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Holika - बिहार के पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड में धरहरा गांव से आरम्भ हुआ होलिका दहन पर्व ।


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संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 23-03-2021

प्राचीन कथा के अनुसार बिहार के पूर्णिया से ही होलिका के मरणोपरांत होली पर्व का आरम्भ हुआ है, पूर्णिया जिले के लोग चिता से भक्त प्रह्लाद के जीवित लौटने की खुशी में रंगो से नही राख एवं मिट्टी से होली खेलना पसंद करते हैं। होलिका दहन को छोटी होली का पर्व भी कहा जाता है। हर वर्ष होली में यहाँ होलिका दहन का विशेष आयोजन किया जाता है, जिसे देखने के लिए देश विदेश से लोग आते है। भगवान नरसिंह के प्रगट होने वाले खम्बे की घेराबंदी कर सुरक्षित रखा गया है।

सनातनी संस्कृति की आस्था का ऐतिहासिक महत्वपूर्ण स्थान बिहार के पूर्णिया जिला के बनमनखी प्रखंड मे धरहरा गांव में हिरण्यकश्यप का सिकलिगढ़ किला एवं नरसिंह अवतार का खम्बा आज भी विद्यमान है, जिसे फाड़ कर विष्णु जी ने नरसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यपु का वध किया था। जिसकी उपेक्षा पूर्णिया वासियों एवं बिहार सरकार द्वारा किया गया है। आज यह जगह जीर्ण-शीर्ण पड़ा हुआ है, इस जगह को आज तक बिहार सरकार पर्यटन स्थल भी घोषित नहीं कर पायी है। सभी के अथक प्रयास से भगवान विष्णु का एक भव्य मंदिर बनाया गया है।

विष्णु पुराण में वर्णित कथा अनुसार दैत्यों के आदिपुरुष कश्यप एवं उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र हिरण्यकश्यप एवं हिरण्याक्ष कठोर साधक एवं अतिमहत्वाकांक्षी दैत्य थे, हिरण्यकश्यप ने कठिन तपस्या के बल पर ब्रह्मा को प्रसन्न करके वरदान प्राप्त कर लिया कि वह न किसी मनुष्य द्वारा, न पशु द्वारा, न दिन में, न रात में,  न घर के अंदर, न घर के बाहर, न किसी अस्त्र से, न किसी शस्त्र के प्रहार से उसको मारा जा सकेगा।

वरदान प्राप्ति के बाद उसका अहंकार चरम पर आ गया एवं वह खुद को अमर समझने लगा। उसने इंद्र का राज्य छीना एवं तीनों लोकों को प्रताड़ित करने लगा। उसकी इच्छा थी कि सब लोग उसे ही भगवान मानें एवं उसका ही पूजन करें। उसने राज्य में दैव पूजित विष्णु जी के पूजन को वर्जित कर दिया था। कालांतर मे उसका वध विष्णु के नृसिंह अवतारी द्वारा ही हुआ एवं उसका छोटा भाई हिरण्याक्ष का वध विष्णु के वाराह अवतारी ने किया।

हर सनातनी को ज्ञात है कि दैत्यराज हिरण्यकश्यप विष्णु जी को अपना शत्रु मानते थे, इसके विपरीत उनका पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु के परम भक्त हुआ, प्रह्लाद को विष्णु जी की भक्ति से रोकने का काफी प्रयास किया लेकिन प्रह्लाद की भक्ति मे कमी न होते देख हिरण्यकश्यप प्रह्लाद को नाना प्रकार की यातनाएं देने लगा। जैसे प्रह्लाद को पहाड़ से नीचे गिराया, हाथी के पैरों से कुचलने की कोशिश की एवं अंत मे बहन होलिका की मदद से अग्नि में भस्म करने की कोशिश की, परंतु हर प्रयास विफल रहा।

होली पर्व मनाए जाने के पीछे कथा है कि अपने भाई हिरण्यकश्यप के आदेश से प्रह्लाद की बुआ होलिका, भतीजे प्रहलाद को गोद में लेकर जलती हुई अग्नि में बैठी थी, जिसमें से भक्त प्रह्लाद तो जीवित लौटे, किन्तु उनकी बुआ होलिका उसी अग्नि में जलकर भस्म हो गयी थी। ब्रह्मा जी के आशीर्वाद से बुआ होलिका को एक चुनरी मिली थी, जिसमे विशेषता थी उसे ओढ़कर जो भी अग्नि मे जाएगा, उसे अग्नि से कोई हानि नहीं हो सकती थी, परंतु विधि का विधान तो ईश्वर ही जानता है, मानव में ऐसी शक्ति कहाँ ?

माया का चक्र कुछ ऐसा चला कि जिस चुनरी को ओढ़कर होलिका ने अग्नि मे प्रवेश ही किया था, वही चुनरी हवा के तेज़ झोंके से भक्त प्रह्लाद पर आ गयी, जिसके प्रभाव से होलिका तो भस्म हुई, भक्त प्रह्लाद का रोयाँ भी न जला, तभी से बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक रूपी होली पर्व मनाया जाने लगा।  जिसका अर्थ होता है सत्य निष्ठा के मार्ग पर रहने वालों का बाल भी बाँका नही होता, पर अधर्म एवं अन्याय का साथ देने वाला भी होलिका समान नष्ट हो जाता है।

इसके उपरांत हिरण्यकशिपु ने अंतिम प्रयास में लोहे के खंभे को गर्म एवं लाल कर प्रह्लाद को उस खंभे को गले लगाने को कहा, भक्ति परीक्षा के पहले ही भगवान विष्णु खंभे से नरसिंह अवतार रूप में प्रकट हुए एवं हिरण्यकशिपु को महल के प्रवेश द्वार की चौखट पर अपने लंबे तेज़ नाखूनों से चीर भयानक अंत कर दिया। इस प्रकार हिरण्यकश्यप अनेक वरदानों के बावजूद अपने दुष्कर्मों के कारण न घर के भीतर, न घर के बाहर, गोधूलि बेला में यानि न दिन था न रात, न नर था न पशु अर्थात आधा मनुष्य, आधा पशु, न अस्त्र था, न शस्त्र था यानि अपने लंबे तेज़ नाखूनों से मार गिराया था।

जिस खम्बे से भगवान ने अवतार लिया वह खम्बा आज भी पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के धरहरा में मौजूद है। यह घटना जहां चरित्रार्थ हुई थी, वह स्थल बिहार के पूर्णिया जिले के सिकलीगढ़ में 'धरहरा' के नामक गांव को माना जाता है।  प्राचीन काल में धरहरा गांव 400 एकड़ में फैला एक टीला था, जो अब सिमटकर 100 एकड़ रह गया है। होलिका दहन के साक्ष्य रूप यहां झुका हुआ स्तंभ खड़ा हैं।

जिसे स्तुति भागवत पुराण (सप्तम स्कंध के अष्टम अध्याय) में माणिक्य स्तंभ कहा गया है। इसी (स्तंभ) खंभे से भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार हुआ था, कालांतर में जिन्होने दैत्यराज हिरण्यकश्यप से अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी। माणिक्य स्तंभ जमीन की सतह से करीब 10 फुट ऊंचा एवं 12  फुट मोटा व्यास एवं करीब 65 डिग्री पर झुका हुआ लाल ग्रेनाइट से बना हुआ स्तंभ है। विदेशी आक्रांताओ द्वारा कई बार इस (स्तंभ) खंभे को तोड़ने का प्रयास किया गया है लेकिन यह टूट न सका, परंतु कई बार के प्रहारों से खंडित हो गया हैं। इस स्तंभ का आगे का हिस्सा ध्वस्त है।

पौराणिक मान्यता है कि 'धरहरा' गांव के पास ही एक हिरन नामक नदी बहती थी, जो अभी विलुप्त हो चुकी है, गांव के लोग माणिक्य स्तंभ को हिरन नदी से जुड़ा मानते हुए माणिक्य स्तंभ के बिल में सिक्का या पैसा डालते थे, जिससे छप-छप की ध्वनि का नाद होता है। 'धरहरा' गांव मे ऐसी मान्यता है कि जो भी स्तंभ में डाला जाता है, वो सीधे नदी में पहुँच जाता है। ऐसी धारणा है कि माणिक्य स्तंभ उस चौखट का हिस्सा है, जहां राजा हिरण्यकश्यप का वध हुआ।

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