संकलन : अनुजा शुक्ला तिथि : 05-02-2022
संगम के तट पर कल्पवास का अत्यधिक महत्व सनातन शास्त्रो बताया गया है। लगभग सभी साधु-संन्यासी व श्रद्धालु एक माह का कल्पवास अवश्य करते हैं। आज के आधुनिक दौर में कुछ सनातन धर्मियों को कल्पवास के विषय में संपूर्ण धार्मिक व आध्यात्मिक ज्ञान न के बराबर है। कल्पवास का अर्थ, कल्पवास का प्रारंभ जैसे विषय पर सामान्य जन तक अल्प ज्ञान बहुत सीमित है और कल्पवास के सन्दर्भ में हुए वैज्ञानिक शोधो के प्राप्त परिणाम भी बहुत कम लोगों को पता है।
शाब्दिक अर्थ
शाब्दिक अर्थ है स्वयं के साथ ज्ञान प्राप्ति के लिए निवास करना, जिसमे एकांत की आवश्यकता नहीं होती है, पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन के साथ परिवार भी साथ रह सकता है । सनातनी शस्त्रानुसार पौष माह के 11वें दिन से माघ माह के 12वें दिन तक तक संगम के तट पर जाकर वेदाध्ययन, व्रत, संत्संग और ध्यान करते हुए कल्पवास पूर्ण करते हैं। कुछ सनातनी माघ पूर्णिमा तक भी कल्पवास करते हैं। कल्पवास के मध्य मुख्य कार्य तप, होम और दान अनिवार्य होता है।
कल्पवास आरभ कैसे हुआ
विद्वानों व प्रचलित पौराणिक कथानुसार प्राचीन काल में प्रयागराज घना अरण्य हुआ करता था और यहाँ भारद्वाज ऋषि का वेदाश्रम और तपोभूमि हुआ करता था। कालान्तर मे इस भूमि पर ब्रह्मा जी ने यज्ञ कर पावन किया था। भारद्वाज ऋषि के काल से ही ऋषियों मुनियो और सभी गृहस्थों के लिए वर्ष भर मे एक बार ज्ञान और आध्यात्मिक विकास के प्रयोजन से कल्पवास की परम्परा का श्रीगणेश हुआ था, जिसका निर्वहन आज के काल जानकार और ज्ञानीयो द्वारा होता चला आ है। ऋषियों की इस तपोभूमि पर कुंभ मेला और माघ माह में सामान्यतः सभी ऋषि मुनि, साधको और सनातनी धर्मियों द्वारा एक परंपरा पूर्ण निष्ठा से ज्ञान और आध्यात्मिक विकास के प्रयोजन से सभी की एकजुटता होती अवश्य है। यदि दूसरे दृष्टिकोण से समझा जाए, तो ऋषि और मुनियों का संपूर्ण वर्ष ही कल्पवास चलता है, लेकिन गृहस्थों के लिए कल्पवास का विधान कुछ विशेष हो जाता है क्योकि कल्पवास की अवधि में ही गृहस्थों को अल्पकाल के लिए शिक्षा और दीक्षा गुरुजनो द्वारा दी जाती थी।
कल्पवास के धार्मिक नियम और मान्यताएं
जो भी सनातन धर्मी गृहस्थ कल्पवास का संकल्प लेकर आता है वह स्वयं अथवा गुरुजनों, ऋषियों की अथाई निर्मित पर्ण कुटी में निवास करता है और कल्पवासी व्यक्ति पूरे दिवस मे मात्र एक बार ही सात्विक भोजन ग्रहण कर सकता है। कल्पवास की अवधि में मानसिक रूप से धैर्य, अहिंसा और भक्ति भाव से पूर्ण रहने का हर संभव प्रयास करता है। पद्म पुराण में उल्लेख है कि संगम तट पर वास करने वाले को शान्त मनः स्थिति के साथ सदाचारी व्यवहार के साथ जितेन्द्रिय होना चाहिए। कल्पवासियों की दिनचर्या ब्रह्म मुहूर्त में गंगा-स्नान के साथ ही प्रारंभ होती है और रात्रि काल तक प्रवचन, भजन-कीर्तन जैसे ज्ञान और आध्यात्मिक कार्यों को संग्रहीत करने के साथ ही समाप्त होती है। मत्स्य पुराण के अनुसार जो भी प्राणी कल्पवास की प्रतिज्ञा लेता है उसकी मोक्ष की अभिलाषा अवश्य पूर्ण हो जाती है और मोक्ष प्राप्त कर अगले जन्म में देव तुल्य अथवा राज योग से पूर्ण जन्म को पता है। कल्पवास से सात्विक जीवन जी लेने से वर्तमान जीवन मे ही मोक्ष की संभावना प्रबल हो जाती है।
कल्पवास में गंगा स्नान का महत्व
पद्म व ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार माघ मास में जगतपालक भगवान विष्णु गंगाजल में स्वयं निवास करते हैं और मात्र गंगाजल के स्पर्श से ही उनका संपूर्ण आशीष मिल जाता है। मान्यता है कि विष्णु जी जितना अधिक प्रसन्न माघ स्नान करने से होते हैं, तुलनात्मक अन्य व्रत, उपवास, दान से प्रसन्न नहीं होते हैं। यही आधार है कि अनेक प्राचीन सनातनी ग्रंथों में वैकुण्ठ को पाने का सरल मार्ग माघ पूर्णिमा के पुण्य स्नान को ही बताया गया है। सनातनी महाकाव्य महाभारत में भी उल्लेख हुआ है कि माघ मास में अनेक तीर्थों का समागम होता है।
कल्पवास से लाभ
कल्पवास की पूर्ण अवधि तक ब्रह्म मुहूर्त में उठना, पूजा-पाठ, फलाहार, एक बार सात्विक भोजन करने से शारीरिक रूप से आंतरिक एकत्र मलिनता निकल जाती है और नवजीवन और नई चेतना का भी विकास होता हैं। प्रत्येक दिवस दो बार स्नान करने से वाह्य शुद्धि भी हो जाती है। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार भी कल्पवास से न केवल प्राणी का पाचन तंत्र अनुशासित होता है, अपितु स्वयं को स्वस्थ रखने का सबसे सुंदर मार्ग भी सिद्ध होता है।
चिकित्सा विज्ञान अनुसार कल्पवास
प्राकृतिक चिकित्सा में कल्पवास व्रत और उपवास का महत्व का वर्णन मिलता और आयुर्वेद मे भी पंचकर्मों के विधि में कल्पवास भी शामिल है। कल्पवास के नियमकों से शारीरिक ऊर्जा का संचार बढ़ जाता है। एलोपैथ चिकित्सक की भी सलाह देते हैं कि नियमित-संयम संतुलित व सीमित आहार-व्यवहार, व्रत-उपवास आदि से उदर रोग व्याधि के साथ साथ मोटापा जैसी विकराल समस्या को नही भगाते हुए शारीरिक ऊर्जा व फुर्तीला को प्राप्त होती है।
वैज्ञानिक प्रमाण
विगत वर्षो से हुए भारत और ब्रिटेन के नौ विश्वविद्यालयों के मनोचिकित्सकों द्वारा किए गए वैज्ञानिक अध्ययनो से कुछ तथ्य सामने आए हैं, जिनमें पांच भारतीय विश्वविद्यालयों एवं चार ब्रिटिश विश्वविद्यालय के मनोचिकित्सक शामिल थे। धार्मिक समागमों में प्रतिभागिता से समान-परिचय प्रवृत्ति की भावना प्रतिस्पर्धा के बदले सहयोग की भावना उत्पन्न करा देती है, जिनसे सामाजिक समानता भाव जागृत हो जाने से सुख समृद्धि की अनुभूति बढ़ जाती है। अध्ययन में सेंट एंड्रयू विश्वविद्यालय के स्टीफन रिएचर ने भी बताया है कि बार-बार दोहराई जाने वाली एक माह तक कठोर दिनचर्या के कारण कल्पवासियों के व्यवहार में अस्थायी रूप में सकारात्मक बदलाव आने से उनका व्यवहार प्रतिस्पर्धात्मक के अपेक्षा सहयोगात्मक होता है। इन सभी व्यवहार रेलवे स्टेशन पर एकत्रित समूह से ठीक विपरीत होता है, जहां सभी अपनी जगह सुरक्षित करने की मंशा में होते हैं, जिसके लिए वे किसी को भी धक्का देने को तैयार रहते हैं। कल्पवास जैसे समागमों के समूहो में अनूठे व्यवहार मिलता है कि वे सभी अन्य प्राणियों के प्रति ये ही विचार करते है कि पूरा समूह ही एक हैं। किसी दूसरे प्राणी को अपने जैसा मान लेने से ही अन्य प्राणी के प्रति प्रकृतिक व्यवहार परिवर्तित हो जाता है, भले ही वे पूरी तरह से एक दूसरे से अपरिचित हो। रिएचर ने इस बात पर स्पष्टीकरण भी दिया है कि कल्पवास जैसे समागमों के समूहो में साफ-सफाई की स्थिति और ध्वनि प्रदूषण की बहुतायत हो जाने के उपरांत भी इस उपवासियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हालांकि लॉसेंट जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं ने कई आलेखों में इस तरह के समागम समूहो को स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल बतलाया है।
निस्संदेह ही समूह के एकत्रित होने से स्वास्थ्य को वास्तविक जोखिम हो सकता है, जिनकी अनदेखी करना भी गलत होगा, लेकिन यह कहानी का मात्र एक पक्ष ही है। निश्चित ही अध्ययन का सर्वाधिक निष्कर्ष यही है कि उपवासियों के मेले में भागीदारी करने से प्राणियों का शारीरिक, मानसिक एवं स्वास्थ्य उन्नत ही होता है। उपवासियों के मेले मानव के स्वास्थ्य के विषय में बहुत कुछ सीख ही दे जाते हैं।
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