संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 12-11-2021
कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अक्षय या आंवला नवमी मनाया जाता है। इस दिन आंवला वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन करने का भी चलन है। इस तिथि को व्रती परिवार की सुख और शांति हेतु आंवला वृक्ष की 08 अथवा 108 परिक्रमा लगाकर वृक्ष के नीचे पकवानों का भोग बना उन्हीं पकवानों से अपने व्रत का पारण करता है। अक्षय नवमी को श्रद्धा और समर्पण के साथ किए गए दान या किसी धर्मार्थ कार्य का लाभ व्यक्ति को वर्तमान और अगले जन्म में भी प्राप्त होता है। अक्षय नवमी देव उठनी एकादशी के से दो दिन पहले मनाई जाती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अक्षय नवमी का श्रद्धा पूर्वक सामूहिक पूजन से पुत्र रत्न की प्राप्ति और संतान यशस्वी होती है। अन्य दिनों की तुलना में नवमी पर किया गया दान-पुण्य कई गुना अधिक लाभ दिलाता है।
जब पूर्ण भूलोक जल मग्न था और जीवन का एकांश भी नहीं था, तब ब्रम्हा जी ईश्वरीय अनुराग और स्नेह में लिप्त कमल पुष्प पर विराजित निराकार परब्रम्हा की तपस्या मे मग्न थे, कि तभी भक्ति मे भाव विभोरित ब्रम्हा जी की आंखों से आंसू टपक कर आंवला फल बनता चला गया और कालांतर मे चमत्कारी औषधीय फल से वृक्षो का जन्म हुआ। संस्कृत में इसे अमृता, अमृतफल, आमलकी, पंचरसा इत्यादि नामो से पुकारा जाता है। यह वृक्ष समस्त भारत के जंगलों, बाग-बगीचों में बहुतायत मिलता है और यह वृक्ष कार्तिक में फलता है। वाराणसी का आँवला सबसे उत्कृष्ठ फल माना जाता है।
वैज्ञानिक शोध के अनुसार कार्तिक माह में जैविक क्रिया अपने चरम पर होती है, जिस कारण से किट-पतंगे, नए प्रकार के जीवाणु विषाणु, नवजीवन की उन्नति चहुंओर विकसित होती दिखती है, जिसमे नयी प्रकार की ब्याधियों की संभावनाए प्रबल हो जाती है, जिनसे मुक्त रहने के लिए सशक्त प्रतिरोधक क्षमताओ की अवश्यकता बढ़ जाती है। कार्तिक माह मे आंवले के वृक्ष की ऊर्जा व आंवले का गुण चरम पर रहता है और इस वृक्ष की छाया में प्रतिरोधक गुण का विकास हर प्रकार के रोगाणुओं से मुक्ति दिलाता है। इसकी छाया में बैठने और भोजन करने से जीवनी शक्ति बढ़ती है। आंवले के वृक्ष की छाल से भी कई तरह की बीमारियां दूर होती हैं। इसलिए वैदिक सनातनी ऋषि मुनियो द्वारा इस पेड़ को छूना, पूजा करना और इसकी छाया में भोजन करने की परंपरा बनाई गई है।
आयुर्विज्ञान में हरीतकी (हड़) और आँवला दो सर्वोत्कृष्ट अमृत औषधियाँ हैं, जिसमे आँवला सबसे अधिक गुणकारी होता है। इससे अनेको प्रकार के रोगों का उन्मुलन सफलपुर्वक होता है। आंवला में पाया जाने वाला विटामिन सी इसे पकाने के उपरांत भी बहुतायत मात्रा की पूर्णता शरीर में कोषाणुओं के निर्माण को बढ़ाकर निरोगता प्रदान करता है। चरक के मतानुसार शारीरिक अवनति को रोकने वाले अवस्थास्थापक (प्रतिरोधक क्षमता वाले) द्रव्यों में आँवला सबसे प्रधान है और प्राचीनतम ग्रंथो मे आंवला को शिवा (कल्याणकारी), वयस्था (अवस्था को बनाए रखनेवाला) तथा धात्री (माता के समान रक्षा करनेवाला) कहा गया है। आँवला पकने के पहले व्यवहार में आता है। आँवला ग्राही (पेटझरी रोकनेवाले), मूत्रल तथा रक्तशोधक हैं और अतिसार, प्रमेह, दाह, कँवल, अम्लपित्त, रक्तपित्त, अर्श, बद्धकोष्ठ को संतुलित व वीर्य को दृढ़ और आयु में वृद्धि करता है। आँवला, मेधा, स्मरण शक्ति, स्वास्थ्य, यौवन, तेज, कांति तथा सर्वबल वृद्धि दायक है। आधुनिक अनुसंधानों के अनुसार आँवला को पकाने (उबालने) के उपरांत भी विटैमिन-सी प्रचुर मात्रा में मिलता है, जो आंवला आग मे नहीं पकाया जाता, उसमे प्राय: विटैमिन सी पूर्णरूप से सुरक्षित रह जाता है।
रसायन शास्त्रनुसार आंवला के 100 ग्राम रस में 921 मि.ग्रा., और गूदे में 720 मि.ग्रा. विटामिन सी पाया जाता है। आर्द्रता 81.2, प्रोटीन 0.5, वसा 0.1, खनिज द्रव्य 0.7, कार्बोहाइड्रेट्स 14.1, कैल्शियम 0.05, फॉस्फोरस 0.02, प्रतिशत, लौह 1.2 मि.ग्रा., निकोटिनिक एसिड 0.2 मि.ग्रा. पाये जाते हैं। इसके अलावा इसमें गैलिक एसिड, टैनिक एसिड, शर्करा (ग्लूकोज), अलब्यूमिन, काष्ठौज आदि तत्व भी पाए जाते हैं।
पद्म पुराण में वर्णित है कि आंवले का दर्शन, स्पर्श तथा उसके नाम का उच्चारण करने से वरदायक भगवान श्री विष्णु अनुकूल हो जाते हैं, आँवला के भक्षण मात्र से ही मनुष्य सब पापों से मुक्त होता है, फल का रस पीने से धर्म-संचय होता है, आंवले के जल से स्नान करने मात्र से दरित्रता दूर होती है तथा सब प्रकार के ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। जिस घर मे आंवले का फल मिलता है, वहां भगवान श्री विष्णु, ब्रह्मा एवं सुस्थिर लक्ष्मी सदा विराजमान रहते हैं।
धार्मिक मान्यतानुसार आंवला वृक्ष की पूजा कर इसके नीचे भोजन करने का प्रचलन माँ लक्ष्मी से जुड़ा है। अक्षय नवमी तिथि पर मां लक्ष्मी अपने अवतरण उत्सव (दीपावली) के उपरांत भुलोक लोक में भ्रमण करते-करते अकस्मात ही मार्ग में श्रीहरि विष्णु एवं आदि योगी शिव जी के पूजन का विचार उनके मन में आ गया। तब लक्ष्मी जी दुविधा में पड़ गयी कि भगवान विष्णु को तुलसी और शिव को बेल प्रिय है, ये दोनो कहाँ मिलेगा? ये विचार चल ही रहा था कि तभी उन्हें युक्ति मिली कि तुलसी एवं बेल का एक साथ सन्युक्त गुण आंवला में पाया जाता है। तब लक्ष्मी जी आंवले के वृक्ष को ढूंढकर उपवास के साथ आंवला वृक्ष रूपी भगवान विष्णु एवं शिव की उपासना कर इसी पेड़ के नीचे बैठकर पारण करती हैं। इस प्रकार अक्षय नवमी को आंवला वृक्ष में भगवान विष्णु का वास होता है और इस तिथि को श्रीहरि विष्णु का सानिध्य प्राप्त होता है। इसिलिये आंवले के वृक्ष के नीचे श्री हरि विष्णु के दामोदर स्वरूप की पूजा की जाती है। आंवला के सेवन करने मात्र से ही श्री हरि की प्रसन्नता और लक्ष्मी संग विष्णु और शिव कृपा भी प्राप्त होती है।
इस दिवस प्रातः काल आंवला वृक्ष पर कच्चा दूध, हल्दी, रौली, सिंदूर, चंदन से तिलक कर शृंगार का सामान चढ़ा कर आंवला पेड़ की 08 अथवा 108 परिक्रमा कर व्रती मौली बांधती है। पूजन, तर्पण तथा अन्न आदि के दान से कभी ना क्षय होने वाले फल की प्राप्ति होती है।
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