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Mandir - मूरत भगवान की एवं संगम स्थल आत्मा व परमात्मा का।


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संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 07-03-2021

विश्व में असंख्य मन्दिर है, जहाॅ बैठकर, जहाँ जाकर एवं जहाँ थोड़े से क्षण में ही स्वयं को मनः शान्ति का सुख मिलता है। सनातन संस्कृति में परमात्मा एवं आत्मा की संन्धि स्थली को ही मन्दिर कहते है एवं अन्य पन्थों एवं सम्प्रदायों में इसे भिन्न-भिन्न शब्दों, नामों से परिभाषित किया गया है। भारत देश में अनेको ऐतिहासिक मन्दिर है, जिनका सांस्कृतिक एवं धार्मिक महत्व अत्यधिक है। प्राचीन मुख्य मंदिर के पास व अन्य तीर्थ स्थलों के दर्शन के लिए भक्तजन की भीड़ लगी रहती है। मन्दिर वास्तव में वह स्थल है, जहाँ परमात्मा को अनुभूति एवं मन व आत्मा को शांति मिलती है अर्थात् आत्मा का परमात्मा से चेतना प्राप्त किये जाने की स्थली मन्दिर है। मन्दिर में ध्यान के बल पर आत्मा में परमात्मा का साक्षात्कार होता है, यहाँ मनुष्य अपने मन की दुविधाओं को दूर करके परमात्मा की ऊर्जा लेकर तन एवं मन को शुद्ध करता है।
मन्दिर शब्द का निर्माण संस्कृत भाषा की मंद धातु से हुआ है एवं मंद यानी कुंद बुद्धि, जड़मति, धीमा, स्थिर आदि होता है। सामान्य बोल चाल में मन्द शब्द का प्रयोग मूर्ख या बुद्धिहीन व्यक्ति के लिए होता है, किन्तु मन्द् से बने मंदार से स्थिरता एवं शान्ति भाव उभर कर आता है, जिसमें पर्वत का भाव है। जड़ का अर्थ मात्र एक है, किसी भी तत्व का मूल। जैसे पेड़ो में जड़े है, पहाड़ एवं पर्वत भी जड़ है क्योंकि वे ना तो गति करते हैं और ना ही उनमे वेग है, वे अस्थिर होते है। पर्वत से ज्यादा जड़ और क्या हो सकता है?  इसी जड़ता के भाव से जन्मा है मन्द। इसी क्रम में मन्दिरम् शब्द अस्तित्व में आया। प्रारम्भिक रुप में मन्दिर का अर्थ सामान्य आवास ही था, कालान्तर में परिवर्तित सामाजिक और विकास की यात्रा में गिरि कंदराओं में सुरक्षित आलयों का निर्माण करने की वजह से ही पर्वतीय आश्रयों को मन्दिर कहा गया। इस प्रकार से मंदिर यानी पर्वत पर बने आवास अथवा पर्वत के सदृश्य दिखने वाला आवास जहाँ ईश्वर की महिमा जड़ व अचल रूप में मौजूद हो, को मन्दिर कहते है।
प्राचीनकाल से ही पर्वतो की कंदराओं में मनुष्य आश्रय व निवास करता था, जहाँ पौराणिक मतानुसार पर्वतों में ही देवी-देवताओं का वास रहता है। स्पष्ट है कि मन्दार में सर्वप्रथम आश्रय का भी भाव है। मनुष्य की घुमक्कड़ी प्रवृत्ति का पड़ाव आवास बनाकर रहना था, भी जड़ होता है परन्तु मनुष्य आज भी घुमक्कड़ी प्रवृत्ति का ही है, उसमें स्थिरता नही है। इसीलिये अस्थिरता को ही स्थिरता की आवश्यकता होती है। मनुष्य के बनाये घर में आकर्षण होता है जिससे मनुष्य बंधता है और उसकी तरक्की में उसका घर रुकावट बनता है, इसीलिये वह नये-नये घर भवन बनाता रहा है और आगे भी यह गति संचालित रहने वाली है, परन्तु घर में आकर्षण और सुख का भ्रम तो रह सकता है लेकिन स्थिरता का अभाव रहेगा। घर में सदैव परिवर्तन महसूस किया जा सकता है, किन्तु मन्दिरो में जड़ता का गुण या भाव होने से क्षणिक मननः शान्ति और सुख मिल जाता है। मनुष्य पहाड़ो से निकलकर नगर, शहर और गाँव में बसने लगा और कुंद, जड़, धीमा, स्थिर होने के लिये नगर, शहर, व गाँवो में पर्वत के सदृश्य आश्रय में क्षणिक रूप से ईश्वरीय चेतना या परमात्मा का केन्द्र बनाकर अपनी अस्थिरता को स्थिरता में परिवर्तित करने का प्रयास करता है। जहाँ शरीर में सकारात्मक ऊर्जा स्फूर्ति से भर जाती हैं और तनावग्रस्त शरीर में नई ऊर्जा की संक्रान्ति होती है। जीवन में नई प्रेरणा प्राप्त होती हैं।
मन्दिरो के प्रकार:-

गुहा मन्दिर- गुफाओं को काट-छाँट कर बनाए गए प्राचीन मंदिर।
देव मन्दिर- किसी देवता की पूजा के लिए बनाया गया भवन, देवता का मंदिर, देवालय, धार्मिक उद्देश्य के लिए निर्मित भवन।
मान मन्दिर- प्राचीन समय में राजमहलों में बनाया जाने वाला वह विशेष कक्ष जिसमें क्रोध या शोक की अवस्था में राज परिवार का कोई व्यक्ति विशेषकर बैठ जाता था। जिसे कोप भवन या वेेेध शाला कहते थे।
सर्वविदित है कि ईश्वर मन में ही है, जब मन शान्त, निश्छल, र्निविकारी और निश्पापी होगा, तो ईश्वर स्वयं महसूस ही होगा, किन्तु अशान्त और अहंकारी मन से ईश्वरीय सत्ता कोषों दूर रहती है। अतः सुक्ष्मता में मन्दिर का अर्थ जहाँ मूरत, धूप, दीप, घण्ट, शंख, जाप, तप, हवन-पूजन, अर्चन इत्यादि का निरतंर प्रयोग कर ध्वनि और वातारणीय शुद्धता से मन का विकार दूर हो अर्थात मन में चल रहे हजारो विचारों को विराम लगाकर मन को शान्त किया जाने वाला स्थल मन्दिर होता है। जहाँ नास्तिक की भी मन मस्तिष्क में शान्ति आ जाय। अर्थात मंदिर जहाँ मैं यानि अंहकार भाव भी नष्ट हो जाय। सम्भवतः इन्ही कारणों से मन्दिर में प्रवेश करते हुए जूते चप्पल, अहंकार, विकार को मंदिर से बाहर ही त्याग कर प्रवेश करने का प्राविधान है।

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