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Holashtak - पर्व प्रतीक होलाष्टक, विज्ञान का अनुठा प्रयोग।


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संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 22-03-2021

सनातनी संस्कृति में कुछ अतिमहत्वपूर्ण त्योहार एवं पर्व है, जिन्हें विश्व ख्याति प्राप्त है, जिसे स्मरण एवं उन पर्वो में सम्मिलित होने हेतु लोग विशेष रूप से भारत आते है अथवा जो जहां निवास कर रहा है, वह वहां पर ही सनातनी व्यवस्थाओं के अनुरूप उन पर्वो का आनन्द लेते हैं। ऐसा ही एक बड़ा पर्व है होली, जिसे रंगो को त्योहार कहा जाता है। होली पर्व केवल होली की तिथि से ही प्रारम्भ नही होता है, यह पर्व आठ दिन पहले से ही आरम्भ हो जाता है, जिसे होलाष्टक के नाम से जाना जाता है। होलाष्टक दो शब्दों से मिलकर बना है - होली एवं अष्टक। होलाष्टक काल मे कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है। जिसका मूल तात्पर्य होली पर्व से आठ दिन पहले से ही अपने पाप कर्मों, मलिन विचारों एवं अशुद्धता व दोषों को घर से बाहर निकालना आरम्भ करना है, जिससे होली पर्व तक तन, मन एवं आत्मा की पूर्ण शुद्धता को प्राप्त किया जा सके। होलाष्टक फाल्गुन मास शुक्ल पक्ष की अष्टमी से आरंभ होकर पूर्णिमा के दिन समाप्त होती है एवं उस तिथि को ही होलिका दहन होता है एवं अगले दिन होली पर्व को धूमधाम से रंग बिरंगे रंगों के साथ खेलते हुए मनाया जाता है।

होलाष्टक काल मात्र एक पर्व प्रतीक ही नहीं है, बल्कि विज्ञान का अनुठा प्रयोग भी है, जिसमें प्रकृति की शुद्धता को बढ़ावा देना एवं हरे-भरे पेड़ों को न काटकर, प्रकृति प्रदत्त निष्प्रयोज्य वनस्पतियों को उपयोग में लिए जाने का संदेश भी निहित है। सनातनी पराम्पराओं में होलाष्टक तिथि को प्रत्येक चौराहों पर अरण्डी के 2 डंडे स्थापित किये जाते हैं, जो अंडा पेड़ नाम से जाना जाता है। इस परंपरा को डाड़ गाड़नाष् भी कहा जाता है। इसी जगह पर होलिका दहन तक निष्प्रयोज्य वनस्पतियां, सूखी लकड़ियां, सूखी पत्तियां, बेकार लकड़ी के फर्नीचरो को एकत्रित करने का सिलसिला शुरू होता है। इसके पीछे वैज्ञानिक तथ्य भी है कि अरण्डी के पौधो सहित निष्प्रयोज्य वनस्पतियो के दहन से वातावरण की हवा को शुद्ध करने का काम किया जाता है। पुराने समय से ही होलाष्टक काल से अरण्डी पेड़ गाड़े जाने के बाद से होलिका दहन करने की तिथि तक पेड़ की गिर चुकी सूखी लकड़ियां, टहनियां एवं घर के कबाड़ की बेकार लकड़ियों को होलिका दहन स्थल पर एकत्रित कर प्रकृति उपयोग में लिया जाता है।

वैज्ञानिक शोध के अनुसार ढेर सारी लकड़ियाॅ, बाॅस एवं अरण्डी के पौधे, उसके बीज एवं सुखी पत्तियों से होलिका दहन के पश्चात वातावरण से हानिकारक जीवाणु एवं विषाणु समाप्त हो जाते है। मात्र अरण्डी के पौधे एवं बीज के दहन से ही वातावरण में व्याप्त चिकन पाॅक्स के कीटाणु स्वतः ही नष्ट होते हैं एवं यदि यह बीमारी की सम्भावना बन रही हो, तो अरण्डी के दहन से चिकन पाॅक्स लार्वा समाप्त हो जाते है। मात्र अरण्डी के पौधे एवं फल व बीज से संक्रामक रोगों के कीटाणुओं का खात्मा हो जाता है। बाॅस एवं लकड़ियो का धुॅआ भी अन्य प्रकार के हानिकारक लार्वा को मारने का काम करता है एवं हवा में फैलने वाले प्रदुषित बैक्टीरिया भी नष्ट होते है। बहुतायत मात्रा में पाए जाने वाले अरंडी पेड़ को एकत्रित कर जलाने से हवा में फैल रहे विषैले कीटाणुओं, मच्छरो का खात्मा होता है एवं दूषित पर्यावरण की शुद्धि होती है।

शास्त्रानुसार सनातनी परम्पराओं में होलाष्टक तिथि को प्रत्येक चौराहों पर अरण्डी के 2 डंडे को होलिका तथा प्रह्लाद का प्रतीक मानते हुए स्थापित जाता है एवं होलाष्टक काल को भक्त प्रह्लाद के उत्पीड़न को दर्शाया जाता है। होलाष्टक तिथि से ही होली पर्व की शुरुआत हो जाती है। होलिका स्थापन के पश्चात से ही सभी शुभ कार्य वर्जित हो जाते है एवं होली पर्व हो जाने के आठ दिनों बाद ही फिर से शुभ कार्य आरम्भ होते है। इसके पीछे भी स्वास्थ्य एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से वातावरण में नकारात्मक ऊर्जा का संचार सक्रिय रहता है। सौरमंडल में स्थापित कुछ ग्रह स्वभाव से विपरीत कार्य करते है, जिनकी कम ऊर्जा के प्रभाव से तन एवं मन में थकावट एवं सकारात्मकता का अभाव महसूस किया जा सकता है। ये आठ दिन वास्तव में अप्रभेद्य, अशुभ एवं अप्राप्य है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार होलाष्टक काल में नकारात्मक ऊर्जाएं वातावरण में प्रवेश करती हैं। इसलिए तांत्रिक क्रियाए एवं टोने-टोटके एवं तांत्रिक विद्या की साधना इस अवधि में अत्यधिक सफल होती है। इन दिनों में शुभ समारोह निषिद्ध हैं क्योंकि इस अवधि में सूर्य एवं चंद्र सहित सभी ग्रह हानिकारक स्थिति में होते हैं। वैदिक ज्योतिष के अनुसार इन आठ दिनों में ग्रहों की स्थिति एक तरह से स्थाई नकारात्मक प्रभाव की ओर आकर्षित रहती है। इस अवधि के दौरान नकारात्मक ऊर्जा अत्यधिक हानिकारक होती हैं। होलाष्टक काल प्रतिकूल अवधि काल होने के कारण से यज्ञ, हवन, विवाह एवं जनेऊ समारोह आदि जैसे सभी भाग्यप्रद कार्यों को भी निषेध मानते है।

धर्मशास्त्रों में वर्णित 16 संस्कार जैसे- गर्भाधान, विवाह, पुंसवन (गर्भाधान के तीसरे माह किया जाने वाला संस्कार) नामकरण, चूड़ाकरण, विद्यारंभ, गृह प्रवेश, गृह शांति, हवन-यज्ञ इत्यादि कर्म नहीं किए जाते। होलाष्टक काल में शुरु किए गए कार्यों से कष्ट प्राप्ति, विवाह संपादित कराने से आपसी संबन्ध खंडित अथवा संबंध मे आजीवन अस्थिरता, घर में नकारात्मकता, अशांति, दुःख एवं क्लेष का वातावरण रहता है।

होलाष्टक से जुड़े महत्वपूर्ण ध्यानाकर्षक बिन्दु -

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