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Pooja Path महालक्ष्मी स्वरूपा कृष्ण वल्लभा राधा जी की शास्त्रोक्त पूजा विधि


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संकलन : जाह्नवी पाण्डेय तिथि : 21-09-2023

पौराणिक प्रसंगों में कृष्ण वल्लभा (राधा) महालक्ष्मी का चित्रण व महिमा।

पौराणिक प्रसंगों के अनुसार धन-वैभव के अभिमानी इन्द्र की ऋषि दुर्वासा से भेंट हुई, जिसमें दुर्वासा जी ने उन्हें पारिजात पुष्पों की माला भेंट दी, लेकिन अभिमानी इन्द्र ने तिरस्कार स्वरुप उस माले को ऐरावत (हाथी) के गले में डाल दिया, त्वरित ही ऐरावत ने उस माले को सूंड से उठाकर क्षत-विक्षत कर दिया। अपने प्रेम व आदर प्रतीक भेंट की यह दुर्दशा देखकर ऋषि दुर्वासा ने अत्यंत क्रोधित होकर इन्द्र को श्रापित कर दिया कि जिस धन, वैभव, समृद्धि के अभिमान में तुमने मेरा भेंट स्वरुप प्रेम व आदर को क्षत-विक्षत किया है, ठीक वैसे ही तुम्हारा यह धन, वैभव, समृद्धि भी क्षत-विक्षत हो जायेगा।

इसके उपरान्त स्वर्गलोक, मृत्युलोक और इन्द्रलोक को लक्ष्मी जी त्याग कर वैकुण्ठ में विलीन हो गयीं। जिसके प्रभाव से इन्द्रदेव सहित मृत्युलोक और इन्द्रलोक में सभी श्रीहीन हो गए। सभी में शोक व पीड़ा उत्तरोत्तर बढ़ने लगी और चहूँओर हाहाकार व्याप्त होने से देवगण बलहीन की स्थिति में आ गए और सभी लोकों पर दैत्यों (असुरों) का संग्राम स्थापित हो गया और तब सभी लोकों के देवो के साथ ब्रह्माजी जी भगवान विष्णु जी की शरण में गए।

जहाँ से देवासुर संग्राम के समाप्ति का मार्ग क्षीरसागर के मन्थन के रूप में निकला, जिसमें देवताओं व दैत्यों ने मिलकर क्षीरसागर का मन्थन किया और इन्द्र-सम्पत्ति स्वरूपा लक्ष्मी अपनी सभी कला के साथ समुद्र कन्या के रूप में प्रगट हुई और देवताओं के स्तवन करने पर लक्ष्मी जी ने उनके भवनों पर मात्र दृष्टि डाल दी, जिससे ऋषि दुर्वासा के श्राप से मुक्ति हुई और असुरों से देवताओं को राज्य पुनः प्राप्त हो गया।

पुनः प्रगट होने के बाद भगवती प्रसन्नना (लक्ष्मी जी) ने विष्णु को वरमाला देकर उनका अर्धासन प्राप्त कर लिया। इस प्रसंग के बाद से ही सनातनी मान्यता यह है कि जहाँ भी भगवान विष्णु जी का वास रहेगा, वहां लक्ष्मी जी सेविका या अर्धांगिनी रूप में निवासित होती है, बस विष्णु के अवतारों के अनुसार ही लक्ष्मी का भी स्वरुप परिवर्तित हो जाता है।

कृष्ण की शाश्वत शक्ति एवम् कृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी जी का वर्णन।

सम्भवतः इन्ही तथ्यों पर आधारित सनातन संस्कृति के शास्त्रानुसार वृन्दावनेश्वरी श्री राधाजी का प्राकट्य दिवस श्री राधाष्टमी को कृष्ण वल्लभा (राधा) कृष्ण की शाश्वत शक्ति एवम कृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी के रूप में लक्ष्मी जी का वर्णन मिलता हैं, जिनकी कृपा मात्र से ही सफलता, प्रसिद्धि और सम्मान जीवन में आता हैं। मनुष्य ही नही देवताओं को भी लक्ष्मीजी की प्रसन्नता और कृपा दृष्टि की आवश्यकता होती है। लक्ष्मी के रुष्ट होने पर देवता भी श्रीहीन, निस्तेज व भयग्रस्त हो जाते हैं।

गणेश चतुर्थी के 4 दिवस बाद अर्थात राधा अष्टमी से लगातार 16  दिवसों तक श्री राधा रानी को महालक्ष्मी रूपा मानते हुए व्रत का आरम्भ होता है, इसमें लक्ष्मी स्वरूपा राधा की पूजा करने से मन के नकारात्मक विचार दूर होते हैं और व्रती को आध्यात्मिक आनंद की प्राप्ति होती है। विवाह इत्यादि मंगल कार्यो और घर में बच्चे के जन्म के समय विशेष तौर पर इनका पूजन महत्वपूर्ण माना जाता है। 

अतएव कमलवासिनी, धवलवस्त्र धारिणी, पुष्पहार व गन्धानुलेप शोभिणी, विष्णुप्रिया, लावण्यमयी तथा त्रिलोकिनी, ऐश्वर्यदायिनी भगवती प्रसन्नना (लक्ष्मी जी) सदैव से ही सभी चल-अचल, दृश्य-अदृश्य सम्पत्तियों, निधियों-सिद्धियों की अधिष्ठात्री देवी हैं। राधा रुपी चंचला लक्ष्मी जी जहाँ भी निवास करती हैं वहां जीवन में उमंग, जोश और उत्साह समाप्त नहीं होता है। 

राधा स्वरूपा विष्णुप्रिया महालक्ष्मी के शास्त्रोक्त पूजन की संक्षिप्त विधि :-

व्रती, सूर्योदय अर्थात उषा काल के समय शरीर पर दूर्वा को घिसकर स्नान आदि कर्म पूर्ण कर मन मे संकल्प के साथ सोलह दिवस तक निश्चय करता है कि वह माता लक्ष्मी के हर नियम का पालन करते हुए यह व्रत पूरे विधि-विधान से पूरा करेगा। संकल्प के साथ प्रार्थना भी की जाती है कि माता लक्ष्मी जी कृपा करे, कि यह व्रत बिना किसी विघ्न के पूर्ण हो जाए और संकल्प के प्रथम दिवस ही एक सफेद डोरे मे 16 गाँठ लगाकर उसे हल्दी से पीला कर व्रती, घर के हर सदस्य के हाथ की कलाई पर बांधता है और पूजन के बाद इसे लक्ष्मी जी के चरणों मे चढ़ाया जाता है।

व्रत पूजन के मुहूर्त पर पाटा या चौकी पर रेशमी कपड़ा बिछाकर पानी से भरे कलश पर अखंड ज्योति प्रज्वलित कर स्थापित करते हुए लाल रंग से सजी लक्ष्मी माता की तस्वीर और गणेश जी की मूर्ति के साथ मिट्टी से बने हाथी स्थापित कर लक्ष्मी जी की पूजा प्रातः व सन्ध्या मे मिठाई का भोग लगाकर किया जाता है। व्रत समाप्ति के उपरान्त लक्ष्मी जी से व्रत के फल की प्राप्ति प्रार्थना कर विप्र को भोजन कराकर दान-दक्षिणा दी जाती है और विदाई के समय दाल चावल सेवई की खीर का भोग लगा विधिवत विसर्जन किया जाता है।

सोलह दिवस के इस व्रत में प्रत्येक सन्ध्या चंद्रमा को अर्घ्य देना आवश्यक माना जाता है। इन सोलह दिवसों में अन्न का पान (भक्षण) नहीं होता, लेकिन यदि कोई भक्त सोलह दिवस नियमों को पूर्ण नहीं कर सकता, तो वह सामर्थ्य के अनुसार कम दिवस का व्रत भी कर सकता है। यदि कोई पुरुष व्रत करता है तो उसे धन, सपंदा,नौकरी, व्यापार आदि सभी मनोरथों में सफलता ही मिलती है।

!! इति राधाष्टम्याय नमः !!

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