संकलन : जया मिश्रा Advocate तिथि : 20-09-2023
मनुष्य की प्रवृति में देव और दानव दोनों सदैव निवास करते हैं, जिसमें दैत्य (दानव) पतन-पराभव की ओर आकर्षित कर कुबुद्धि उत्पन्न करता है, कुमार्ग पर अग्रसर होने के लिए फुसलाता है, किन्तु इस प्रकृति से उलट आन्तरिक देव, निरंतर मनुष्य को इन सब से ऊँचा उठाकर दुष्प्रवृत्तियों और सत्प्रवृत्तियों का भेद स्पष्ट करते हुए सत्प्रवृत्तियों की दिशा में आगे बढ़ाते हुए पाप मुक्त पुण्य को पोषित कर बलिष्ठ बनाये रखने की प्रेरणा देता है।
कुबुद्धि, कुमार्ग निरन्तर ही पाप का संचय कराते हुए मनुष्य के जीवन का बोझ बढ़ाते चले जाते हैं, जिनको इसी जन्म में समाप्त ना किया गया, तो उनका भोग अगले जीवन में भी करना पड़ता है। मनुष्य के जन्म से मृत्यु के मध्य कई तरह के ऋण, पाप, पुण्य उसका पीछा करते रहते हैं। पापों का संचय ऋण को बढ़ाता जाता है, किन्तु सत्प्रवृत्ति, सत्यमार्ग पुण्य (अर्जन) को बढाता है, इसीलिए परालौकिक उर्जाओं के सम्मुख सदैव आत्म साक्षात्कार के लिए उपस्थित रहने से सत्यमार्ग मिलता जाता है, जिनसे मनुष्य के ऋण व पाप से मुक्त होने की संभावनाएं बनती जाती है और आत्मा में अमूल्य खजाना भर जाता है। विश्व के कण कण से प्रेम की भावना धर्म और त्याग रूप में जीवन क्रम में प्रमुख स्थान बनती है, जिनसे जीवन का प्रत्येक बोझ व्यर्थ के प्रयत्न के बिना कम होता जाता है।
वर्तमान जीवन और अगला जीवन सुधारने के लिए प्रत्येक ऋणों को समझना जरूरी मनुष्य का कर्तव्य है। सत्य,प्रेम और न्याय की भावनाओं के हृदयंगम के अनुसार आचरण से प्रवृत्त होने पर देव ऋण,ऋषि ऋण और पितृ ऋण से मनुष्य स्वतः छुटकारा पाता हैं और जीवन मुक्त होकर परम पद पाने के लिए स्वतन्त्र होता हैं। भारतीय वैदिक वांगमय के अनुसार मातृऋण से मृत्योपरान्त ही मुक्ति होती है अथवा कन्या दान करके, किन्तु इस धरती पर जीवन लेने के पश्चात्प्र त्येक मनुष्य पर तीन ऋण की प्रमुख धार्मिक अवधारणा स्थापित होती हैं :- 1.देव ऋण २.ऋषि ऋण ३.पितृ ऋण। उक्त ऋणों की स्थापना और मुक्ति के मार्ग इस प्रकार है :-
देव ऋण - देवताओं के प्रति ऋणभार को दर्शाता है। प्राकृतिक ऊर्जा से प्राप्त शक्तियों, आशीर्वादों और वरदानों का आभार व्यक्त करते हुए सत्प्रवृत्तियों की दिशा में आगे बढ़कर पाप से जूझकर पुण्य को पोषित कर देव ऋण का मुक्ति का मार्ग प्रेरित होता है।
ऋषि ऋण - ऋषि व ज्ञानियों के ज्ञान, विद्या और धार्मिक उपदेशों के माध्यम से ऋणभार उत्पन्न होता है, जिनका आदर और सम्मान करते हुए उनके आदेशों और उपदेशों का मन क्रम वचन से पालन व पोषण करते हुए शास्त्रोक्त नैतिक कर्मकर आभार व्यक्त करने का मार्ग या तरीका है।
पितृ ऋण - पितरों (पूर्वजों या अधिकारो) के प्रति ऋण या ऋणभार को दर्शाता है। इसमें सनातन परम्पराओं की श्राद्ध और पितृ-तर्पण के सन्दर्भ में मृत्यु के उपरांत पुर्वजों की सुख-सुविधा एवं प्रगति, प्रसन्नता के निमित्त लोकोपयोगी परंपराओं से जुड़े श्राद्धकर्म करने से ही मनुष्य बहुत से पापों और संकटों से छुटकारा प्राप्त कर सकता है, किन्तु जिवंत माता पिता की सेवा से सदगृहस्थ को स्वर्गलोक, विष्णुलोक और ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
सनातन परम्पराओं की वैदिक परंपरा में ब्रह्मवैवर्तपुराण' के अनुसार निर्देश है कि सांसारिक सद्गृहस्थ अपने पितरों को श्रद्धापूर्वक पितृ पक्ष में पिंडदान, तिलांजलि और ब्राह्मणों को भोजन कराने से अग्रजों को इस जीवन में सभी सांसारिक सुख और भोग प्राप्त होते हैं और वे उच्च शुद्ध कर्मों के कारण आत्मा के भीतर एक तेज और प्रकाश से आलोकित होते है। ज्योतिष मान्यताओं के आधार पर जब सूर्य देव कन्या राशि में भ्रमण करते हैं, तब पितृगण तृप्ति की कामना से पुत्र-पौत्रों के समीप ही विचरते हैं। इस अवधि में पितृगण श्राद्ध कर्म से प्रसन्न होकर सुख-समृद्धि, सफलता, आरोग्य और संतान रूपी फल देते हैं।
धर्मसिन्धु के अनुसार पितरों की संतुष्टि हेतु श्राद्धकर्म के विभिन्न अवसर बतलाए गए हैं। प्रत्येक वर्ष की अमावास्याएं' (12), पुणादितिथियां(4), 'मन्वादितिथियां (14), संक्रान्तियां (12), वैधृति योग (12), व्यतिपात योग (12), पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध (5), अन्वष्टका (5) तथा पूर्वेद्यु:(5)
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विश्वकर्मा जी, ब्रह्माजी के हृदय में निवास करते है! विश्वकर्मा जी की गाथा, वर्णन, वृतान्त आदि अनेको प्रसंग सदा सभी सनातनी बाल्यावस्था से सुनते चले आ रहे होंगे, किन्तु सम्पूर्ण और वास्तविक ज्ञान सनातनियों में अल्प ...