संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 15-03-2021
सनातन संस्कृति विश्व की सबसे पुरानी संस्कृतियो में से एक है, जिसका इतिहास 1500 ईसा पूर्व का है। सनातनी सस्कृति जीवन का एक तरीका अथवा संस्कार है, जिसे धर्म नही कहा जा सकता है, क्योकि यह प्रकृति संरक्षण के नियमों पर आधारित एक परम्परा है और इसमें अलग-अलग पंथ और विचार समाहित है। सनातनी संस्कृति का कोई संस्थापक नही है, इस संस्कृति का स्थापन नहीं हुआ, इसका प्रकृति और जीवन के संयोग से सृजन हुआ और यह कई परम्पराओ और दर्शनों का समूह है। जहां सभी पंथ और विचार को समाहित कर लेने की अद्वितीय क्षमता है।
मान्यता है कि विश्व के 90% धर्मो की जननी सनातन संस्कृति है। विश्व की सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक संस्कृत भाषा सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है। वैश्विक स्तर पर ज्यादातर भाषाविद इसे विश्व की बोले जाने वाली सभी भाषाओं की जननी मानते हैं। वैज्ञानिको द्वारा यह भी सिद्ध हो चुका है कि संस्कृत कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है और भविष्य उपयोगी है। अंतरिक्ष में भी भेजे जाने वाली सबसे तीक्ष्ण तरंगे संस्कृत की ही मानी जा रही है।
सनातन संस्कृति की मूल भाषा संस्कृत है, जिसके शास्त्रों में वैदिक मंत्र विज्ञान के धरातल पर खड़े होकर ना सिर्फ भारत बल्कि पूरे विश्व को अपना लोहा मनवा रहे हैं। वैदिक स्थापित मंत्रो के उच्चारण करने का अपना ही एक प्रभाव होता है। वैदिक मंत्रो से आत्म की शुद्धि के साथ वातावरणीय शुद्धिकरण भी मिलती है। सनातन संस्कृति में युगों-युगों से मंत्रो का जप एकल और समूहों में किया जाता है। घर घर में पूजन विधि के माध्यम से मन्त्र जप किया जाता हैं। जब-जब मंगल कार्य या शुभ संस्कार किये जाते हैं, तब-तब स्वस्तिवाचन अनिवार्य रूप से किया जाता हैं।
मनुष्य का शरीर पांच तत्वों (आकाश-वायु-अग्नि-जल-पृथ्वी) से मिलकर बना है। दैनिक कार्यो में इन्ही तत्वों को संतुलित रखने के लिये वैदिक मंत्रो की भी सहभागिता ली गई है। जिसमे स्वस्तिवाचन सर्वोपरि है, स्वस्तिवाचन तीन शब्दों से मिलकर बना है सु+अस्ति+वाचन। जिनका अर्थ है - सु=अच्छा, अस्ति=है, वाचन=वचन। अर्थात ऐसा वाचन (कथन) जिससे सभी की उन्नति और कल्याण किया जाना संभव हो, उसे ही स्वस्तिवाचन का सम्बोधन प्राप्त है।
स्वस्तिवाचन क्रिया में पूरे ब्रह्मांड का हित छिपा हैं, जिसका अर्थ सभी जनमानस, जीव-जंतुओं, वन वनस्पतियों का कल्याण हो। वैदिक मंत्रो को उनके प्रभाव के अनुसार उन्ही प्रभावों और लक्षणो से युक्त देवी देवताओ को समर्पित किया हुआ है। ठीक उसी प्रकार से स्वस्तिवाचन का सम्बंध बुद्धि, विद्या, विवेक और एकाग्रता के देवता भगवान गणेश से माना जाता है। सनातन संस्कृति में भगवान गणेश के आवाहन के बिना कोई भी शुभ कार्य (जैसे – जन्मोत्सव, नामांकंरण, मुंडन, विवाह, गृह प्रवेश या व्यापार, अनुष्ठान, यज्ञ आदि।) की पूर्णता नहीं होती है। श्रीगणेश का अर्थ ही माना जाता है कि जिस भी कार्य को आरम्भ किया जा रहा है, वो विधिवत सकुशल सम्पन्न हो और उस कार्य से सुख सम्रद्धि व उन्नति प्राप्त हो। गाय के गोबर अथवा मिट्टी अथवा सुपारी को मौली से बाँधकर फूल इत्यादि से सुसज्जित करते हुए भगवान गणेश के रूप मे साक्षी मानते हुए मंत्रो के समूह का उच्चारण करते हुए देव देवियो का आवाहन किया जाता है। स्वस्तिवाचन क्रिया से विद्या प्राप्ति और तीव्र स्मरण-शक्ति पाई जा सकती है। ठीक इसी प्रकार से बुद्धि के सागर और शुभ गुणों के संग्रह गणेशजी का स्मरण करने से ही समस्त सिद्धियां प्राप्त हो जाती हैं।
योगशास्त्र के अनुसार मनुष्य के शरीर में छ: चक्र होते हैं। इनमें सबसे पहला चक्र है ‘मूलाधार चक्र’ है जिसके देवता हैं—श्री गणेश। प्रत्येक मनुष्य के शरीर में रीढ़ की हड्डी के मूल में गुदा से दो अंगुल ऊपर मूलाधार चक्र है। इसमें सम्पूर्ण जीवन की शक्ति अव्यक्त रूप में रहती है। इसी चक्र के मध्य में चार कोणों वाली आधारपीठ है, जिस पर श्रीगणेश विराजमान हैं। यह ‘गणेश चक्र’ कहलाता है, इसी के ऊपर कुण्डलिनी शक्ति सोयी रहती है। श्रीगणेश का ध्यान और स्वस्तिवाचन क्रिया एक साथ करने मात्र से ही कुण्डलिनी जग कर (प्रबुद्ध होकर) स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध एवं आज्ञा चक्र में प्रविष्ट होकर सहस्त्रार चक्र में परमशिव के साथ जा मिलती है जिसका अर्थ है सिद्धियों की प्राप्ति। अत: मूलाधार के जाग्रत होने का फल है असाधारण प्रतिभा की प्राप्ति।
इस प्रकार स्वस्तिवाचन क्रिया के साथ गणेश जी की आकृति का ध्यान करने से मूलाधार की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। ध्यान योग के द्वारा योगियों को इसका दर्शन होता है। स्वस्तिवाचन क्रिया सहित श्रीगणेश का ध्यान करने से भ्रमित मनुष्य को सुमति और विवेक का वरदान मिलता है और श्रीगणेश का गुणगान करने से सरस्वती प्रसन्न होती हैं।
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