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कालाष्टमी को कृपा मिलती है, काशी के कोतवाल कालभैरव की।


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संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 03-03-2021

सनातनी पंचाग अनुसार प्रत्येक माह के कृष्ण एवं शुक्ल पक्ष की अष्टम तिथि को ही अष्टमी कहा जाता है। अष्टमी तिथि विद्या एवं कलाओं के लिए महत्वपूर्ण है, जिसके कारण से इस तिथि को कलावती नाम से भी बुलाया जाता है। शास्त्रानुसार कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को तन्त्र एवं गति के देव भगवान शिव का स्वामित्व एवं शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को शक्ति एवं ऊर्जा की देवी दुर्गा माॅँ की शक्ति का केन्द्र माना गया है। सम्भवतः इन्हीं तथ्यों के अधीन ही शुक्ल पक्ष की अष्टमी में भगवान शिव का पूजन करना वर्जित है लेकिन कृष्ण पक्ष की अष्टमी में शिव का पूजन उत्तम सिद्ध होता है। किन्तु चैत्र महीने के दोनों पक्षों में पड़ने वाली अष्टमी तिथि को शून्य कहा गया है। खगोलीय गणनाओं में सूर्य एवं चंद्रमा का अंतर 85 डिग्री से 96 डिग्री अंश तक होने पर शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि का निर्माण होता है एवं जब सूर्य एवं चंद्रमा का अंतर 265 से 276 डिग्री अंश तक होता है, तो कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि का निर्माण होता है।

फाल्गुन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को भैरव अष्टमी कहा जाता है। इसे कालाष्टमी भी कहते हैं। कालाष्टमी को भगवान शिव का एकांश मानते हुए काल भैरव का पूजन अर्चन होता है। काल भैरव भगवान शिव के उग्र रूप एवं तन्त्र के जनक हैं। इसमें भगवान शिव का क्रोधित रूप की पूजा होती है। काल भैरव का व्रत अथवा पूजा सप्तमी तिथि से ही आरम्भ हो जाता है।

सनातनी शास्त्रानुसार प्रचंडासुर का नाश करने के बाद महादेव के अंश काल भैरव को प्रसन्न होकर पशुपतिनाथ के नाम से विख्यात होने का वरदान दिया। काल भैरव चौसठ गणों में सबसे प्रमुख हैं। आज भी काशी के कोतवाल के रुप में काल भैरव निवास करते हैं।
किवदन्ती हैं कि काशी पर आने वाली हर विपत्ति को बाबा भैरव नष्ट कर देते हैं एवं काशी विश्वनाथ बाबा के दर्शन का पूर्णफल काल भैरव के दर्शन के बाद ही मिलता हैं। इसके अतिरिक्त जो भी काल भैरव का यथाभक्ति पूजन अर्चन करता है, उसे अनचाहा डर कभी नहीं सताता हैं एवं भक्तों की भविष्य में आने वाली विपत्ति स्वयं नष्ट होती है।

पौराणिक कथा है कि श्रेष्ठता को लेकर विष्णु एवं ब्रह्मा में विवाद छिड़ गया एवं विवाद समाप्त ही नहीं हो रहा था, यह परिस्थिति देख भगवान शिव जी ने सभा का आयोजन किया, जिसमें सभी सिद्ध ऋषि, महात्मा एवं देवताओं का आमंत्रण हुआ एवं तय हुआ कि जो शिव जी का निर्णय होगा, वही सर्वमान्य होगा। उक्त सभा में विष्णु जी की श्रेष्ठता पर निर्णय लिया गया, लेकिन शिव जी के निर्णय पर ब्रह्मा जी को संशय था। जिसके परिणाम स्वरूप भगवान शिव का ब्रह्मा ने अपमान कर दिया, जिसे शिव सहन न कर सके एवं उन्होंने तत्काल रौद्र रूप धारण कर लिया। शिव जी के रौद्र रूप में आते ही उनके पास एक श्वान (कुत्ता) दंड एवं खड्ग आ गया एवं श्वान पर सवार हो गये। ऐसा देख कर ब्रह्मा जी सभा से निकल गये। भगवान शिव ने क्रुद्ध होकर ब्रह्मा जी का पीछाकर उनका पांचवां सर काट दिया। तब से भगवान शिव को कालभैरव का रूप भी पूजित हुआ।

मान्यता है कि कालभैरव अन्याय, अधर्मिता एवं पापियों का साथ कभी नहीं देते हैं। यदि कालभैरव प्रसन्न हों, तो याजक को न्याय मिलता है, धर्म के विचार जाग्रत होते हैं एवं पाप से कोसों दूर चला जाता है। कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि में ही काल भैरव रौद्र रूप में कुत्ते पर सवार एवं हाथों में दण्ड व खड्ग लिये अवतरित हुए थे। सम्भवतः इन्हीं कथाओं के आधार पर ही कृष्ण पक्ष की अष्टमी में शिव जी अथवा काल भैरव का पूजन उत्तम सिद्ध होता है। काल भैरव को तंत्र एवं विद्या प्राप्त करने के लिए भी पूजा जाता है। इस सम्बन्ध में मिथक है कि भैरव तामसिक प्रवृत्ति के देव हैं एवं उन्हें प्रसन्न करने के लिये भक्त शराब एवं पशु बलि चढ़ाते हैं।

यह काल भैरव का ही प्रभाव है कि कृष्ण पक्ष अष्टमी को जन्मा प्राणी (जातक) धार्मिक कृत्यों में निपुण, दयावान, सत्यवादी, कई विषयों को मर्मज्ञ, मेहनती, परिश्रमी, मनमौजी, घुमक्कड़ प्रवृत्ति, भौतिक सुख-सुविधाओं एवं सामाजिक कल्याणकारी इच्छा रखने वाला होता है। इसके अतिरिक्त जिन कृत्यों में बल का प्रयोग होता, वह इन्हें अत्यधिक आनन्द देता है। काल भैरव के व्रत, पूजन-पाठ, अर्चन, अनुष्ठान का कर्जदार, संकटग्रस्त, मानसिक रोग से ग्रस्त, साढ़ेसाती प्रभावी, शंकालु एवं ईष्यालु अनिद्रा रोग से ग्रस्त एवं राहु या केतु दोष से युक्त लोगों को विशेष लाभ मिलता है। इसके अलावा किसी भी पक्ष की अष्टमी तिथि में नारियल नहीं खाना चाहिए एवं कृष्ण पक्ष अष्टमी को श्वान की सेवा करने से भी काल भैरव प्रसन्न रहते हैं एवं केतु ग्रह का उपाय हो जाता हैं।

अष्टमी तिथि में युद्ध, राजप्रमोद, लेखन कार्य करने से सिद्धि मिलती एवं नये वस्त्र व आभूषण की खरीददारी शुभ होती है। अष्टमी तिथि को अभिनय, नृत्य, गायन, कला, व अन्य अनेक विद्याओं में प्रवेश या दक्षता लेना प्रसिद्धि दिलाता है। इस तिथि को वास्तुकर्म, गृह निर्माण एवं शस्त्र के जुड़े कार्य विशेष फलदायी हो जाते हैं।

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