संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 28-02-2021
संकष्टी चतुर्थी पूरे वर्ष के प्रत्येक माह के कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष में आती है, और प्रत्येक पूर्णिमा के पश्चात चतुर्थी तिथि को संकष्टी चतुर्थी संज्ञा प्राप्त हैं। सनातन संस्कृति में संकष्टी चतुर्थी को विघ्नहर्ता श्री गणेश जी से जोड़कर देखा जाता है। संकष्टी चतुर्थी को गणपति गणनायक गणेश जी का विधि-विधान से पूजन पाठ और व्रत अनादिकाल से किया जाता है। सनातनी पंचाग अनुसार पूरे सम्वत्सर; वर्षान्त का अन्तिम माह फाल्गुन मास होता है, जिसके पश्चात ही नवसम्वत्सर का आरम्भ होता है। फाल्गुन मास में प्रकृति व वनस्पतियाँ अपना पुराना स्वरूप त्याग कर नये स्वरूप में दिखना आरम्भ करती हैं। फाल्गुन मास के अन्त होने से पहले ही पुरानी और कमजोर वनस्पतियाँ समाप्त हो चुकी होती हैं। उनके स्थान पर नये पत्ते, नये फूलऔर नयी पकी फसलें दिखाई देती हैं। सनातन संस्कृति में फाल्गुन मास मूलतः त्याग, दान और मानवीय प्रायश्चित का मास है। संस्कृति भी प्राकृतिक नियमों के अधीन ही पूरे वर्ष के सभी निन्दित कर्म और विचारों को त्याग कर नवसंवत्सर में प्रवेश के प्रयत्न के लिये प्रेरित करती है। सम्भवतः इन्हीं तथ्यों के अनुरूप ही फाल्गुन की संकष्टी चतुर्थी को भगवान गणेश को हेरम्ब नाम से पुकारा जाता है और संकष्टी चतुर्थी को द्विजप्रिय संकष्टी के नाम से जानते हैं।
संकष्टी चतुर्थी में पूजन पाठ व व्रत उपासना का क्या लाभ मिलता है, इस तथ्य की जानकारी किसी भी सनातनी को भावी जीवन में सफलता के शीर्ष तक लेकर जा सकती है। पूर्णिमा के पश्चात की चतुर्थी का सीधा सम्बन्ध मन से हो जाता है और अमावस्या तक पहुँचते-पहुँचते मन की गति क्षीण अवस्था तक आ जाती है। इसीलिए मन की गति, स्थिति निर्मल व शुद्धता से पूर्ण हो, जिसके लिए विद्या और बुद्धि के देव गणेश जी का आवाहन एवं पूजन कर बौद्धिक स्थिरता का वर पाया जा सकता है।
संकष्टी चतुर्थी को सन्ध्या काल में पूर्ण स्वच्छ होकर उत्तर या पूर्व मुख करके लकड़ी की चौकी पर लाल अथवा पीला वस्त्र बिछाने के बाद गंगा जल से शुद्ध और पवित्र कर गणपति जी को स्थापित कर तिल, फूल, मालाएँ, नैवेद्य आदि अर्पित कर चन्द्र देव को अर्घ्य दें और खीर में कनेर का पुष्प मिलाकर हवन कर याचक को गाय का घी व गुड़ अथवा चीनी युक्त फलाहार ग्रहण करना चाहिए।
श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर प्रश्न के उत्तर में इस प्रकार का विधान बताया है।
प्राचीन समय में एक बहुत ही उदार और धर्मात्माओं का मान सम्मान करने वाला राजा था, जिसकी राज्य सभा में बहुत ही सज्जन और ज्ञानी, वेदों के ज्ञाता और धर्म का अनुसरण करने वाले विष्णु शर्मा नामक विद्वान थे। उनके सातों पुत्र वैचारिक मदभेदों के प्रभाव में एक दूसरे से अलग रहा करते थे, विष्णु शर्मा को सभी पुत्रों के घर पर अलग-अलग दिन भोजन मिलता था। पुत्रवधुओं द्वारा अपमनित किये जाने के परिणाम स्वरूप वेसमय से पहले वृद्धावस्था और शारीरिक कमजोरी बनी रहने लगी। इस प्रकार उनकी निजी जीवन में अनेक परेशानियाॅँ भी थीं, जिसके प्रभाव से वह मन ही मन अत्यधिक दुःखी और भावुक रहते थे। लेकिन विष्णु शर्मा नित्य प्रतिदिन नियमित ही दैव उपासना एवं पूजन किया रहते थे ।
फाल्गुन संकष्टी की गणेश चतुर्थी तिथि को विष्णु शर्मा जी सबसे बड़े पुत्र के घर गए और पुत्र वधू से पूजन की तैयारी का आग्रह किया, जिस पर बहू ने उत्तर दिया कि उसके पास व्यर्थ के कार्य का समय नहीं है, जब गृह कार्य से निवृत्त होगी, तब समय मिला, तो जो करना है, वो करेगी। इस पर दुःखी मन से विष्णु शर्मा बारी बारी छहों पुत्रों के पास हो आये, और सभी घरों में एक सा ही क्रम रहा, परन्तु अंत में सबसे छोटी पुत्रवधू के पास गये, जिसने उनका आग्रह स्वीकार किया किन्तु निर्धनता के कारण घर में जो भी उपलब्ध था उसी से ही पूजन विधि की सभी तैयारी पूर्ण कर दी, और पूजन इत्यादि कर्म पूर्ण होने के बाद भोजन के अभाव में स्वयं भूखी रह कर भी अपने ससुर विष्णु शर्मा को भोजन खिलाया और उस दिन उनके पुत्र और वधु उपवास ही कर गये। अर्द्धरात्रि के समय अकस्मात् ही विष्णु शर्मा को दस्त व उल्टी होने लगी, जिसके कारण पुत्र व पुत्रवधू ने श्वसुर सेवा में रात भर जागरण किया और हाथ पांव दबाते रहे। पुत्रवधु की सेवा व भक्ति देखकर भगवान गणेश प्रसन्न हुए और प्रात:काल तक श्री गणेश कृपा से विष्णु शर्मा ठीक हो गये।
सुबह छोटी बहु ने श्वसुर जी को स्वस्थ देखने के बाद देखा कि घर में चारों ओर धन ही धन फैला हुआ है, जिसको देखकर वह भयभीत हो गयी। उसको लगने लगा कि किसी ने चोरी का आरोप लगाने के लिये धन संपदा रख दिया है। तब उसके श्वसुर जी बताया कि गणेश जी ने तेरी भक्ति से प्रसन्न होकर ये सब तुम्हें वरदान स्वरूप दिया है। छोटी बहु बोली कि यह सब आपकी कृपा से सम्भव हुआ है, यदि आप ना आते, तो फाल्गुन संकष्टी की गणेश चतुर्थी तिथि का पूजन न होता और ना ही गणेश भगवान प्रसन्न होते। यह सब आपकी कृपा से हुआ है।
जब यह बात बड़ी पुत्रवधू को पता लगी, तो वह बहुत क्रोधित और बोलने लगी- इस बूढे़ ने जीवन की कमाई धन-संपति छोटी बहू को दे डाली है। तब विद्वान विष्णु शर्मा ने सारा वृत्तांत सभी पुत्रों और पुत्र वधुओं को बताया, जिससे उन्हें अपनी गलती का भान हो गया। सभी ने विष्णु शर्मा से क्षमा मांगी और नियमित रूप से प्रत्येक संकष्टी चतुर्थी को गणेश जी व्रत करना आरम्भ किया, जिसके प्रताप से धन्य धान्य से सभी परिवार पूर्ण हुए और सभी पुत्रों की वैमनस्यता समाप्त होती गयी और फिर सभी साथ भी रहने लग गये।
इस वृतान्त के उपरान्त श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर बताया कि यह कथा मात्र एक संदेश है, किन्तु फाल्गुन संकष्टी चतुर्थी तिथि को गणेश जी की कृपा पूजन उपवास जप तप करके पायी जा सकती और गणेश कृपा से मनोकामना पूर्ण भी होती हैं।
ध्यान देने योग्य बातें:-
1- फाल्गुन संकष्टी चतुर्थी तिथि को भूमि से उपजे कंद-मूल का सेवन वर्जित है। अर्थात मूली, प्याज, गाजर, चुकंदर और आलू इत्यादि न खाएं।
2- भगवान गणेश पर तुलसी पत्ता अर्पित करना वर्जित हैं, क्योंकि तुलसी के पौधों को गणेश जी का श्राप है, गणेश भगवान पर तुलसी नहीं चढ़ती हैं।
संकष्टी चतुर्थी तिथि का आरंभ. 02 मार्च 2021 दिन मंगलवार प्रातः 05 बजकर 46 मिनट से और समापन 03 मार्च 2021 दिन बुधवार रात को 02 बजकर 59 मिनट तक।
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