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Ekadasshi -देवउठनी एकादशी व्रत कर पितृ दोष से मुक्ति पाई जाती है।


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संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 12-11-2021

दीपावली पर्व के उपरांत पड़ने वाला सनातनी पर्व देवउठनी एकादशी अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसे देवोत्थान एकादशी, देव प्रबोधिनी एकादशी, देवउठनी ग्यारस आदि नामो से जाना जाता है। वैदिक पुराणोंनुसार कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को देव जागरण होता हैं, जिसके उपरान्त ही सारे मांगलिक एवं शुभ कार्य जैसे विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश आदि प्रारंभ हो जाते हैं। देवउठनी या देव प्रबोधिनी एकादशी से मंगल आयोजनों के रुके हुए रथ पुनः तीव्र गति से भागने लग जाते है। इस तिथि को देवताओ को प्रसन्न करने वाला, समस्त मनोकामना पूर्ण करने वाला निर्जला व्रत भी रखा जाता है। जिसमे केवल जलीय पदार्थों पर उपवास रख ईश्वरीय उपासना पूर्ण किया जाता है और यदि इस दिवस निर्जल व्रत ना भी की जाये, तो इस दिवस चावल, प्याज, लहसुन, मांस, मदिरा, बासी भोज्य पदार्थो आदि का सेवन त्याज्य होता है।
सनातनी वर्ष के प्रत्येक माह में कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की ग्यारहवीं तिथि को ही एकादशी कहा गया है। एकादशी तिथि का सम्बन्ध जगत कल्याणकारी श्री हरि विष्णु से माना गया है और प्रत्येक एकादशी का अपना एक अलग ही उपयोग और महत्व बताया गया है। सभी एकादशियों में देव प्रवोधिनी एकादशी का सर्वाधिक महत्व मानते है, क्योंकि इस दिवस ही (चातुर्मास) चार माह की लंबी निद्रा से भगवान विष्णु जी सांसारिक कल्याण के लिए पुनः जागृत होते हैं। संभवतः इसी तथ्य के आधार पर ही कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवोत्थान या देवउठनी एकादशी कहा गया है। एकादशी का व्रत सामान्यतः क्लिष्ट ही माना गया जाता है, जिसके नियामको का पालन सरल नहीं होता है।
पुराणों के अनुसार जो व्यक्ति एकादशी व्रत का पालन पूर्ण भाव और शुद्धता से करता है, उसके जीवन से सभी प्रकार के कष्ट स्वतः ही प्रत्येक व्रत से साथ ही समाप्त होते जाते है और व्रती के जीवन में सुख, शांति, वैभव और समृद्धि बनी रहती है। साथ ही वैदिक शास्त्रानुसार देवोत्थान एकादशी का व्रत करने से हजार अश्वमेघ एवं सौ राजसूय यज्ञ का फल प्राप्ति व पितृदोष से मुक्ति मिलती है और भाग्य जागृत होता है। ज्योतिष शास्त्रानुसार निर्जल एकादशी का उपवास करने से कुंडली में कमजोर चंद्रमा की स्थिति सबल होती है।
देवोत्थान एकादशी से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य : -

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