संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 16-03-2021
इस धरा पर प्रत्येक जीव जन्मता है और मृत भी हो जाता है, यू ही यह जगत चक्र अपने क्रम से चल रहा है। सभी जीव एक ही प्रेरणा और लक्ष्य के साथ गर्भ मे आते हैं, जीवन प्राप्त करना ही उनका ध्येय होता है। सभी जीव अपने गंतव्य तक पहुचने के लिए गर्भकाल मे ही संघर्ष भी करते हैं। हर बांधा, हर मुसीबत, हर प्रतिद्वंद्विता से आगे बढ़ गंतव्य को लक्ष्य बना जीव जगत को प्राप्त करते है।
कुछ जीव जन्म ही नहीं ले पाते, गर्भ में ही नष्ट हो जाते हैं, कुछ जीव पैदा होकर जीवित नहीं रह पाते हैं, कुछ जीव जीवन चक्र के पहले वर्ष में ही काल का ग्रास होते हैं, कुछ जीव कुपोषण से मृत होते हैं, कुछ जीव अपनी वयस्क आयु भी नहीं देख पाते हैं। अर्थात जन्म-मृत्यु सर्वव्यापी और सर्वसाक्षी है, पृथ्वी पर जन्मा प्रत्येक मानव मृत्यु से परिचित हैं।
मनुष्य के लिए मृत्यु उपरांत शरीर को नष्ट करना, उतना ही आवश्यक है, जितना धरती पर जन्म लेना। मृत्यु उपरांत शरीर को नष्ट करने का प्रत्येक पंथ और संप्रदाय मे विधि विधान बना हुआ है। कुछ पंथ और संप्रदाय मे मृत शरीर को नदी मे प्रवाहित करने, कुछ पंथ और संप्रदाय मे भूमि मे दबाने और कुछ पंथ और संप्रदाय मे मृत शरीर को जलाए जाने का प्रविधान है।
सनातन संस्कृति मे अंतिम संस्कार को विधि विधान से किया जाना अति आवश्यक हैं, मृतक को नदी मे प्रवाहित भी करते है, भूमि मे दबाते भी है और जलाए जाने का भी प्रविधान है, परंतु प्रत्येक अन्त्येष्टि कर्म मे प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक नियामकों के अनुरूप विधि विधान स्थापित किए गए है। कब प्रवाहित करना है, कब भूमिगत करना है और कब जलाया जाए...? सभी अन्त्येष्टि कर्म मे सनातनी प्रविधान है।
गरुण पुराण के अनुसार मनुष्य का अंतिम संस्कार करना आवश्यक है क्योकि अन्त्येष्टि संस्कार के बाद ही आत्मा को शरीर के बंधनो से मुक्ति मिलती है। सनातन परम्परानुसार जीवन चक्र मे मनुष्य के जन्म से मृत्यु तक सोलह संस्कार बताए गए हैं, जिन्हे षोडश संस्कार कहा जाता है, लेकिन अन्त्येष्टि संस्कार को मृत्यु के कारणो के अनुसार वर्गीकरण किया हुआ है। जब किसी मनुष्य की मृत्यु दुर्घटना में होती है और उनका पार्थिव शरीर प्राप्त नही होता हैं, तो उस पार्थिव शरीर का अन्त्येष्टि संस्कार नही हो सकता है, लेकिन जब मनुष्य की मृत्यु समान्य होती है, तो उसे जलाया जाता हैं। पार्थिव शरीर को जलाए जाने के पीछे तर्क है कि जीवात्मा को शरीर से अपार मोह होता है और मृत्यु उपरांत आत्मा बार-बार मृत शरीर में प्रवेश करने की कोशिश करती है, जिसे शरीर से मुक्ति दिलाने हेतु जला दिया जाता हैं।
सनातन संस्कृति मे 2 साल से छोटे मृत बच्चे को जलाया नही जाता है, उन्हे भूमि मे दबा दिया जाता है। इसके पीछे बहुत ही महत्वपूर्ण अध्यात्मिक और वैज्ञानिक तथ्य है, जिसका संज्ञान प्रत्येक सनातनी को होना चाहिए। समान्यतः सनातनी परम्परा मे सिद्ध महात्माओ, साधु-संतों और दैव तुल्य लोगो की समाधियां बनाई जाती है, ठीक उसी प्रकार 2 साल से छोटे मृत बच्चे की मृत्यु होने पर पार्थिव शरीर को गड्ढा खोद कर दबाया जाता हैं, तो उसे भी समाधि बनाया जाना ही कहते हैं। समान्यतः 2 साल से छोटे मृत बच्चे, मृत सिद्ध महात्माओ, मृत साधु-संतों की समाधियां बनाई जाती है।
सिद्ध महात्माओ, साधु-संतों और दैव तुल्य लोगो सांसारिक मोह माया से अपने जीवन काल में ही मुक्त हो जाते हैं और उनकी आत्मा परमात्मा के करीब हो जाती है, जिससे उनमें सर्वाधिक मानवीय गुण विद्यमान होते हैं। आम लोगों की अपेक्षा साधु-संत ईश्वर के ज्यादा करीब होते हैं। उसी प्रकार छोटे बच्चे भी भगवान के रूप होते हैं, उनका तन मन और आत्मा पूर्ण रूप से शुद्ध और पवित्र होती है। छोटे बच्चो मे किसी भी तरह का कोई सांसारिक मोह-माया नहीं होता है। बच्चे किसी भी भौतिक अथवा सांसारिक वस्तुओं से बिलकुल अलग-विलग रहते है अर्थात साधु सन्यासी और तपस्वी की तरह बच्चे भी परम शुद्ध अवस्था में होते हैं। इन्ही कारणो से मृत बच्चों के शव को दफनाकर साधू सन्यासी और तपस्वी की तरह समाधि दे दी जाती है।
वैज्ञानिक तथ्यानुसार छोटे बच्चों की हड्डियां बहुत ज्यादा कमजोर और कोमल होती हैं, जिन्हे प्रकृति मे विलय होने मे मात्र छः माह से एक वर्ष का समय लगता है, अर्थात उनकी अस्थियाँ जल्दी ही गल जाती हैं, इसलिये उनके पार्थिव को किसी तालाब, नदी, पोखर के आस-पास समाधि दी जाती है।
शास्त्रानुसार जब किसी छोटे बच्चे के शव को समाधि दी जाए, तो उस स्थल को घर-परिवार के लोग गोबर से लीपकर वहां एक तुलसी का पौधा लगा देने से नवजात मृत शिशु की आत्मा को शांति मिलती है। इस प्रकार एक नवजीवन की समाप्ति के बाद ही पेड़ या पौधा लगाए जाने से प्रकृति मे वनस्पति के रूप मे जीवन चक्र नए रूप मे परिवर्तित हो जाता है। यही है सनातनी संस्कार जो जीवन के साथ तो है ही, मृत्यु के बाद भी साथ रहती है।
सनातन संस्कृति विश्व की सबसे पुरानी संस्कृतियो में से एक है, जिसका इतिहास 1500 ईसा पूर्व का है। सनातनी सस्कृति जीवन का एक तरीका अथवा संस्कार है, जिसे धर्म नही कहा जा सकता है, क्योकि ...
भारत के ऐतिहासिक मन्दिरों में से दक्षिणेश्वर मंदिर एक हैं और सांस्कृतिक धार्मिक तीर्थ स्थलों में माँ काली का मंदिर सबसे प्राचीन माना जाता है। मुख्य मंदिर के पास अन्य तीर्थ स्थलों के दर्शन के ...
रामकृष्ण परमहंस की जयंती - सानंतनी पंचांग अनुसार प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल पक्ष द्वितीया को रामकृष्ण परमहंस का जन्मदिन अर्थात जयंती मनाई जाती है। श्री रामकृष्ण परमहंस महान विचारक सन्त थे, जिन्होंने सनातनी संस्कृति के अतिरिक्त ...