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शीतला अष्टमी स्वास्थ्य एवं स्वच्छता का स्पष्ट सन्देश ।


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संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 31-03-2021

शीतला अष्टमी व्रत पर्व - सनातन संस्कृति का कोई भी व्रत, पर्व, उत्सव, त्यौहार बिना वैज्ञानिक, अध्यात्मिक एवं प्राकृतिक तथ्यों अथवा कारण के सम्भव ही नहीं है, अत: शीतला अष्टमी व्रत पर्व के पीछे भी अवश्य कोई ना कोई वैज्ञानिक, अध्यात्मिक एवं प्राकृतिक तथ्य अथवा कारण अवश्य ही होगा। बस उसे ज्ञात कर उनका शुभ परिणाम अथवा लाभ लिया जा सकता है। सनातनी परम्पराओं के अनुसार चैत्र मास कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को शीतला अष्टमी व्रत पर्व मनाया जाता है, इसे बसोड़ा, बासेरो, बसौड़ा आदि नामों से भी जाना जाता है।

होली पर्व के पश्चात से मौसम में अप्रत्याशित बदलाव से त्वचा सम्बन्धी रोग-व्याधि उत्पन्न होने की आशंकाए बन जाती है, जिनमें चेचक, खसरा, नेत्र सम्बन्धी कष्ट व रोग-व्याधि एवं अन्य प्रकार की त्वचा सम्बन्धी रोग-व्याधि का भय लगातार बना रहता हैं। यह वसंत ऋतु का अंतिम दिन होता है। ऋतु परिवर्तन से मानव शरीर में भी विभिन्न प्रकार के विकार व रोग होना स्वभाविक है। शीतला अष्‍टमी के बाद से रात्रि की सर्दी पूर्णतया समाप्त हो जाती है, जिसके पश्चात रात्रि भी गर्म होती जाती है एवं इस परिवर्तन से मानव शरीर में रासायनिक तत्व की वृद्धि होती है, जिससे शारीरिक संरचना मे परिवर्तन बीमारियों को न्योता देना शुरु कर देता है। ऐसे में प्याज,लहसुन, मांसाहार,बासी खाना घातक है। इस व्रत के बाद गर्मी अपने चरम की ओर अग्रसर हो जाती है, जिसके पश्चात बासी खाना विष के समान ही होता है। शीतला अष्टमी व्रत पर्व के माध्यम से सर्द-गर्म से उत्पन्न सभी प्रकार के विकार को दूर किया जा सकता हैं। सर्द-गरम के प्रभाव से उत्पन्न रोग-व्याधियों से बचने के लिये माँ शीतला की आराधना होती है।  

स्कंद पुराण के अनुसार स्वयंभू शिव ने लोकहित में शीतलाष्टक की रचना की थी। शीतलाष्टक में शीतला देवी की पूर्ण महिमा का वर्णन है। देवी की महिमाओ को बारीकियों से समझ कर शीतलाष्टक का गान करने से घर-परिवार से रोग-व्याधि दूर रहती है एवं जीवन में समृद्धि के द्वार खुलते है। माँ शीतला को स्वच्छता की अधिष्ठात्री दिगम्बरा देवी माना गया है। इनकी सवारी गर्दभ (गधा) है एवं हाथो में अस्त्र-शस्त्र के स्थान पर, एक हाथ में झाडू (मार्जनी) व सूप तथा दुसरे हाथ में कलश व नीम के पत्तों को धारण की  हुई है। मान्यता हैं कि माता शीतला के पूर्णतया रूष्ट होने पर चेचक होता है एवं भगवती शीतला का नीम के पेड़ में वास होता है। माता शीतला शीतलता प्रदान करने एवं पूर्ण स्वच्छता पसन्द करने वाली हैं। शास्त्रों में भगवती शीतला की वंदना हेतु मंत्र बताया गया है। “वन्देऽहं शीतलां देवीं रासभस्थां दिगम्बरम्।। मार्जनी कलशोपेतां सूर्पालंकृत मस्तकम्।।

जिसका अर्थ अत्यन्त व्यापक है - जैस गर्दभ (गधा) जानवरों में अधिक सीधा, सरल, अल्हढ़, परन्तु अतिपरिश्रमी जीव है एवं इसका पालन केवल मेहनतकश मजदुर, धोबी एवं सफाई कर्मी करते है, झाडू (मार्जनी) व सूप भी सफाई के प्रति जागरूकता को दर्शाता है एवं कलश प्रतीक है स्वच्छता एवं स्वास्थ्य का। नीम के पत्ते रोगों के संक्रमण से बचाव करता है। माँ शीतला का पूजन स्पष्ट सन्देश है कि जिस घर में गंदगी एवं मलीनता का वास होता है, उस घर में कभी सुख शांति नहीं हो सकती है। माँ शीतला स्वास्थ्य और स्वच्छता की प्रतीक देवी हैं।

शास्त्रानुसार मान्‍यता है कि शीतला अष्‍टमी के दिन घर का चूल्‍हा जलने से घर मे विपत्तियां प्रवेश करती हैं, इसलिए अष्‍टमी के एक दिन पहले शीतला सप्‍तमी को सारा खाना पकाकर शीतला अष्‍टमी के दिन बासी खाना ही खाते हैं एवं इसके पश्चात घर में बासी खाना खाने की पूर्णतया मनाही हो जाती है। शीतला अष्टमी पर मुख्य रूप से दही, रबड़ी, चावल, हलवा, पूड़ी, गुलगुले इत्यादि ठंडे खाद्य पदार्थो का ही भोग लगता है और महिलाएं कुत्तों का भी पूजनकर उन्हें मीठा एवं जल पिलाती हैं।

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