संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 08-03-2021
प्रत्येक वर्ष की महा शिवरात्रि से 2 दिन पहले ही विजया एकादशी मनाई जाती है। सनातनी शास्त्रानुसार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने स्वयं लंका पर विजय प्राप्ति के उद्देश्य से विजया एकादशी का व्रत किया था, जिसके बाद श्री राम और रावण के बीच के युद्ध का क्या परिणाम आया था, यह लगभग सभी सनातनी जानते ही होंगे। फिर भी यदि श्री राम और रावण के बीच युद्ध के बाद क्या परिणाम हुआ, ज्ञात करना हो, तो तुलसी कृत श्री रामचरित मानस अथवा वाल्मीकि रामायण से ज्ञात किया जा सकता है।
प्राचीन काल से कई निर्बल राजा और शासकों ने अपनी निश्चित हार को विजयश्री में व्रत प्रभाव से बदला है। जिन लोगों के जीवन में किसी प्रकार के शत्रुओं का भय हो या बार-बार कार्य बनते-बनते बिगड़ जाते हों, तो भी यह व्रत अवश्य कर लेना चाहिए।
फाल्गुन मास मूलतः त्याग, दान और मानवीय प्रायश्चित का मास है, जिसमें प्रकृति भी और प्राणी भी वर्ष भर के किये गये सभी निन्दित कर्म और विचारों को त्याग कर ही नवसंवत्सर में प्रवेश करने के प्रयत्न करते हैं और कृष्ण पक्ष की एकादशी को शक्ति, योग और सात्विकता का संयुक्त प्रभाव मिलता है, जिस कारण से यह महाव्रत के विषय में पद्म पुराण और स्कन्द पुराण में अतिसुन्दर वर्णन मिलता है।
पद्मपुराण के अनुसार फाल्गुन मास कृष्ण पक्ष की एकादशी को व्रत करने से जातक के जीवन में किसी भी वस्तु की कमी नहीं होती है और व्रत प्रभाव से शत्रुओं पर भी विजय मिलती है और लगातार जीवन पर्यन्त व्रत करने से मोक्ष की भी प्राप्ति होती है। इसलिए इस व्रत का नाम विजया एकादशी पड़ा। फाल्गुन मास कृष्ण पक्ष की एकादशी के व्रत का महात्म्य श्रीमद्भगवत गीता में मिलता है। उल्लेख है कि विजया एकादशी के विषय में अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा कि,''हे माधव!, फाल्गुन मास में कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या महात्म्य है और इसके विषय में क्या कथा है ?'' जिसके ज्ञात होने के बाद अर्जुन अति आनन्द विभोर हो गये थे।
उक्त दृष्टान्त का सारांश इस प्रकार है:-
अर्जुन के अनुनय पूर्वक प्रश्न पर श्री कृष्ण जी कहते हैं, प्रिय अर्जुन!, तुमसे पूर्व केवल ब्रह्मा जी से देवर्षि नारद ही इस कथा को सुन पाए हैं। फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी का व्रत करने वाला सदा विजयी रहता है। तुम मेरे प्रिय हो इसलिए तुमसे यह कथा बताता हूँ।
त्रेतायुग में विष्णु के अंशावतार श्री रामचन्द्र जी पत्नी सीता को ढूंढते हुए सागर तट पर पहुंचे, जहाँ उनका परम भक्त पक्षीराज जटायु रहता था। पक्षीराज ने ही श्रीराम जी को बताया था कि लंका नगरी का राजा रावण सीता माता को सागर पार लंका नगरी ले गया है और माता इस समय अशोक वाटिका में हैं। जटायु से सीता का पता जानकर श्रीराम चन्द्र जी वानर सेना के साथ लंका पर आक्रमण की तैयारी करने लगे, परंतु सागर के जल जीवों से भरे दुर्गम मार्ग से होकर लंका पहुंचना बड़ा प्रश्न बन गया था। मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम आम मानव की भांति चिंतित हो गये। उन्हें सागर पार जाने का कोई मार्ग नहीं मिल रहा था, तब उन्होंने लक्ष्मण से पूछा कि सागर को पार करने का तुम्हारे पास कोई उपाय है तो बताओ।
तब लक्ष्मण जी की सलाह पर सागर तट से आधा योजन दूर परम ज्ञानी वकदाल्भ्य मुनि के आश्रम पहुंचे और उनसे सागर पार जाने का कोई मार्ग या युक्ति पूछने लगे। तब मुनिवर ने कहा- ''हे राम!, आप अपनी सेना समेत फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की एकादशी का व्रत रखें, इस व्रत से आप निश्चित ही समुद्र को पार कर रावण को पराजित कर देंगे।'' परम ज्ञानी वकदाल्भ्य मुनि के आज्ञानुसार श्री रामचन्द्र जी ने अपनी सेना समेत मुनिवर के बताये विधान के अनुसार उक्त तिथि को व्रत रखा, जिसके बाद श्रीराम जी को युक्ति मिली और वे सागर पार जाने के लिये पुल का निर्माण कर लंका पर चढ़ाई कर युद्ध में रावण को परास्त कर उनको सद्गति भी प्रदान की।
नित्य कर्म से निवृत्त होकर स्नान आदि के उपरान्त नववस्त्र धारण कर पूजा स्थल को गंगा जल छिड़क कर या गाय के गोबर से लीपकर पवित्र करके काष्ठ की चौकी पर पीला वस्त्र बिछा उस पर 7 प्रकार के अनाज के ऊपर भगवान विष्णु की प्रतिमा या चित्र स्थापित करें और अपने हाथ के दाईं तरफ कलश स्थापित करें। श्री हरि को हल्दी, अक्षत, पीला फूल, फल, पीला नैवेद्य व तुलसी अर्पित करने के बाद धूपबत्ती, घी का दीपक जलायें और नियमपूर्वक कथा सुन विष्णु भगवान की आरती करें। द्वादशी को पारण करने से पहले गाय को गेहूँ के आटे की पीठी बना कर उस पर गुड़ या चीनी रख कर गाय माता को खिलायें, ऐसा करने से भगवान विष्णु सहित माता गाय में निवास करते 33 कोटि देवी देवता प्रसन्न होते हैं।
सम्भव हो, तो यथाशक्ति ब्राह्मणजन को मान, सम्मान, दान, भोजन दें और कराएं तत्पश्चात स्वयं पारण करें। साथ में भगवान विष्णु से व्रत की कोई त्रुटि या भूल के लिये क्षमा प्रार्थना जरूर कर लें।
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