षिणा आदि देकर उन्हें संतुष्ट कर विदा उपरान्त परिवार सहित स्वयं भी भोजन करने की प्रथा है। यदि उक्त विधि को करना किसी के लिए संभव न हो, तब वह जल को पात्र में काले तिल डालकर दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके तर्पण कर सकता है।
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