संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 17-02-2021
मानव जीवन में कर्म दो प्रकार के हैं, एक पुण्य कर्म और अपुण्य कर्म (पाप)। दोनों के परिणाम भी कर्मानुसार क्रमशः सुखद या दुखद ही होते हैं। सभी दर्शनों व संप्रदायों में पुण्य और अपुण्य (पाप) की सत्ता किसी न किसी रूप में मान्य और विद्यमान है। पाप और पुण्य परस्पर एक दूसरे के विरुद्ध ही कार्य करते हैं। संप्रदायों में पुण्य को सुकृत, शुभ वासना, श्रुति, स्मृति, आगम, आदि अनेक शब्दों से पारिभाषित किया गया है, जिनसे पुण्य का लक्षण भी स्पष्ट हो जाता है।
सामान्य जन जब भी कोई गलत काम (पाप कर्म) करता हैं, तो उसे छिपाने या रहस्य बनाने का प्रयास करता है, और इसके विपरीत अच्छे कर्म (पुण्य) को बहुत प्रचारित करने लगता हैं जबकि सत्यता यह है कि (पुण्य कर्म) अच्छे कर्म छुपकर और गोपनीय रूप से करने चाहिए और अधर्म (दुष्कर्मों) अथवा अपुण्य कर्म(पाप) का प्रदर्शन कर देना चाहिए। जबकि जन मानस में इसके विपरीत ही कार्य करने की प्रवृति है।
संक्षेप में जिस कार्य या विचार को करने से पहले अथवा करने के बाद भी मन/आत्मा में प्रसन्नता आत्मबल, सुख और गौरव का भाव उत्पन्न हो, वो कर्म व विचार सदैव पुण्य ही है और जहां इसके विपरीत स्वयं में ग्लानि, दया, पछतावा दुख और स्वयं के कमजोर होने का भाव जागृत हो जाए, वो सदैव अपुण्य कर्म(पाप) ही होंगे।
इसी आधार पर ही कहा जाता है कि पाप को प्रकट कर दे और उसके प्रायश्चित में लग जाने से पाप का फल कम हो जाता है। क्योंकि पाप को प्रकट कर देने से ग्लानि, दया, पछतावा दुख और स्वयं को कमजोर होने का भाव समाप्त होने लगता है और उसके स्थान पर स्पष्टता और दूरदर्शिता का जन्म होता है, जो मानव लोक कल्याण की ओर प्रेरित होता है। जब अधर्म प्रदर्शित करेंगे, तो स्वयं में ही नियंत्रित होने लग जाएंगे, लेकिन कभी-कभी पुण्य को इसलिए प्रकट करना पड़ता है कि पाप का नाश हो, यदि उद्देश्य ऐसा हो, तो धर्म, पुण्य, अच्छी बात को प्रचारित करने में बुराई नहीं है। किन्तु वैसे पुण्य (अच्छे कर्मोंं ) को गोपनीय ही रखना चाहिए।
तुलसी कृत राम चरित मानस में प्रसंग है कि जब अंगद लंका में रामदूत बनकर पहुंचे, तो उन्हें देखते सभी राक्षस व दैत्य भयभीत हुए। (राक्षस का अर्थ दुर्गुण या निंदित कार्य करने वाला) जिसमें तुलसी दास जी ने लिखा है –
‘अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा।
बिनु पूछे मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई।।’
जिसका अर्थ है कि राक्षसगण भयभीत होकर विचार करने लगे विधाता ना जाने क्या-क्या करने वाले हैं, और बिना पूछे ही अंगद को रास्ता देते चले गए। अंगद की जिस भी राक्षस रूपी दुर्गुणियों पर दृष्टि पड़ती, वह डर के मारे सूख जाता था। अर्थात् जब हम सत्यमार्ग पर चलते हैं, तो दुर्गुण रूपी बाधा स्वतः हटती जाती है।
यहां लक्ष्य तक पहुंचने में दुर्गुण अंगद की मदद कर रहे थे, क्योंकि रामदूत होने का पुण्य अंगद के साथ था।, इसीलिए पुण्य तब जरूर प्रकट कीजिए, जब पाप का विनाश करना हो अन्यथा पुण्य का अधिक प्रचारित होना अहंकार का पर्याय बनता है, वह पुण्य पाप के समान होने लगता है।
पुण्य कर्म (अच्छे कर्मों) को प्रगट करने से क्षय होने की संभावना प्रबल हो जाती है, किन्तु गलत व निन्दित काम (पाप कर्म) के विरुद्ध पुण्य कर्म (अच्छे कर्मों) को प्रगट करने से लोक कल्याण और सदाचार उत्पन्न होता है।
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