संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 23-03-2021
विश्व में भारत ही सांस्कृतिक विविधता का देश है, जहां जीवन का रंग रूप भली प्रकार से दिखता है। होली पर्व भी एक ऐसा ही पर्व है, अनेकता में एकता को दर्शाता है, जिसमें मे न तो भाषा का विवाद होता है, न ही रंग रूप का ही। सब रूप एवं रंग एक समान हो जाते है। भारत के अलावा नेपाल भूटान, पाकिस्तान एवं अन्य एशियाई देश में भी होली बड़े उत्साह के साथ मनाई जाती है। होली को अनेकों प्रकार से मनाया जाता है – कहीं रंगों से, कही रेत, कही मिट्टी से, कही अबीर गुलाल से, कही टमाटर से, एवं कहीं-कहीं लड्डू एवं फूलों से। ब्रज में सात दिन तक भिन्न-भिन्न रस्म से होली खेली जाती हैं। होली के कई दिन तक गीत संगीत, हंसी ठहाके आदि का आयोजन किया जाता हैं। पुरानी दुश्मनी को भूल कर गले लगते हैं।
प्राचीन समय में ही होलिका दहन के दूसरे एवं तीसरे दिन धुर, मिट्टी, कीचड़, चिकनी मिट्टी, कीचड़ से होली खेली जाती है, जिसे धुलेंडी यानी धुर की होली कहा जाता था। वर्तमान समय में धुलेंडी होली को धुरड्डी, धुरखेल, धूलिवंदन एवं चैत बदी आदि नामों से जाना जाता है। जैसे-जैसे समय परिवर्तित होता गया वैसे-वैसे ये प्रथा अपने क्षेत्र तक ही सीमित रह गयी है, लेकिन आज धुलेंडी पर भी रंग खेला जाता है, अब होली का हर दिन सामान्य सा देखा जाने लगा है। आज भी गाँव-देहातों मे धुर कीचड़ से होली खेली जाती है।
पौराणिक मान्यता अनुसार त्रेतायुग के आरंभ में कामदेव ने प्रेम बाण के प्रयोग से परब्रम्ह शिव की तपस्या को भंग कर दिया, जिससे क्रोधित भगवान शिव ने अपनी तीसरी आँख खोल दी एवं कामदेव को भस्म कर दिया। कामदेव प्रेम के देवता माने जाते हैं, इनके भस्म होने के कारण पूरा ब्रह्मांड, देवलोक एवं संसार शोक-दुख से ढक गया। चारों ओर शोक की लहर फैल गई, पुनः देवताओं के आग्रह पर कामदेव की पत्नी रति ने पति को पुनर्जीवित करने के लिए ८ दिनों की कठिन तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न कर कामदेव को पुन: जीवनदान दिलाया एवं कामदेव के पुनर्जन्म के उपलक्ष्य में भगवान विष्णु परब्रम्ह शिव का धूलि वंदन किया था, तभी से इस दिन धूलिवंदन यानि एक दूसरे पर धूल लगाने की पंरपरा शुरू हुई। जिस कारण से होली से पूर्व के आठ दिन शोक एवं दुखों से पूर्ण माने जाते है एवं अशुभ दृष्टि से याद भी किया जाता है। प्रचलित मान्यता के अनुसार होलाष्टक का अंत धुलेंडी के साथ माना जाता है। एक दूसरे पर धूल लगाने के कारण ही इस दिन को धुलेंडी कहा जाता है एवं यह उत्सव होली के पांचवे दिन तक खेली जाती थी, जिसे रंग पँचमी भी कहा गया है।
धुलेंडी यानी धुर की होली का सीधा सम्बंध शोक के बाद उत्सव से है, अर्थात पृथ्वी पर व्याप्त धूल ही जीवन का अटूट आधार है, क्योंकि जीवन इसी धूल से उपजा है, एवं इसी धूल में ही जीवन को नष्ट हो जाना है, मृत्यु यदि शोक है, तो जीवन एक उत्सव है। यह गति अनादिकाल से चली ही आ रही है, जिसमें धुलेंडी होली शोक से निकाल कर जीवन उत्सव को जागृत करना है। इन्ही तथ्यों के आधार पर जिस घर कोई बीते समय में किसी की मौत हुई हो, उनके घर मे धुलेंडी होली के दिन सिर्फ सूखा रंग डालते थे, ताकि मृत्यु का शोक कम हो एवं शेष प्रत्येक घरों में धूर एवं चिकनी मिट्टी का कीचड़ का लेपकर जीवन का यथार्थ याद दिलाया जाता है कि एक दिन बिक जाएगा, माटी के मोल, जग में रह जाएंगे, प्यारे तेरे बोल। धुलेंडी होली के माध्यम से वर्ष भर की गयी समस्त गल्तियों पर मिट्टी डालना अथवा डलवाना होता है।
ब्रज में आज भी जहां विगत वर्ष किसी की भी मृत्यु हुई हो, उस घर के परिवार के सभी सगे-सम्बन्धी उनके घर आते हैं, रंग अबीर सिर्फ डालते हैं, उस परिवार में सबसे पहले गुझिया एवं पकवान बनते हैं एवं होली के दिन उनके घरों में सूखा रंग, अबीर-गुलाल डालते हैं एवं अंत में लोग धुलेंडी पर उन लोगों के घर मिलने जाते हैं तथा गुलाल से टीका लगाकर होली (धुलेंडी) की परंपरा का निर्वहन करते हैं।
बहुरंगी होली भी कई प्रकार से मनाई जाती है। जैसे. फूलो की होली (फूलेरा दूज) रंगो की होली, धूर की होली, लड्डूवन की होली तथा लठमार होली इत्यादि इत्यादि। जैसे प्रत्येक रंग की अपनी अपनी ...
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सनातनी संस्कृति में कुछ अतिमहत्वपूर्ण त्योहार एवं पर्व है, जिन्हें विश्व ख्याति प्राप्त है, जिसे स्मरण एवं उन पर्वो में सम्मिलित होने हेतु लोग विशेष रूप से भारत आते है अथवा जो जहां निवास कर रहा है, ...