संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 15-03-2021
रामकृष्ण परमहंस की जयंती - सानंतनी पंचांग अनुसार प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ल पक्ष द्वितीया को रामकृष्ण परमहंस का जन्मदिन अर्थात जयंती मनाई जाती है। श्री रामकृष्ण परमहंस महान विचारक सन्त थे, जिन्होंने सनातनी संस्कृति के अतिरिक्त भी अन्य पंथो और सम्प्रदायो की धार्मिकता एवं आध्यत्मिकता के धरातल पर अध्ययन, मनन, चिन्तन किया था और उन्होने प्रमुख रूप से एक ही बात कही कि सभी धर्म की अपनी अपनी महत्ता है और सभी धार्मिकजन अपने.अपने साधनों से भक्ति मार्ग के द्वारा ईश्वर के पास पहुँचते हैं।
संत रामकृष्ण परमहंस का जन्म 18 फ़रवरी 1836 ई0 को बंगाल प्रांत के कामारपुकुर ग्राम में हुआ था। इनके पिताजी श्री खुदीराम एक गरीब ब्राह्मण थे और माताजी चन्द्रा देवी ग्रहणी थी और इनके बचपन का नाम गदाधर था। गदाधर के माता.पिता बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। अपने दो बड़े भाईयो मे सबसे छोटे थे। किवदंती है कि गदाधर के पिता को स्वप्न में गदा धारण किए हुए विष्णु जी ने स्वप्न मे बताया कि मैं तुम्हारे घर मे जन्म लूंगा और अकस्मात ही एक दिन गदाधर की माता को शिव मन्दिर में ऐसा प्रतीत हुआ कि शिव की प्रतिमा से तीव्र रोशनी सी निकलकर उनके गर्भ में समा गयी। इस घटना के बाद प्रसव माह पूर्ण होने के पश्चात गदाधर का जन्म हुआ था। गदाधर की अल्पायु में ही पिता का देहान्त होने से घर आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय हो गयी थी। गदाधर के बड़े भाई रामकुमार उस समय कोलकाता में शिक्षक थे और सेवा के पश्चात दक्षिणेश्वर काली मंदिर में पुजारी के रूप में भी अपनी सेवा देते थे। बालक गदाधर अपनी माता सहित कोलकाता में बड़े भाई रामकुमार के पास आ गये। शिक्षा पद्धति परमहंस के समझ नही आयी, लाख जतन के बाद भी उन्हें किताबों का ज्ञान रहस्य नही आया।
गदाधर शिक्षा में बेहद कमजोर रहे, उनको किताबों का ज्ञान दिलाये जाने का अथक प्रयास उनके बड़े भाई द्वारा किया गया, किन्तु गदाधर लाख जतन के बाद भी किताबों का ज्ञान रहस्य नही समझ आया। गदाधर किसी भी भाषा को लिखने पढ़ने में अक्षम ही रहे, ना उन्हे हिन्दी ही अच्छे से आयी, ना बंगाली और ना ही संस्कृत ही समझ आयी। अन्त में थक-हारकर बड़े भाई ने गदाधर को रानी रासमणि द्वारा बनवाये गये दक्षिणेश्वर काली मंदिर माता काली को सजाने का काम सौप दिया, जिसे गदाधर बहुत ही तल्लीनता से करने लगे और अकस्मात ही १८५६ में उनके बड़े भाई रामकुमार का भी देहान्त हो गया, उनकी मृत्यु के उपरान्त गदाधर को उनकी माता काली के प्रति भक्ति और समर्पण भाव को देखते हुए मंदिर में पुरोहित के तौर पर नियुक्त कर दिया गया।
बड़े भाई के स्वर्गवासी होने के बाद गदाधर जी का मन सिर्फ माँ काली के ध्यान में लीन हो गया और माँ के ध्यान में इतने मग्न होने लगे कि उन्हें आंख बंद करते ही सिर्फ माँ काली ही दिखती थी। जिसके सम्बन्ध में अनेक कथानक प्रचलित है। माता काली की भक्ति में ऐसा लीन हुये कि उनके लिये घर, द्वार, मंदिर और संसारिक जगत की सभी सुख सुविधाऐ उनके लिये जैसे सब कुछ अदृश्य होता चला गया, उनके लिये मानो जैसे कहीं कुछ था ही नहीं! और धीरे धीरे वे लोगो से कहने भी लग गये मैंने एक अन्नत तट विहीन सागर को देखा, यह सागर चेतना का सागर था, दूर दूर तक जिस भी दिशा में मैंने जहाँ भी देखा, बस उज्जवल लहरें ही दिखाई दे रही थी, जो एक के बाद एक, मेरी तरफ आ रही थी। स्थानीय लोग गदाधर को मनगढ़त बात बनाने या बेसिर पैर की बाते करने वाला घोषित करने लग गये थे। लेकिन गदाधर अपनी साधना के चरम सीमा को महसूस कर परम आंनद का स्वाद चख रहे, जिसे लोग उनका मानसिक असंतुलन बता रहे थे। गदाधर का असंतुलित बरताव देख उनकी माता जी भी विचलित होने लगी, उन्हे अपने बच्चे की स्थिति देख-देख कर बच्चें की चिंता उन्हे दिनरात सताने लगी और एक दिन उनकी माता जी का सब्र का बाँध टूटने लगा, तब गदाधर की माता जी ने अपने बड़े बेटे रामेश्वर की सलाह से उनके लिये एक ब्राम्हण सुयोग्य कन्या शारदामणि को ढुढ़कर उनका विवाह करा दिया गया।
विवाह के सम्बन्ध में आश्चर्यजनक घटना यह थी कि गदाधर जी ने अपने ध्यान के माध्यम से माता जी बताया कि वे उनके लिए कन्या ढुढ़ने कामारपुकुर से ३ मिल दूर उत्तर पूर्व की दिशा में जयराम बाटी ग्राम में श्री रामचन्द्र मुख़र्जी के घर पर जाये। माता जी को लगा कि शायद वह कन्या को जानता है, इसलिये उन्होने बिना ज्यादा खोजबीन किये ही जयरामबादी रामचन्द्र मुख़र्जी के घर पहुच गयी और शारदामणि मुखोपाध्याय से वर्ष 1859 ई0 में विवाह सकुशल सम्पन्न हुआ। विवाह के समय गदाधर जी की उम्र २३ वर्ष और शारदामणि मुखोपाध्याय की 05 वर्ष ही थी। गदाधर और शारदामणि की उम्र में बड़ा अन्तर होने के कारण विवाह के बाद भी शारदा जी अपने मायके जयरामबाटी में रहती थी और १८ वर्ष के होने के पश्चात गदाधर के पास दक्षिणेश्वर में रहने लगी। तब तक गदाधर की पहचान सन्त के रूप में हो चुकी थी। रामकृष्ण परमहंस कभी भी ग्रहस्थ आश्रम में नही रहे, विवाह सिर्फ उनके लिये मात्र एक सामाजिक औपचारिकता थी।
अपनी पति गदाधर जी के मन की बात जानने के लिये शारदामणि जी ने एक बार सवाल पूछा कि मैं आपके लिये कौन हूं? परमहंस ने बड़े ही सरलता से उत्तर दिया कि तुम मेरे लिये बिलकूल मां जैसी हो, जैसे मां काली मेरा ख्याल रखती हैं ठीक वैसे ही तुम भी मेरा ख्याल रखती हो। जिसके बाद शारदामणि का मन ही बदल गया, वे भी परमहंस का माॅ के समान ही ख्याल रखने लगी और परमहंस के समान भक्ति और माॅ काली के प्रेम रस में डुबती चली गयी।
इस बीच परमहंस की साधना, तपस्या से लोग प्रभावित होकर दूर दूर से उनके पास आने लगे और लोगो का उद्देश्य सिर्फ राम कृष्ण परमहंस और शारदा माॅ के दर्शन करना होता था, धीरे-धीरे राम कृष्ण परमहंस और शारदा माॅ की ख्याति के साथ साथ ही दक्षिणेश्वर काली मन्दिर की ख्याति भी बढ़ने लगी। इसी मध्य भैरवी नामक ब्राह्मणी का आगमन दक्षिणेश्वर मन्दिर में हुआ, उन्होंने अपनी तंत्र पद्धति की पूर्ण शिक्षा रामकृष्ण परमहंस को सौप दी और तोतापुरी महाराज से अद्वैत वेदान्त की ज्ञान का लाभ लेकर जीवन्मुक्त की अवस्था को प्राप्त किया।
ज्ञान मार्ग पर चलते हुए गदाधर ने सन्यास का रास्ता चुना और ग्रहस्थ नाम को भी त्याग कर नये नामांकरण श्री रामकृष्ण परमहंस के साथ आगे बढ़ गये। ईस्लाम व क्रिश्चियन सम्प्रदाय और धर्म को जानने के लिये परमहंस ने इन दोनो सम्प्रदाय के अनुसार ही साधना की और इन दोनो धर्मो को भी स्वीकार किया और उनको जाना और समझा। आगे चल कर उनको स्वामी विवेकानंद जैसा होनहार शिष्य भी मिला, जिसको उन्होने जनसेवा की प्रेरणा दी और सन्यास पथ पर चलने के साथ ही उसी दिशा में चलने को प्रेरित भी किया।
श्रीरामकृष्ण परमहंस के अंतिम समय तक स्वामीविवेकानंद ने उनकी सेवा की थी। गले में कैंसर के कारण परमहंस जी की तबीयत ठीक नही रहती थी और सन् 1886 ईण् में श्रावणी पूर्णिमा के अगले दिन प्रतिपदा को प्रातःकाल रामकृष्ण परमहंस ने अपनी देह त्याग कर सदा के लिये परमात्मा में विलीन हो गये।
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