संकलन : जया मिश्रा Advocate तिथि : 11-11-2021
सनातन पंचाग अनुसार कार्तिक, शुक्ल पक्ष अष्टमी तिथि (गोपाष्टमी) को गाय की पूजा कर मनुष्य को खुशहाल और भाग्यशाली जीवन मिलता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहाँ बिना गौ धन के कृषि के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है। गोपाष्टमी तिथि को परंपरानुसार कृत्य करने से मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति अवश्य होती है। गोपाष्टमी, ब्रज एवं वैष्णव संस्कृति के लिए एक प्रमुख पर्व है। यह पर्व मनुष्यों के लिए वरदान के रूप में गायों को धन्यवाद देने की परंपरा है। ये पर्व गौधन से जुड़ा है, इसलिए गौ धन से जुड़ा पर्व बहुत विशेष माना जाता है। गायों के प्रति अतिस्नेह के फलस्वरूप ही श्री कृष्ण जी को 'गोविन्द' ‘गोपाल’ नाम से भी पुकारा जाता है।
सनातन संस्कृति मे गाय को सांस्कृतिक आत्मा और प्राण माना गया है। पौराणिक कथाओं मे गाय को मंदिर मानते हुए कई देवी-देवता का निवास स्थल भी कहा गया हैं। शास्त्रों में गाय के आध्यात्मिक और दिव्य गुणों का वर्णन करते हुए पृथ्वी का एक और देवी रूप माना जाता है। गाय को मात्र दूध देने वाला पशु न मानकर, सदा से ही उन्हें देवी देवताओं का प्रतिनिधि ही माना गया है। सनातन शास्त्रानुसार समुद्र मंथन से कामधेनु की प्राप्ति हुई थी, कामधेनु से ही अन्य गायों की उत्पत्ति हुई। जिन्हे ऋषियों-मुनियो ने ईश्वरीय आशीष मानते हुए अपने पास रख लिया। गौ, ब्राह्मण तथा धर्म की रक्षा के लिए श्री हरि विष्णु जी वैकुण्ठ छोड़कर व्रज में श्रीकृष्णावतार ले कर आए और गायो को सत्य स्वरूप मानते हुए, उन गायों के खुर की धूलि अपने श्री अंग को लगाया। गायों को श्रीकृष्ण से कितना सुख मिलता है, यह अवर्णनीय है।
श्रीकृष्ण लीला के वर्णन मे गौएं उनके मुख्य पात्र मे परिलक्षित होती है, जिसमे कान्हा का छोटी उम्र में हठकर गाय का दूध दूहना सीख कर प्रसन्न होना, माखन चुराना, गाय चराना, वंशी की मधुर ध्वनि से उन गायों को संचालित करना आदि सम्मिलित है। नंदबाबा के पास नौ लाख गौएँ थीं, जब श्रीकृष्ण कुछ बड़े हुए, तो माँ यशोदा की आज्ञा से कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी को गौचारण का मुहूर्त निकलकर गौचारण के लिए जाना आरम्भ किया था। श्री कृष्ण को गायों के बीच में रहना अच्छा लगता था। श्रीकृष्ण भी हर गाय को उसके नामो से कृष्ण पुकारते थे और अपना नाम सुनते ही गायों के थनों से दूध चूने लगता था। गायें जैसे ही कृष्ण को देखकर ही उनके पास दौड़कर आती और श्रीकृष्ण के शरीर को चाटने लगतीं थी। समस्त गायें उनसे आत्मतुल्य प्रेम करती थीं।
श्रीमद्भागवत कथा में वर्णित है की जब माता यशोदा श्रीकृष्ण का श्रृंगार कर उनके पैरों में जूतियां पहनाने लगी, तब गोविन्द बोले – मैय्या गौएं जूतियां नहीं पहनती तो, मैं कैसे पहनु? और अगर जूतियां पहनानी हैं, तो पहले उन सभी गौओ को जूतियां पहना दो। माँ से इस संवाद के उपरान्त भगवान जब तक वृंदावन में रहे, तब तक कभी पैरों में जूतियां नहीं पहनी। आज भी ब्रज और वृन्दावन में धार्मिक लोग नंगे पाव रहकर ही अपने काम-काज करते हैं।
सनातनी मान्यतए है कि मांगलिक कार्यो में घर द्वार गाय के गोबर और मूत्र से लीपने से घर की समस्त बाधाए और रोग ब्याधिया समाप्त होती है, और घर मे लक्ष्मी जी का वास होता है। गोपाष्टमी तिथि को स्वयं लक्ष्मी जी गाय स्वरूपा स्थापित रहती है। यदि आदर और सत्कार भाव के साथ इस तिथि को गऊ माता का आदर, सत्कार और पूजन होता है, वहाँ लक्ष्मी जी गऊ रूप मे ही अपना निवास बनाती हैं और पूरे वर्ष उस परिवार और कुटुम्ब के समस्त दोषो का उन्मूलन करती है। इसीलिए लगभग सभी सनातन मांगलिक कार्यो में देवी लक्ष्मी स्वरूप गाय का गोबर और मूत्र का उपयोग किया जाता है।
इस दिन सुख-समृद्धि में वृद्धि की कामना से बछड़े सहित गाय और गोविंद की पूजा करने का विधान है। गोपाष्टमी के दिन प्रात:काल गायों की व ग्वालों की पूजा होती है, गायों को गो ग्रास खिला उनकी परिक्रमा होती है और सायंकाल में जब गायें वन से चरकर वापस जाती है तो उनका पूजन करते हुए उनकी चरण रज मस्तक पर लगाई जाती है, ऐसा करने से मनुष्य के सौभाग्य की वृद्धि और मनोवांछित सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं।
अष्टमी तिथि और गौ या गाय से जुड़े रोचक तथ्य : -
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