संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 28-10-2021
प्रत्यक्ष रूप मे कुबेर को धनरक्षक लोकमंगलकारी ही माना गया है। कुबेर को अनार्य देवता भी माना गया है, किन्तु आर्यदेव मानते हुए उनकी पूजा की जाती है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार कुबेर महाराज समुन्द मंथन से प्राप्त अमृतपान कर देव अमरत्व प्राप्त कर राक्षस योनि त्याग देव योनि मे परिवर्तित हुए हैं। जैसे ऋषियों में परशुराम, देवो में हनुमान, पुरुषों में भीम बली हैं, वैसे ही यक्षों में कुबेर महाबली माने जाते हैं।
धन की सुचिता के साथ कुबेर को जोड़कर देखने से उनका अनगढ़ व्यक्तित्व समाप्त माना जाता है, क्योकि धन की उपयोगिता के लिए भी मानसिक प्रभुता आवश्यक होती है। कुबेर जी धनुर्धारी, लक्ष्य भेदने मे कुशल योद्धा के रूप मे स्वर्ग द्वार पर स्वर्ण मुकुट युक्त, स्वर्ण सिंहासन पर विराजित कांधे धनुष, हाथ में त्रिशूल-भाला और गदा धारण किए हुए पहरेदारी का दायित्व निभाते है। कुबेर का दिक्पाल के रूप मे दूसरा नाम यक्ष पुकारा जाता है, जो इन्हे रक्षक अथवा प्रहरी रूप मे वर्णित करता है। यक्ष धन का रक्षक ही होता है, उसे भोगता नहीं। कुबेर जी यक्ष-यक्षणी की भारी सेना के सेनापति भी है। विवाह आदि मांगलिक अनुष्ठानों में द्वितीय कोटि के देवता कुबेर के आह्वान का विधान है।
कुबेर जी कुरूपता के लिए प्रसिद्ध हैं। कुबेर का व्यक्तित्व और चरित्र धनपति होने पर भी आकर्षक नहीं है क्योकि शास्त्रो मे इनका बेडौल और स्थूल काया, तीन पैर और आठ दांत का वर्णन मिलता हैं। कौटिल्य अनुसार खजानों के रक्षक रूप में कुबेर की मूर्तियां प्राचीनतम मंदिर प्रांगणों के वाह्य प्रष्टो पर कल्पित और स्वीकृत किया हैं। जिसका रहस्य यही है कि वे मंदिरों के धन रक्षक रूप स्थापित रहते है। लक्ष्मी जी, प्रसन्नता, उल्लास, मनोविनोद, और आनन्द की देवी हैं|
इनके वास करने मात्र से ही आस-पास के समस्त रोग, संताप और दोष नष्ट होते है| लक्ष्मी जी के वास करने का लक्षण स्वतः ही स्वछता, प्रसन्नता, सुव्यवस्था, श्रमनिष्ठा एवं मितव्ययिता के रूप में प्रदर्शित होता है| जिसकी अभिलाषा में प्रत्येक सनातनी चाहें, वो राजा हो या रंक सभी को होती है, किन्तु लक्ष्मी का धन स्थायी नहीं गतिशील है। इसलिए लक्ष्मी जी चंचला नाम से लोकविश्रुत है, जबकि कुबेर का धन खजाने के रूप में जड़वत या स्थिरमति है।
शास्त्रकारों के अनुसार कुबेर धनपति होकर भी लक्ष्मी के समक्ष आधार विहीन हो जाते हैं, क्योकि लक्ष्मी आगमन से ही स्वछता, प्रसन्नता, सुव्यवस्था, श्रमनिष्ठा एवं मितव्ययिता स्थापित हो जाती है, जिसकी आवश्यकता स्वयं कुबेर जी को भी रहती है। लक्ष्मी जी स्वयं जिनकी पत्नी हैं, उन भगवान विष्णु को भी एक बार कुबेर से कर्ज लेना पड़ा था, जिसके परिणाम स्वरूप कुबेर को लक्ष्मी जी ने अपना दास घोषित कर वरदान दिया कि जहां-जहां भी कुबेर जी का आदर सत्कार होगा, वहाँ-वहाँ लक्ष्मी का आवागमन भी अवश्य रहेगा।
रामचरित मानस (रामायण) अनुसार विश्वश्रवा की दो पत्नियां थीं। पहली पत्नी (पुण्यात्कटा) इडवीडा से कुबेर जो सबसे बड़े पुत्र थे और दूसरी पत्नी से रावण, कुंभकर्ण और विभीषण थे। रावण के अत्याचारों जानकर कुबेर ने रावण के पास दूतो भेजकर संदेश दिया कि रावण अधर्म और क्रूरता त्याग दो,अन्यथा भविष्य मे सर्वनाश की संभावना है। उन दूतो द्वारा रावण के नंदनवन को उजाड़ दिया, जिसके कारण रावण सभी देवता से क्रुद्ध होकर अपने खड्ग से उन दूत को क्षत-विक्षत कर राक्षसों में भक्षणार्थ वितरित कर दिया।
यह ज्ञात होते ही क्रुद्ध कुबेर ने रावण युद्ध हेतु ललकारा, जिससे राक्षसों तथा यक्षों से भीषण युद्ध हुआ। युद्ध में यक्ष बल का प्रयोग करते रहे, किन्तु राक्षस छल और माया के प्रयोग से अन्ततः विजय श्री प्राप्त कर गए। इस भीषण युद्ध में रावण ने मायावी विद्याओ से अनेक रूप धारण कर सर पर प्रहार कर कुबेर को घायल कर बलात उसका पुष्पक विमान ले जाते हैं और तत्पश्चात अपनी मां से प्रेरणा पाकर कुबेर की समस्त संपत्ति छीन लंकापुरी ले आते हैं। हारे और घायल कुबेर सीधे पितामह के पास पहुंच सारा वृतांत बताते हैं और पितामह की प्रेरणा से भगवान शंकर को प्रसन्न करने के निमित्त हिमालय पर्वत जाकर कुबेर जी ने कठोर तप प्रारम्भ किया, कुछ अंतराल व्यतीत होने के पश्चात कुबेर जी को शिव तथा पार्वती के सयुक्त दर्शन हो गए, परन्तु कुबेर ने अत्यंत सात्त्विक भाव से बायें नेत्र से पार्वती को देखा, तत्क्षण ही पार्वती के दिव्य तेज से उनका वह नेत्र भस्म होकर पीला पड़ गया।
पीड़ा से व्याकुल कुबेर जी वहां से उठकर गौतमी के तट पर जाकर घनघोर तप करने लगे, जिससे प्रसन्न होकर आदियोगी शिव जी ने कुबेर से कहा-तुमने अपनी तपस्या से मुझे जीत लिया। तुम्हें अब से एकाक्षी पिंगल नाम से भी जाना जाएगा, क्योकि तुम्हारा एक नेत्र पार्वती के तेज से नष्ट हो गया था। इस क्षण के उपरांत ही कुबेर जी को धनपाल की पदवी, पत्नी और पुत्र का लाभ हुआ और गौतमी का वह तट धनदतीर्थ नाम से विख्यात है। कुबेर के समान तप अन्य कोई भी देवता पूर्ण रूप से संपन्न नहीं कर पाया।
भगवान कुबेर जी से जुड़ी कुछ विशेष बाते व निष्कर्ष: –
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