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भीष्माष्टमी का पर्व प्रतीक है त्याग, पुरुषार्थ और महानता का


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संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 19-02-2021

भीष्म पितामह के निर्वाण दिवस के रूप में माघ मास शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को भीष्माष्टमी का पर्व मनाया जाता है। सूर्य के उत्तरायण होने पर माघ मास शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को भीष्म पितामह ने स्वेच्छा से देह त्याग किया था।

मान्यता है कि भीष्माष्टमी को गंगा में तर्पण इत्यादि कर्म से भीष्म पितामह का आशीष मिलता है और कुल में उच्च कोटि की संतान की प्राप्ति होती है, उनके समान ही त्याग, सिद्धांत को पढ़-समझ कर नित्य आचरण में उतारते हुए जीवन की ऊँचाइयों को पाता है। 

यह भी मान्यता है कि भीष्माष्टमी का व्रत करने वाला सभी पाप विचारों और कर्मों से दूर होता है और साथ ही उसे पितृ दोष से भी मुक्ति मिलती है। जो दंपत्ति संतान विहीन हैं, उन्हें यह व्रत अवश्य करना चाहिये, इससे भीष्म पितामह के दिव्य आशीर्वाद से संतान विहीन दंपत्तियों को अच्छे चरित्र और आज्ञाकारी संतान की प्राप्ति होती है।

भीष्म को ज्ञात था कि सूर्य के उत्तरायण होने पर माघ मास शुक्लपक्ष में प्राण त्याग से आत्मा को सद्गति और बारम्बार जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलती है। माघ मास में आकाश मंडल ज्यादा खुला होता है और धरा ईशान कोण की ओर झुक जाती है, जिससे ईश्वरीय गति का मार्ग सीधा, ज्यादा खुला और सरल हो जाता है। परंतु सूर्य के उत्तरायण होने और माघ मास का शुक्ल पक्ष आने पर भी उन्होंने अष्टमी तिथि तक प्रतीक्षा कर देह त्याग किया। जो आज भी सनातनी शास्त्र अनुसार ईश्वरीय संपर्क के लिए उत्तम समय है। इसीलिए भीष्म ने माघ मास शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि की प्रतीक्षा की थी।

भीष्माष्टमी तिथि को जल में गंगा जल मिश्रित कर उसमें काले तिल डालकर भीष्म पितामह को याद करते हुए उनका तर्पण करने से मोक्ष की प्राप्त होती है। युवाओं को भीष्म पितामह को पढ़ने समझने से जीवन के नित्य आचरण में त्याग, सिद्धांत को प्राप्त कर उत्कृष्ट और सरल आचरण मिलता है। इसलिए भीष्माष्टमी को भीष्म पितामह के संघर्ष की कहानी जाननी चाहिए। भीष्म पितामह वह महान पुत्र थे, जिन्होंने पिता की खुशियों के लिए जीवन भर कठोरता से ब्रह्मचर्य का पालन किया और आजीवन अविवाहित रहे व राज्य नेतृत्व के लिए पूर्ण प्रतिबद्ध रहते हुए जीवन यापन किया। भीष्म पितामह के देवव्रत से भीष्म पितामह बनने तक का सफर युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत है।

पुराणों में भी भीष्म पितामह के जीवन के संघर्षों का वर्णन इस प्रकार मिलता है कि हस्तिनापुर के राजा शान्तनु की पटरानी गंगा के ज्येष्ठ पुत्र देवव्रत का ही नाम भीष्म था। राजा शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगा तट तक चले गए। वहां उनकी भेंट बहुत ही रूपवान हरिदास केवट की पुत्री मत्स्यगंधा (सत्यवती) से हुई। मत्स्यगंधा को देख शांतनु मंत्र-मुग्ध हो गए और पिता हरिदास केवट के समक्ष उनकी कन्या से विवाह का प्रस्ताव रख दिया, केवट ने राजा शांतनु के समक्ष विवाह के लिए यह शर्त रखी कि राज्य का उत्तराधिकारी सत्यवती का पुत्र होगा, यह वचन देने पर ही मैं अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह आपके साथ करूँगा। राजा शांतनु ने केवट की शर्त को अस्वीकार करते हुए विवाह के लिए मना दिया। उन्होंने कहा कि मेरा ज्येष्ट पुत्र ही हस्तिनापुर राज्य का उत्तराधिकारी है और रहेगा। उसके बाद भी काफी समय तक राजा शांतनु मत्स्यगंधा को भूल न सके और दिन-रात उसकी याद में व्याकुल रहने लगे। यह सब देख एक दिन देवव्रत ने पिता से उनकी व्याकुलता का कारण पूछा और सारा वृतांत जानने पर देवव्रत स्वयं केवट हरिदास के पास पहुँचे और वहाँ उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि आपकी कन्या से उत्पन्न सन्तान ही राज्य की उत्तराधिकारी बनेगी। लेकिन इस वचन के बाद भी केवट हरिदास ने बोल दिया कि आपके कथन पर मैं यकीन कर सकता हूँ, किन्तु विवाहोपरांत जब आपकी संतान होगी तो वो अपना अधिकार माँगेगी। इस पर देवव्रत ने तत्काल गंगा जल हाथ में लेकर प्रतिज्ञा ली कि 'मैं आजीवन अविवाहित रहूँगा' और ऐसा उन्होंने किया भी। राजा शांतनु ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया। आजीवन अविवाहित रहते हुए पिता के बाद भी वे उनके राज्य के लिए सत्यनिष्ठा से अपनी मृत्यु तक समर्पित रहे।       
महाभारत के युद्ध समाप्ति पर सूर्य देव के दक्षिणायन से उत्तरायण आने पर भीष्म पितामह ने प्राण त्याग किया। देवव्रत की कठिन प्रतिज्ञा के प्रभाव से ही उनका नाम भीष्म पडा़ और कौरव-पांडवों के पितामह होने के कारण उन्हें भीष्म पितामह कहा जाने लगा। ऐसे प्रतापी पुत्र की इच्छा से ही देवव्रत (भीष्म पितामह) को देव तुल्य मानते हुए उनका आशीर्वाद प्राप्ति हेतु भीष्माष्टमी का पर्व मनाया जाता है।

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