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Kharmas -खरमास के पीछे का संस्कारिक अर्थ और वैज्ञानिक रहस्य


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संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 12-03-2021

खरमास का आरम्भ 14 मार्च 2021 की शाम 6 बजकर 4 मिनट से और 14 अप्रैल 2021 की सुबह 2 बजकर 33 मिनट तक समापन:-

सनातनी पंचांग गणनाओं के अनुसार सूर्यदेव जब मीन राशि में प्रवेश करते हैं और जब तक मीन राशि में वास करते हैं, तब तक की अवधि की गणना खरमास में की जाती है। शास़्त्रानुसार खर का तात्पर्य गधे से है। सूर्य के तेज से तीनों लोको में ऊर्जा, बल, तेज, प्रकाश रहता है और बृहस्पति की कृपा से ज्ञान, नवअवसर, और नव चेतना से सौभाग्य की वृद्धि होती है और मंगल कार्य होते रहते हैं, लेकिन सूर्य महाराज के बृहस्पति की राशियों (मीन और धनु) में भ्रमण करने से बृहस्पति द्वारा प्रदत्त ज्ञान, प्रभाव, चेतना और विस्तार सूर्य के तेजस्व के आगे शून्य हो जाते हैं। जिसे गुरु की अस्त अवस्था कही जाती है और गुरू अस्त की अवस्था में प्राचीनतम काल से ही सनातन संस्कृति में समस्त मंगल कार्य रोक दिये जाते है।

ज्योतिष विज्ञान में बृहस्पति को ही गुरु माना जाता है और गुरु के बिना कोई शुभ कार्य अधूरा ही होता है। सूर्य आत्मबल का द्योतक और बृहस्पति अध्यात्म, ज्ञान, नीति व अनुशासन के प्रवाहक है, लेकिन जब यह दोनों ग्रह एक दूसरे की राशि में परिभ्रमण करते हैं, तब इनकी शक्तियों में एक दूसरे की उपेक्षा का गुण उत्पन्न होता है। जबकि दोनों ग्रहों में बहुत सी समानताएं देखने को मिलती हैं, किन्तु दोनों ही ग्रहों में अहंकार भाव विरोधासी परिणाम देते हैं। इन्हीं तथ्यों को आधार मानते हुए ही ज्योतिष शास्त्रानुसार मनुष्य का भाग्य खरमास में साथ नहीं देता है और निर्धारित लक्ष्य में असफलताएं मिलती हैं। इसलिए मंगल व शुभ कार्य निषेध होते हैं।

खगोलीय गणनाओं में माना जाता है कि वर्ष में एक बार ऐसी खगोलीय परिस्थिति होती है कि सौरमण्डल के चुम्बकीय रेखाक्षेत्र में बृहस्पति के कण पृथ्वी की ओर काफी मात्रा में खिंचते हैं और सौर ऊर्जा के माध्यम से यह कण पृथ्वी के वायुमंडल में पहुँचते हैं, जिससे यह कण एक-दूसरे की राशि में आकर मिलते हैं, तब दोनों ही ग्रहों की अपनी अपनी किरणें आंदोलित होती हैं। इस प्रकार जब दोनों ग्रह एक दूसरे के राशि में आते हैं, तो उस समय को खरमास तथा सिंहस्थ दोष कहा जाता है, जबकि पृथ्वी से लगभग 15 करोड़ किलो मीटर दूर सूर्य और बृहस्पति लगभग 64 करोड़ किलोमीटर दूर स्थित है। बृहस्पति ग्रह की रुपरेखा सूर्य ग्रह से मिलती-जुलती है। दोनों ही ग्रह हाइड्रोजन और हीलियम गैस से बने हुये हैं। दोनों के ही केंद्र बिंदु द्रव्य से भरे हुये हैं, जबकि दूसरे अन्य ग्रहों का केंद्र ठोस से निर्मित है। सभी ग्रहों से मिलकर प्राप्त हुये भार से अकेले बृहस्पति ग्रह का भार अधिक है, इसलिए कहा जाता है कि यदि यह थोड़ा और बड़ा होता, तो दूसरा सूर्य बन गया होता अर्थात बृहस्पति भी सूर्य जैसा ही दूसरा सूर्य प्रतीत होता है।

खरमास को मलमास भी कहते हैं। जिस प्रकार से मल का त्याग कर उसकी ओर देखना भी वर्जित होता है, ठीक उसी प्रकार से मलमास में विवाह इत्यादि शुभ कार्य को वर्जित माना जाता हैं। किसी भी श्रेष्ठ कार्य में गुरू की अनुपस्थिति से उस कार्य की श्रेष्ठता शून्य हो जाती है, खरमास में भी किया गया नया कार्य उसी प्रकार से फलदायी नहीं होता हैं। गुरू की अनुपस्थिति में अभ्यास, पठन-पाठन, पूजन अर्चन इत्यादि कर्म तो किये जा सकते हैं, परन्तु कोई नव कार्य का आरंभ सम्भव नहीं हो सकता है क्योंकि जातक पथविहीन, लक्ष्यविहीन, और तथ्यविहीन हो जाता है।

खरमास या मलमास में बृहस्पति (गुरू) को साक्षी मानकर अध्ययन, वेद,पुराण व रामायण का पाठ, भगवद् भजन, दानादि पुण्य कर्म का विशेष महत्व होता है। इसीलिये सृष्टि संचालक, प्रबन्धक एवं हर युग में ज्ञान को संचारित कराने वाले भगवान विष्णु अथवा उनके अवतारों का भजन कीर्तन विशेष फलदायी हो जाता है। खरमास तीर्थ स्थलों की यात्रा का सबसे उपर्युक्त मास होता हैं, क्योंकि पवित्र यात्राओं से मानसिक शांति, नवचेतना, ज्ञान और सृजनात्मक विचार उत्पन्न हो जाते है, जो खरमास के दोष को समाप्त करते हैं।

खरमास या मलमास में तुलसी पूजन भी महत्व रखता है, क्योंकि तुलसी की नई पौध का आगमन और विस्तार का काल होता है, जिससे घर का दूषित वातारण शुद्ध होता है और तुलसी के पौधे के आगे सुबह व शाम गाय के घी का दीप जलाने से तुलसी की विस्तार की क्षमता और अधिक सशक्त हो जाती है और वह पूरे वर्ष अपनी उर्वरकता से घर में सुख शान्ति की वृद्धि करती है। ठीक इसी प्रकार खरमास में प्रतिदिन पीपल के वृक्ष की धूप दीप व अन्य पूजन सामाग्रियों से पूजा भी होती है, क्योंकि सनातन वनस्पति शास़्त्रानुसार पीपल को बृहस्पति का अंश माना जाता है और खरमास से रूष्ट गुरू को प्रसन्न किये जाने का प्रयास किया जाता है।

सनातन सभ्यता में गहरे और गूढ़ से गूढ़ तथ्यो को बड़ी ही सरलता से कथानको और उदाहरणो से शास्त्रो में सम्भालकर रखा गया है, जिससे कालान्तर में जनसामान्य सनातन संस्कृति के नियम एवं व्यवहार को सरलता से अनुसरण एवं ग्रहण कर सके। इसी क्रम में खरमास में मौलिक तथ्यो को सुरक्षित रखे जाने हेतु पौराणिक कथा की रचना सनातनी ऋषि मुनियो और विद्वानो द्वारा की गयी, जिसमें से एक कथा का सार निम्नवत् है -

मार्कण्डेय पुराण के अनुसार:- सृष्टि परिक्रमा के दौरान सूर्य को सात रश्मि रूपी घोड़ों के सहारे एक भी क्षण रुकने और धीमा होने का अधिकार नहीं है, लेकिन हेमंत ऋतु में अनवरत यात्रा से थककर सूर्य के सातों घोडे़ एक तालाब के निकट रुकते हैं ताकि थोड़ा सुस्ताकर पानी पी सकें। तत्क्षण सूर्यदेव को अपना दायित्वबोध याद आ जाता है कि वे कही भी रुक नहीं सकते, भले ही उनके घोड़े थककर रुक जाए। सृष्टि संचालन पर संकट देख सूर्यदेव तालाब के समीप खड़े दो गधों को रथ में जोतकर यात्रा को अनवरत जारी रखते हैं और वे गधे अपनी मंद गति से पूरे एक मास ब्रह्मांड की यात्रा करते रहे, जिसके प्रभाव से धरती पर सूर्य का तेज बहुत कमजोर हो जाता है। मकर संक्रांति के दिन पुनः सूर्यदेव अपने घोड़ों को रथ में जोतते हैं, जिसके बाद उनकी यात्रा में पुनः रफ्तार आने से धरती पर सूर्य का तेजोमय प्रकाश बढ़ने लगता है।

खरमास मास वास्तव में गुरूजनो को प्रसन्न किये जाने का मास होता है। इसीलिये प्रतीकात्मक रूप में बृहस्पति को गुरू रूपी आराध्य मानते हुए उनसे सम्बन्धित देवता, वनस्पतियों, प्राणियों, जीव-जन्तुओं को विशेष महत्व दिया जाता है, जो प्रकृतिगत एक वृहद संदेश है। जिसके अनुसरण मात्र से ही भाग्य बलवती होता है। सम्पन्नता, सुविचार, संस्कार और सुख शान्ति का परिवारजनो मे और सामाजिक संवृद्धि होती है। 

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