संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 15-06-2021
महेश नवमी उत्सव उत्तर भारत में विशेष रूप से प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को मनाया जाता है। भगवान शिव को महेश नाम से भी जाना जाता है। शिव को पृथ्वी पर सबसे कोमल, रज, तम, सात्विक गुणों से युक्त, त्रिलोकीनाथ भी कहा जाता है। माहेश्वरी समाज अपनी वंशावली के रूप में महेश नवमी को मनाते हैं। इस दिन ऋषियों के शाप से पत्थर बने हुए 72 क्षत्रियों को भगवान शिव और आदिशक्ति माता पार्वती की कृपा से मुक्ति प्राप्त हुई थी, और कालांतर मे उन क्षत्रियों को संसार में महेश्वर नाम से विख्यात होने का वरदान भी मिला था, जिन्हे आज सभी माहेश्वरी समाज के रूप में जानते हैं।
महेश्वर नाम से विख्यात होने का वरदान की रोचक कथा इस प्रकार है:- एक राजा थे खडगलसेन, जो प्रजा धर्म में संलग्न रहते थे, उनकी प्रजा प्रसन्न और सम्पन्न थी। किन्तु सभी सत्कर्मों के बाद भी कोई संतान नहीं होने के कारण राजा दु:खी रहते थे। राजा ने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से कामेष्टि यज्ञ का आयोजन किया, जिसके समापन पर सभी ऋषियों-मुनियों ने राजा को वीर व पराक्रमी पुत्र होने का आशीर्वाद दिया, लेकिन साथ में ही चेतावनी भी दी, कि उस पुत्र को 20 वर्ष कि आयु तक उसे उत्तर दिशा में जाने मत देना। प्रभु प्रताप से पुत्र उत्पत्ति के बाद राजा ने धूमधाम से उसका सुजान कंवर नामकरण कराया गया। सुजान कंवर वीर, तेजस्वी व समस्त विद्याओं में शीघ्र ही निपुण होता चला गया। अकस्मात एक जैन मुनि राजा खडगलसेन राज्य में आए। जैन मुनि के धर्मोंपदशों से बहुत प्रभावित होकर सुजान कंवर ने जैन धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली और प्रवास के माध्यम से जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने लगे। 19 वर्षीय सुजान कंवर के प्रचार-प्रसार से लोगों की जैन धर्म में धीरे-धीरे आस्था बढ़ने लगी और जगह-जगह पर जैन मंदिरों का निर्माण होने लगे। जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करते-करते अचानक ही सुजान कंवर उत्तर दिशा की ओर जाने लगे। सैनिकों व रक्षको के मना करते रहने के बाद भी वे उत्तर दिशा में आगे ही बढ़ते चले गए, और ऐसे सूर्य कुंड के पास पहुचे जहां ऋषि द्वारा यज्ञ किया जा रहा था। वातावरण में चहु ओर वैदिक वेद मंत्रो की ध्वनि गुंजित हो रही थी, जिसे सुनकर राजकुमार क्रोधित हुए और सैनिकों से बोले- ''मुझे आप लोगों ने अंधेरे में रखकर उत्तर दिशा में नहीं आने दिया और यहाँ तक मेरे जैन धर्म का प्रचार-प्रसार नहीं हुआ, तत्क्षण ही सभी सैनिकों को भेजकर यज्ञ मे विघ्न उत्पन्न कर यज्ञ खण्डित करा दिया। जिसके कारण वहाँ उपस्थित सभी ऋषियों ने क्रोधित होकर एक साथ ही सब सैनिकों और राजकुमार को पत्थरवत हो जाने का श्राप दिया और वे सभी पत्थर गए। यह समाचार सुनते ही राजा के प्राण निकल गए और उनकी रानियाँ साथ ही सती हो गईं।
सुजान कंवर की पत्नी चन्द्रावती सभी सैनिकों की पत्नियों को लेकर श्राप देने वाले ऋषियों के पास पहुँच कर क्षमा-याचना करने लगीं। जिससे ऋषियों का मन दया से भर गया और उन्होंने अपने श्राप को विफल करने के लिए भगवान भोलेनाथ व मां पार्वती की आराधना कर प्रसन्न करने को कहा। सभी महिलाओ ने सच्चे मन से भगवान शिव और आदिशक्ति माता पार्वती का कठोर तप और आराधन कर अखंड सौभाग्यवती व पुत्रवती होने का आशीर्वाद प्राप्त किया।। जिसके प्रभाव से राजकुमार सहित सभी 71 क्षत्रिय जीवित हो गए। जीवनदान मिलने के बाद से उन सभी 72 क्षत्रिय को महेश्वर प्राप्त हुआ। भगवान शंकर की आज्ञा से ही उन 72 क्षत्रिय ने क्षत्रिय धर्म छोड़कर वैश्य धर्म को अपना लिया। जिनको वंशजो को ही 'माहेश्वरी समाज' के नाम से इसे जाना जाता है।
इसलिए आज भी समस्त माहेश्वरी समाज द्वारा महेश नवमी उत्सव के दिन मन्दिरों को सजाकर शिव पार्वती का पूजा-पाठ, भजन कीर्तन किया जाता है। इस दिन माहेश्वरी समाज के लोग भगवान शिव और आदिशक्ति माता पार्वती की महाआरती कर शोभायात्रा निकालते हैं और जगह जगह पर धार्मिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमो का भी आयोजन किए जाते हैं।
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