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माँ ब्रह्मचारिणी की उपासना से स्वाधिष्ठान चक्र स्थिर होता है।


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संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 07-04-2021

द्वितीयम् ब्रह्मचारिणी स्तुति –

ॐ दधाना कर पद्माभ्यामक्ष मालाकमण्डलू। देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

(अर्थ - हे माँ! सर्वत्र विराजमान और ब्रह्मचारिणी आपको बारम्बार प्रणाम है।)

नवरात्र के दुसरे दिन ब्रह्मचारिणी की देवी के रूप में पूजन होता है। भविष्य पुराण के अनुसार माँ ब्रह्मचारिणी देवी सफेद वस्त्र धारण किये हुए, बहुत सरल सौम्य और ममता की मूरत, माँ के दाहिने हाथ में जप की माला एवं बायें हाथ में कमंडल है। जिनका आनन्दरुपिणी देवी मनुष्य के चित्त को शान्त करती हैं। माँ ब्रह्मचारिणी की उपासना में भक्त मन को एकाकृत करके ध्यान को ‘स्वाधिष्ठान’ चक्र में स्थित करते हैं। ‘स्वाधिष्ठान’ चक्र में ध्यान लगाने से अवस्थित मन वाला व्यक्ति भी माँ ब्रह्मचारिणी की कृपा और भक्ति को प्राप्त करता है। बदलते मौसम में नवरात्रि के नौ दिन शरीर में उत्पन्न हुए विकारों के लिये माता का संजीवनी रूप है। नवरात्रि के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी के दर्शन-पूजन बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। योगी साधक के लिये ये दिन कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने के लिये अत्यधिक महत्वपूर्ण होता है। कुंडलिनी शक्ति को जागृत के बाद जातक विपरीत परिस्थितियों का सामना आसानी से कर लेता है। भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या के कारण तपश्चारिणी अर्थात्‌ ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया। माँ भगवती की नवशक्ति का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। ब्रह्मचारिणी नाम में ब्रह्म का अर्थ तपस्या से है और चारिणी का अर्थ आचरण करने से है। देवी का यह रूप पूर्ण ज्योतिर्मय और अत्यंत भव्य है और यह स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनंत फल देने वाला है। ब्रह्मचारिणी की उपासना से तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार और संयम की वृद्धि होती है। तीनों लोकों को संयम देने वाली माता ब्रह्मचारिणी ही हैं।

पुराणिक कथाओं के अनुसार शक्ति रूपा माँ भगवती ने भगवान शिव को पति के रूप पाने के लिए बहुत ही कठिन तप किया, जिसके प्रभाव से उनका शरीर गौर हो गया था और इनका नाम ब्रह्मचारिणी या तपश्चारिणी पड़ा।  भगवान शिव की आराधना के दौरान उन्होंने हजार सालों तक केवल फल-फूल बेलपत्र खाएं और सौ वर्ष तक साग खाकर जीवित रहीं। जिसकी वजह से अर्पणा और उमा नाम भी पड़ा। माँ ब्रह्मचारिणी का मंदिर काशी के पंचगंगा घाट और गाय घाट के बीच ब्रम्हाघाट, गंगा तट में स्थित हैं। जो विश्व में ब्रह्मचारिणी मन्दिर के रूप में ख्याति प्राप्त है। प्राचीन मंदिर में प्रवेश करते ही आंनद की अनुभूति होती हैं। नवरात्रि के दुसरे दिन ब्रह्मचारिणी के इस प्राचीन मंदिर में पांव रखने की भी जगह नहीं रहती है। नवरात्र में माता के दर्शन को आया हर भक्त उनके दिव्य रूप के रंगो में रंग जाता है। अपनी मुराद लिये भक्त ब्रह्म मुहूर्त से ही लंबी कतार में खड़े हो जाते हैं। माता का यह मंदिर इतना शक्तिशाली है कि यहां मांगी गई हर मुराद पूरी हो जाती है। यहां लोग काफी दूर-दूर से मन्नत मांगने आते हैं और मन्नत पूरी हो जाने पर पूजा करवाते हैं। नवरात्रि के दुसरे दिन माता की महाआरती होती हैं और माँ ब्रह्मचारिणी की कथा भी सुनाई जाती है।

सनातनी पुराणों में ब्रह्मचारिणी की कथाओं का वर्णन मिलता है, जिसका संक्षिप्त वृतान्त इस प्रकार है :- माँ भगवती ने नारद जी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या कर एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए। कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया। कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना करते हुए कहा - ''हे देवी! इस तरह की कठोर तपस्या आप ही से संभव थी, आपकी सभी मनोकामनायें परिपूर्ण होगी। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे है। अब आप तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ।''

माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन देवी के इसी स्वरूप की उपासना की जाती है। इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए। नवरात्रि के दूसरे दिन व्रत करने से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। इस दिन माँ को शक्कर का भोग लगाना चाहिए है। ब्राह्मण को दान में भी चीनी ही देनी चाहिए।

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