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फाल्गुन मास मूलतः त्याग, दान मानवीय प्रायश्चित और उल्लास द्योतक मास है।


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संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 28-02-2021

सनातनी पंचाग अनुसार पूरे सम्वत्सर (वर्ष) का सबसे अन्तिम माह फाल्गुन मास होता है। फाल्गुन मास के पश्चात ही नव सम्वत्सर का आरम्भ होता है। सनातन संस्कृति में फाल्गुन मास से अगले सम्वत्सर के आने की तैयारियाॅ भी प्रारम्भ हो जाती है। ऐसा सस्कृति में ही नही, प्रकृति में भी अवलोकित होता है। वनस्पतियाॅ भी अपने पुराने स्वरूप को त्यागकर नये पत्ते, नये फूलो, और नयी फसलो के साथ दिखाई देती है। फाल्गुन मास के अन्त होने से पहले ही पुरानी और कमजोर वनस्पतियाॅ समाप्त हो चुकी होती है। सनातन संस्कृति भी प्रकृति नियमो से अलग नही है। फाल्गुन मास मूलतः त्याग, दान और मानवीय प्रायश्चित का मास है, जिसमें वह वर्तमान वर्ष भर के किये गये सभी निन्दित कर्म और विचारो को त्याग कर ही नवसंवत्सर में प्रवेश करने के प्रयत्न करता है।

सनातनी संप्रदाय एवं वर्ग के जागरूक एवं जानकार लोग अनादि काल से ही फाल्गुन मास के कुछ नियमो का पालन करते आ रहे है। जिसमें अष्टांग योग को सैद्धान्तिक रूप से व्यवहार में लाते हैं। अष्टांग योग में काम काज करने के दो तरीके या अंग बताये गये हैं-पहला यम दूसरा नियम। यह सिद्धान्त ही संसारिक एकरूपता है। यम और नियम के पथ पर चलकर व्यक्ति सफलतम जीवन जीता हैं और सफल होने के लिये अष्टांग योग का पालन करना अत्यंत जरूरी हैं।

फाल्गुन मासीय व्रत यम और नियम का समामिश्रण हैं। अष्टांग योग सि़द्धान्त के बिना योग नही हो सकता है। व्यवहारिक आचरण पद्धति को यम और नियम के रूप में सदियों से यम आरक्षित रखा गया हैं। यम प्रतिबंध या नैतिक व्यवहार के रूप में उपयोग किया जाता हैं, जबकि समान्य जीवन में नियम का तात्पर्य रीति रिवाज और प्रथाओं से हैं। वैदिक ग्रंथों में बार बार यम सिद्धान्त को दोहराया जाता हैं, जिसे हर सनातनी को पालन करना चाहिए।

यम सिद्धान्त के 10 निम्न प्रकार है-(अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, घृति, क्षमा, दया, अर्जव, मीताहार,  शौच और स्वच्छ।)

  1. अहिंसा का तात्पर्य है कि किसी भी जीव जंतु को मन कर्म वचन से किसी भी प्रकार का कष्ट ना देना। अर्थात आहत ना करना, दूसरे व्यक्ति से हिंसा ना करवाना, और किसी दूसरे व्यक्ति को हिंसा के लिये ना उकसाना ही अहिंसा हैं।
  2. सत्य का तात्पर्य है कि मानव के वचन और कर्म में हृदय की एक ऐसी भावना, जिसमें लोक कल्याण और प्रकृति की उन्नति युक्त होती हो और, जिसमें स्वांग, पाखण्ड और भय का स्थान लेशमात्र भी ना हो। अर्थात भयमुक्त और प्रकृति व लोक कल्याण भाव से किया गया कृत्य और वचन ही सत्य है। इस प्रकार से जन कल्याण में बोली गयी मिथ्या भी सत्य हो जाता हैं।
  3. ब्रह्मचर्य का तात्पर्य है कि ईश्वरीय भावनाओ से युक्त होकर समस्त इन्द्रियो को नियंत्रित कर भोग विलासिता के मार्ग से विमुख होकर कर्तव्य पालन करना हैं। अर्थात संसारिक जीवन जीते हुए भी साधक बने रहना ही ब्रम्हचर्य है।
  4. अस्तेय का तात्पर्य है कि स्वयं के कर्मो से अर्जित न कर दूसरे के कर्म पर निर्भर हो जाना है। अर्थात दूसरे की वस्तु की चोरी न करना, किसी दूसरे के वस्तु को न छीनना, स्वयं पर ही निर्भर होना ही अस्तेय है।
  5. घृति का तात्पर्य है कि ईश्वरीय भावनाओ से युक्त होकर धैर्य, द्दढ़ता, धीरता, धीरज के साथ सत्यनिष्ठा स्थापित करना है। अर्थात किसी भी परिस्थितियों में किसी भी जीव जन्तु के लिये समर्पित भाव से किया गया कृत्य एवं विचार ही घृति है, जिसमें मन की द्दढ़ता, चित्त की अविचिलता, और सत्यनिष्ठा समाहित होती है।
  6. क्षमा का तात्पर्य है कि मानव के वचन और कर्म में हृदय की एक ऐसी भावना, जिसमें दूसरे की वो गलती जिससे किसी जीव जन्तु का अहित या वध ना हुआ हो, उन्हे स्वेच्छा से भेदभाव रहित होकर उत्तेजित आवेश को समाप्त कर देना।
  7. दया का तात्पर्य है कि मानव के चित्त की एक ऐसी भावना, जिसमें दूसरे जीव-जन्तु प्रति उनके जीवन मूल्य को बढ़वा मिलता हो। महाकवि तुलसीदास जी ने दया को ही धर्म का मूल बताया है और सिद्धान्त भी दिया है कि जब तक ह्रदय मे दया है, तब तक ईश्वरीय सत्ता चराचर जगत को चलायमान है। जब मानव के मन व आत्मा में दया की अनुपस्थिति होती है, तो उस मानव में कोई ईश्वरीय सत्ता का अस्तित्व नही है।
  8. अर्जव का तात्पर्य है कि मानव के चित्त की भावना, जिसमें मिथ्या, स्वांग, पाखण्ड और आडम्बर मुक्त भाव से निष्छल मन हो जाना है। जैन सम्प्रदाय में अर्जव शब्द का उल्लेख मिलता हैं, जिसके आधार पर ही जैनी छल कपट न करके सारा जीवन साधारण रूप में जीवन व्यतीत करते हैं और उनकी कथनी और करनी में समानता या एक रूपता मिलती है। अर्थात वो जैसा बोलते है वैसे ही करते हैं।
  9. मिताहार का तात्पर्य है किसी भी कृत्य या विचार को नाप तोल से किया जाना है। अर्थात उद्देश्य की सफल उसके कृत्य या तथ्य को नाप तोल या अनुपात बनाकर करने से होता हैं। भोज्य पदार्थ हो, विचार हो, वाणी हो, दान हो, या कर्म हो, यदि उसमें कब कहाॅ कितना और कैसे का अनुपात निकाल कर किया जाय, तो भविष्य सुन्दर हो जाता है। नाप तोल कर भोजन करना भी एक प्रकार का योग हैं। भोजन के मिताहार की चर्चा सनातनी ग्रन्थों में है - जैसे शाण्डिल्य उपनिषद, गीता, दशकुमार चरित तथा हठ योग प्रदीपिका में मिताहार विषय पर वृहद चर्चा दृष्ट हैं। इस सम्बन्ध संस्कृत श्लोक उद्हरण भी है -

        ॥ब्रह्मचारी मिताहारी त्यागी योगपरायणः। अब्दादूर्ध्वं भवेद्सिद्धो नात्र कार्या विछारणा॥

  1. शौच व स्वच्छ का तात्पर्य शुद्धता से है। जीव जगत में सभी जीवो में ग्रहण करने के साथ ही त्याज्य की प्रक्रिया भी समाहित होती है, ग्रहण करने से उर्जा और त्याज्य करने से शुद्धता अथवा निरोगिता उत्पन्न होती है। जैसे-मानव की अपमलन की आवृत्ति सामान्यतः २४ घण्टे के मध्य दो बार अथवा तीन बार होती है, विशिष्ट परिस्थितियों में एक सप्ताह में दो बार से चार बार तक हो सकती है।

नियम सिद्धान्त के 10 निम्न प्रकार है:-(नम्रता, शीलता, सन्तोष, अस्तिक्य, पूजन, श्रवण, मति, व्रत, जन, और तपस्या)

  1. नम्रता मानव व्यवहार और प्रकृति को आभार स्वरूप दिया गया समर्पित भाव है, जिसे मृदुलता भी कहा जा सकता है। यह एक विशेषता है, जो किसी भी जीव में आकर्षण उत्पन्न करता है।
  2. शीलता का अर्थ जीव जन्तुओ की कृपा से है। जिसमें मानवीय समर्पित भाव से सेवा व कृत्य करना निहित है, इससे सत्य का आचरण एवं आनन्द उत्पन्न होता है, और स्वर्ग जैसा अनुभव भी छुपा हुआ हैां यह सनातनीयो के लिये वैकुंठ के द्वार खोलता हैं।
  3. सन्तोष का अर्थ जितना मिला है, उतने में ही प्रसन्नता का भाव है। इससे मनुष्य को और प्रकृति के हर जीव को सतत् मनः शान्ति प्राप्त होती है, जिससे भावी जीवन निर्विकार हो जाता है।
  4. अस्तिक्य का अर्थ प्रकृति अथवा ईश्वरीय सत्ता पर पूर्ण विश्वास करना है। इससे आत्मिक एवं शारिरिक क्षमता का विकास होता है और मानव अपनी चेतना के बल पर कृत्य एवं उद्देश्य पूर्ण कर सकता है।
  5. पूजन का अर्थ पूर्णजन है, जिसका तात्पर्य चराचर जगत के सभी जीव जन्तु की आवश्यकता और उद््देश्य को निःस्वार्थ रूप से पूर्ण कराना है। मृत्यु लोक में जन्म लेने के उपरांत ईस्वर अथवा प्रकृति ही एक ऐसी सत्ता है, जो किसी को भी अधुरा नही रहने देती है, जिसके लिये भक्ति भाव से प्रगट किया गया आभार ही पूजन है, जिसे निष्काम भाव से निःस्वार्थ रूप से भगवान को समर्पित करना चाहिए।
  6. श्रवण सिद्धांत - सनातन संस्कृति में वेदों ग्रंथो, उपनिषदो और पुराणो को पढ़ना और सुनकर शुभ विचारो और दृष्टान्तो को जीवन में उतारना ही श्रवण सिद्धांत है।
  7. मति - जैसा विचार होगा वैसे ही कृत्य उत्पन्न होते हैं, जिसे संक्षेप में मति संज्ञा दी जाती है। जिसका शाब्दिक अर्थ स्वयं की समझ है। अर्थात किसी भी कार्य को करने से पहले कार्य की समझ होना आवश्यक हैं। मति जीवित प्राणी की बौद्धिक स्थिति को दर्शाता हैं।
  8. व्रत - एक प्रतिज्ञा हैं, जिसके अन्तर्गत कार्य अथवा उद्देश्य पूर्ण करने की इच्छा शक्ति की वृद्धि होती हैं। व्रत मनोवांछित वरदान दिला सकता हैं। ईश्वर को साक्षी मानते हुए दृढ संकल्प से की गयी उपासना अथवा संयम के साथ शुद्धता एवं शुचिता प्राप्त किया जाता हैं। सनातनीयो में सामान्यतः ईश्वरीय भक्ति एवं उपासना समझाा जाता है, परन्तु व्रत इससे भी वृहद परिभाषा में आता है, जिसे संक्षेप में बता पाना सरल नही है।
  9. जप का अर्थ पुनरावृत्ति हैं। एक शब्द अथवा कृत्य को बार बार और कई बार आवृत्तित करना अथवा उसे दोहराना ही जप कहलाता है। सामान्यतः जप ध्यान मग्न होकर मंत्र की पुनरावृत्ति हैं।

  10. तपस्या - अनुशासित एवं शिष्टाचार युक्त कर्म ही तपस्या है। साधक अथवा योगी से जोड़कर इस शब्द को देखा जाता हैं। जबकि अनुशासन एवं शिष्टता के समामिश्रण का परिणाम ही तप है, जो मनुष्य को दृढ़ एवं उद्योगी और उद्यमी बनाता है।  सामान्य भाषा में स्वयं को अनुशासित रखना और शिष्टाचार में रखते हुए कर्तव्यों का पालन ही तपस्या है।

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