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Dayanand Sarswati - आर्यसमाज पद्धति के जनक, समाज सुधारक, कठोर ब्रह्मचर्य के पालक स्वामी दयानन्द सरस्वती ।


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संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 08-03-2021

आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की जयंती फाल्गुन माह कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि को मनायी जाती है। आज वही दिन है, जब स्वामी दयानंद सरस्वती की जयंती है। स्वामी दयानंद सरस्वती समाज सुधारक, आंदोलनकारी, कठोर ब्रह्मचर्य पालक वाले थे। स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रमुख नारा था "वेदों की ओर लौटो"

भारत राष्ट्र के गुजरात प्रांत में टंकारा ग्राम के ब्राह्मण परिवार में जन्मे दयानंद सरस्वती मूल नक्षत्र के जातक थे, इनका वास्तविक नाम मूलशंकर अंबाशंकर तिवारी था। दयानंद सरस्वती के पिता श्री अंबाशंकर तिवारी पेशे से एक टैक्स कलेक्टर थे और माता धार्मिक घरेलू महिला थी। माता के धार्मिक विचार स्वामी जी को सदैव प्रभावित करते थे, जिससे उनमें बाल्यकाल से ही अध्यात्म में रुचि जाग्रत हो गयी थी और एक छोटी सी घटना ने स्वामी जी का जीवन परिवर्तित कर दिया।

एक बार स्वामी जी दैव प्रतिमा के सम्मुख पूजन अर्चन मे बैठे थे, तभी चूहा (मूषक) दैव प्रतिमा पर चढ़ भोग को खाने लगा, जिसे देख स्वामी जी विचार में पड़ गए और एक विचार तत्क्षण आने लगा कि जो देव स्वयं और स्वयं के वस्तु की रक्षा नहीं कर सकते हैं, वे किसी और की कैसे करेंगे? सवाल तो बड़ा था, जिसका उत्तर उन्हें नहीं मिला, जिसके बाद वे मूर्ति पूजन के विरोधी हो गए। थोड़ा समय व्यतीत हुआ ही था कि अकस्मात ही उनकी बहन और चाचा का निधन हो गया, जिसका उन्हें बहुत आघात हुआ और स्वामी जी फिर से विचार में पड़ गए कि जीवन और मृत्यु के बीच ये कैसा खेल है ? लोग क्यों मरते हैं और क्यों जन्मते हैं ? इन सवालों में उलझे स्वामी जी माता-पिता के पास गए, जहां से सही उत्तर न मिलने से उन्हें निराशा ही प्राप्त हुई, क्योंकि उनका प्रश्न ज्यो-का-त्यों बना रहा। अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए वेदों के पन्नों को पलटने लगे, जिसके परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे उनका वैराग्य की तरफ झुकाव होने लगा। इस वैरागी झुकाव से परेशान माता-पिता ने उनका विवाह करने का निर्णय ले लिया, जिस पर स्वामी जी ने अपनी असमर्थता जताते हुए मात्र 21 वर्ष की अवस्था में ग्रहस्थ आश्रम छोड़ सन्यासी बन गये थे।

गृह त्याग के बाद भारत भ्रमण पर निकल गये और यात्रा के दौरान मथुरा में गुरु विरजानन्द से मिलकर बहुत प्रभावित हुए और उनके शिष्य बन गये। गुरु विरजानन्द जी के नेत्रों में ज्योति नहीं थी, लेकिन गुरु के ज्ञान की रोशनी से स्वामी जी का लक्ष्य बिलकुल स्पष्ट होता जा रहा था। गुरु विरजानन्द ने स्वामी जी को पाणिनी-व्याकरण, पातंजलि-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन भली प्रकार से कराया और आर्य समाज को स्थापित करने की आज्ञा दी। जिसे स्वामी जी ने गुरु आज्ञा मानते हुए उनके सामने प्रतिज्ञा की कि समाज से बुराइयों, कुरीतियों और खराब प्रथाओं को नष्ट करते हुए सनातनी समाज को फिर से आर्यों के नाम से खड़ा कर देंगे। समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिये ध्यान-प्राणायाम के योगी बन कर वेदों का प्रचार-प्रसार, आर्यावर्त को संस्कृति सम्पन्न बनाने के लिए स्वामी जी ने 1875 ई0 में मुंबई प्रांत जाकर आर्य समाज की स्थापना की। सनातनी संस्कृति में सुधार के लिए कार्य प्रारम्भ किया। उन्होंने मूर्ति पूजा, अवतारवाद, बलि,  झूठे कर्मकाण्ड व अंधविश्वासों को अस्वीकार करते हुए छुआछूत व जातिगत भेदभाव का विरोध किया तथा स्त्रियों व शूद्रों  को भी मन्दिर जाने, यज्ञ करने और वेद पढ़ने का अधिकार दिया था। स्वामी जी मानते थे कि वेदों से बड़ा कोई प्रामाणिक धर्मग्रंथ नहीं हैं। सनातनी समाज में फैली बुराइयों से उन्हें हर क्षण बहुत कष्ट होता था। उन्होंने सबसे पहले सतीप्रथा और बाल विवाह का विरोध किया और विधवा विवाह के समर्थक व प्रचारक बन गये। समाज के हर वर्ण में हर समस्या पर स्त्रियों को बराबरी का अधिकार और सम्मान से बोलने का अधिकार दिलाया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती, धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक, स्त्री अधिकार के समर्थक और शुद्ध वैदिक परम्परा में विश्वास रखने वाले योगी थे तथा प्राणायाम पर उनका विशेष बल था, जिसकी झलक उनके द्वारा लिखें साहित्यिक पुस्तकों व ग्रंथो मे मिलता है–जैसे-सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि और  ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका। समाज सुधारक के साथ-साथ स्वामी जी एक क्रांतिकारी भी थे।

अपनी मंडली के साथ पैदल ही यात्रा करते हुये हरिद्वार के कुंभ मेला में आबू पहाड़ी के एकान्त स्थान पर अपना डेरा बना लिया और वहां पाँच महत्वपूर्ण विद्वान ऐसे व्यक्तियों से मुलाकात की, जिनके साथ मिलकर विदेशियों को भारत से हटाने के लिए एक रणनीति तैयार की। जो आगे चलकर सन् १८५७ की क्रान्ति के आधार बने। ये पांचों व्यक्ति थे नाना साहेब, अजीमुल्ला, बाला साहब, तात्या टोपे, बाबू कुंवर सिंह। 

एक दिन स्वामी दयानंद जी जोधपुर गए और वहां के दरबार में महाराज की वेश्या नन्हींजान को अपने समीप देखकर उसकी कड़ी आलोचना कर दी, जिससे क्रुद्ध नन्हींजान स्वामीजी की दुश्मन हो गई और उसने अन्य विरोधियों से मिलकर स्वामीजी के रसोइए जगन्नाथ को बहकाकर दूध में विष मिलाकर स्वामी जी को पिला दिया, जिसका त्वरित असर दिखाई दिया। स्वामी जी के पेट का दर्द बढ़ता गया, जिसको निष्क्रिय करने के लिए वमन-विरेचन योग क्रियाओं से दूषित पदार्थ को निकाल देने की चेष्टा की, किन्तु विष तीव्र था, जिससे 1883 में दीपावली के दिन पंचतत्व में विलीन हो गये। उनके अन्तिम शब्द थे-"प्रभु! तूने अच्छी लीला की। आपकी इच्छा पूर्ण हो।" स्वामीजी की मृत्यु के बाद रसोइए जगन्नाथ द्वारा दूध में जहर देने का अपराध स्वीकार भी कर लिया।

आर्य समाज पद्धति में ॐ शब्द को सबसे पवित्र और अति उत्तम माना जाता है, जो सनातन संस्कृति का मूल नाद शब्द भी है। स्वामी जी ने अपने उपदेश में कहा कि किसी को इतना मौका मत दो कि दो लोगों में तीसरे की वजह से आपसी फूट हो, जब हम सनातनी आपस में लड़ेंगे तो विदेशी भारत में अपनी जगह बनाकर राज कर लेगें।

स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित 'सत्यार्थ प्रकाश' नामक ग्रन्थ आर्य समाज का मूल ग्रन्थ है। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है: कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, जिसका अर्थ है-विश्व को आर्य बनाते चलो। उपदेश का विषय था ‘‘अंहिसा परमो धर्मः”, जिसे कालांतर में गांधी जी ने अपना भी मूल मंत्र बनाया था।

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