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Pitra Paksha शास्त्रोक्त पूजन विधि (एक दान तिल, बत्तीस सेर स्वर्ण तिलों के बराबर होता है, जो तीन पीढ़ियों के पितृ को ब्रह्मलोक दिला सकता है)


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संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 20-09-2023

श्राद्ध, तर्पण और तिलांजली, तीन पीढ़ियों के बकाये अंश को समाप्त करने की क्षमता रखता है।

पुराणों के अनुसार यमराज जी श्राद्ध पक्ष में सभी जीवात्माओं को १६ दिवस के लिए मुक्त कर देते हैं, जिससे वे सभी अपने अपने प्रिय परिजनों से अपना बकाया अंश प्राप्त कर ले, इसीलिए इस अवधि में श्राद्धकर्ता द्वारा दिया गया एक दान तिल का बत्तीस सेर स्वर्ण तिलों के बराबर माना जाता है और तीन पीढ़ियों के बकाये अंश को समाप्त करने की क्षमता रखता है।  

इसीलिए प्रिय स्वजनी, देह त्यागने के उपरान्त मृतात्मा रूप में किसी भी रूप में अथवा किसी भी लोक में हों, उनकी तृप्ति और उन्नति के लिए श्रद्धा के साथ संकल्प, श्राद्ध, तर्पण और तिलांजली किया जाना नितान्त आवश्यक होता है। मान्यता है कि श्रावण पूर्णिमा से ही पितृजन मृत्यु लोक आकर नवांकुरित कुशा की नोकों पर विराजमान होते हैं और पितृ पक्ष में अपना अंश पाने की चाह में सभी स्वजनियों के आस पास रहकर ब्रह्मलोक को प्रस्थान कर जाते हैं।

परिवार में पुरुष के आभाव में स्त्रियों को भी इस परम्परा को निभाने का शास्त्रोक्त अधिकार हैं।

श्राद्ध पक्ष या महालय या पितृ पक्ष की महिमा का शास्त्रोक्त वर्णन विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में हुआ है, जिसका स्पष्ट अर्थ है - अपने देवों, परिवार, वंश परंपरा, संस्कृति और इष्ट के प्रति श्रद्धा रखना है। जिसे स्त्री या पुरुष, कोई भी कर सकता है, किन्तु परिवार का उत्तराधिकारी या ज्येष्ठ पुत्र के अतिरिक्त घर में पुरुष के आभाव में स्त्रियां भी इस परम्परा को निभाने का शास्त्रोक्त अधिकार दिया गया हैं।

धर्मसिन्धु संहिता, मनुस्मृति और गरुड़पुराण आदि ग्रन्थ भी तर्कसंगत तथ्यों के साथ श्रा़द्ध करने की परंपरा जीवित रखने और जीवन चक्र में पितरों का स्थान स्थापित रखने हेतु महिलाओं को अन्तिम संस्कार में भी महिला अपने परिवार/पितर को मुखाग्नि देने और पिण्डदान आदि करने का प्राविधान किया गया होगा, जो आज मूर्त रूप में भी दिखता है। शास्त्रोक्त पिंडदान, तिलांजलि व श्राद्धकर्म के अधिकार हेतु पुराण और स्मृति ग्रंथों के श्लोक अनुसार व्यवस्था में वर्णित है कि :-

पुत्राभावे वधु कूर्यात, भार्याभावे च सोदनः। शिष्यो वा ब्राह्मणः सपिण्डो वा समाचरेत॥
ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृः पुत्रश्चः पौत्रके। श्राध्यामात्रदिकम कार्य पुत्रहीनेत खगः॥

अर्थात् "ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहू, पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है। इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एक मात्र पुत्री भी शामिल है। अगर पत्नी भी जीवित न हो तो सगा भाई अथवा भतीजा, भांजा, नाती, पोता आदि कोई भी यह कर सकता है। इन सबके अभाव में शिष्य, मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुल पुरोहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है। इस प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्ध व तर्पण और तिलांजली देकर मोक्ष कामना कर सकती है।

इस प्रकार पितरों के श्राद्ध व तर्पण और तिलांजली हेतु परिवार में या ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र अथवा पुत्र के ही न होने पर धेवता (नाती), भतीजा, भांजा या शिष्य ही पात्र होते हैं। संतानहीन अथवा पुत्र संतान के आभाव में पितरों के भाई, भतीजे, भांजे या चाचा-ताऊ के परिवार के पुरुष सदस्य पितृ पक्ष में श्रद्धापूर्वक व्रत रखकर पिंडदान, अन्नदान और वस्त्रदान करके ब्राह्मणों से विधिपूर्वक श्राद्ध कराके पीड़ित आत्मा के मोक्ष की कामना कर सकते हैं।

श्राद्ध व तर्पण और तिलांजली देकर मोक्ष कामना के सम्बन्ध में निम्न महत्वपूर्ण तथ्य :-

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