संकलन : जाह्नवी पाण्डेय तिथि : 19-09-2023
सनातन संस्कृति में मातृ-पितृ की सेवा को देव-सेवा से भी श्रेष्ठ सेवा माना जाता है, जिसमें सभी पूजा-पाठ का फल समाहित होता है। पितृपक्ष पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने, उनका स्मरण करने और उनके प्रति श्रद्धा अभिव्यक्ति करने का महापर्व है। जन्मदात्री पितरो को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए सम्भवतः उनके श्राद्धकर्म का विशेष विधान बताया गया है। श्रद्धया इदं श्राद्धम् (जो श्रद्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) अर्थात आत्मा के प्रेतत्व निवृत्ति के निमित्त श्रद्धापूर्वक तृप्ति के लिए, जो अर्पित या समर्पित किया जाए, उसे ही श्राद्ध कहा गया है।
पितरों को समर्पित पितृपक्ष को भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को श्राद्धपक्ष या 'महालय' पक्ष भी कहते हैं, जिसमें तर्पण, पिंडदान और गंगा स्नान का विशेष महत्व है। इस पक्ष में पितृ-आत्मा का पुत्र या उसका कोई परिजन जो यव (जौ) तथा तांदुल (चावल) का पिण्ड देता है, उस अंश से अपना अंश प्राप्त कर वह अम्भप्राण का ऋण मुक्त हो जाती है और वह चक्र उर्ध्वमुख होकर अपना-अपना भाग लेकर पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं। ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा इस पक्ष की उर्जा के साथ पितृ-प्राण रूप में पृथ्वी पर व्याप्त रहती है।
पुराणों के अनुसार भौतिक शरीर छोड़ते ही आत्मा, सूक्ष्म प्रेतत्व धारण करती है। जब आत्मा भौतिक देह त्यागकर सूक्ष्म अवस्था को धारण करती है, तब उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है, जिसमें प्रिय के अतिरेक की अवस्था ही "प्रेतत्व"है। सपिण्डन के बाद वह प्रेतत्व, पित्तरों में सम्मिलित होती है। मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत-आत्मा को प्रेत संज्ञा दी जाती है। पितृ पक्ष में जो तर्पण किया जाता है, उससे ही वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है।
अर्थात् पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करने से स्वयं के जन्म से तर्पण के दिन तक के सभी पापों का नाश होते है। इसलिए शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं।
'महालय' पक्ष में पितृ-आत्माएँ परालोक से प्रियजनों के लिए पृथ्वी लोक आगमन करती हैं, जिनको तृप्ति प्रदान करने के सुद्देश्य से परिजन सेवाभाव के साथ तर्पण, पिंडदान और नाना पकवान अर्पित करते हैं, जिसके मिलते ही पितृ-आत्माएँ आश्विन मास अमावस्या तक पितृ-लोक को प्रस्थान करती हैं। सभी पितरों (पूर्वजों) की मृत्यु तिथि को ही पितृ-आत्माओं को भोज्य पदार्थ निवेदित करने के साथ ही कौए, गाय और कुत्ते को भी आदर भाव के साथ आहार देने के उपरान्त ब्राह्राण को भोज कराकर दान-दक्षिणा देकर विदा किये जाने की प्रथा को पार्वण श्राद्ध भी कहा जाता है।
इसमें दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। महालया अमावस्या पर पितृपक्ष समाप्त होता है। जिनकी मृत्यु की तिथि मालूम न हो, उन सर्वपितृ को अमावस्या पर तर्पण किया जाता है या फिर किसी कारण से अपने पूर्वजों का श्राद्ध न कर पाएं, तो इस तिथि पर श्राद्ध किया जा सकता है।
जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी अटल है और मृत्यु के उपरान्त पुनः जीवन प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है। पिता पक्ष के त्रिपीढ़ियों तक तथा माता पक्ष के त्रिपूर्वजों को पितर मानते हुए, सभी के लिए तर्पण किया जाता हैं। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक उल्लेख है, जिसमें मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं- 1.पितृ ऋण, २.देव ऋण तथा ३.ऋषि ऋण।
इनमें पितृ ऋण सर्वोपरि है और पितृ को आत्मबल भी कहा जाता है, आत्मबल यदि ऋणी हो, तो मानव का विकास बाधित होता है, जिसका निवृत्त होना परमावश्यक हो जाता है। पितृपक्ष में माता-पिता के देहांत तिथि को पितरों के निमित्त शास्त्रोक्त शक्ति,सामर्थ्य के अनुरूप ही उनका श्रद्धापूर्वक श्राद्ध कर पितृदोष से निवृत्त हुआ जाता है। जिससे सकल मनोरथ की सिद्धि सहित घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में भी उन्नति मिलती है। पितृदोष से मुक्ति न होने पर पुराणोक्त पद्धति से किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण द्वारा श्रीमद्भागवत् पुराण के वाचन से पितरों की आत्मशांति होती है।
• परिवार में अकाल मृत्यु होना, माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान होना,
• मृत्योपरांत शास्त्रोक्त क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं होना एवं वार्षिक श्राद्ध इत्यादि कर्म में चुक होना इत्यादि अनेक कारण पितृ दोष के लिए बताये गए हैं।
जिनके परिणामतः परिजनों में अशांति, वंश-वृद्धि बाधित, आकस्मिक संकट व व्याधियों का आगमन, आर्थिक अवरोध के साथ क्षति, परवारिक मनः असन्तुष्टि आदि विपातियाँ उत्पन्न होती हैं।
विभिन्न संप्रदायों में कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नागबलि कर्म, नारायणबलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्धपक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों की परिपाटियाँ चली आ रही हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार त्रिविधं प्रकार के नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य को ही श्राद्ध कहते हैं। यमस्मृति के अनुसार पंचविधं प्रकार के नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण को श्राद्ध कहते हैं।
1. नित्य - प्रतिदिन किए जानें वाले श्राद्ध को नित्य श्राद्ध कहते हैं। यह श्राद्ध केवल जल से सम्पन्न किया जा सकता है।
2. नैमित्तिक - किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध या एकोद्दिष्ट कहते हैं। जिसमें किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि श्राद्धकर्म आते हैं
3. काम्य - अभीष्ट कामना पूर्ति निमित्त श्राद्ध किये जाने को ही काम्य श्राद्ध कहते हैं।
4. वृद्धि - पुत्रजन्म, वास्तु पूजन, गृह प्रवेश, विवाहादि अनेक मांगलिक प्रसंगो में अभीष्ट वृद्धि हेतु धन्यवाद स्वरुप पितरों की प्रसन्नता के लिए किये गए देव-ऋषि-पित्र तर्पण श्राद्ध को वृद्धि श्राद्ध नान्दी श्राद्ध या नान्दी मुखश्राद्ध कहते हैं।
5. पार्वण - यह श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है, जिसमे पितृपक्ष, अमावास्या या पर्व या उत्सव तिथि आदि पर विश्वेदेवसहित किया जाने वाला श्राद्ध ही पार्वण श्राद्ध कहलाता है।
6. सपिण्डन श्राद्ध - पिण्डों को मिलाना ही सपिण्डन कहलाता है। पितरो की तृप्ति के निमित्त प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराये जाने को ही सपिण्डन श्राद्ध कहते हैं।
7. गोष्ठी श्राद्ध - सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाने वाले श्राद्ध को ही गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।
8. शुद्धयर्थ श्राद्ध - गृह शुद्धि अथवा अभीष्ट सिद्धि के उपरान्त पितरों की प्रसन्नता हेतु श्राद्ध को शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं।
9. कर्माग श्राद्ध - किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में अर्थ (आर्थिक) श्राद्ध सम्पन्न किए जाने को कर्मागश्राद्ध कहते हैं।
10. यात्रार्थश्राद्ध - तीर्थ या देशान्तर जाने के उद्देश्य से अथवा यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थ श्राद्ध या घृत श्राद्ध कहलाता है।
11. पुष्ट्यर्थ श्राद्ध - शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थ श्राद्ध कहलाता है।
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