संकलन : नीतू पाण्डेय तिथि : 30-12-2020
प्रकृति में जीव जन्मता है और उसका अन्त भी निश्चय ही होता है। जन्म और मृत्यु के मध्य ही कर्म व विचार अपना स्थान बनाते है। जीवन समाप्त हो जाने के बाद भी कर्म और विचार चराचर जगत में शेष रह जाते है। जीव जगत में प्रत्येक प्राणी अपने कर्मो के आधार पर ही जाना और पहचाना जाता है, कोई अच्छे कर्मो से, तो कोई निन्दित कर्मो से। बड़ी बात सिर्फ इतनी है कि पहचाना तो हर जीव जाता है।
कर्म और विचारों के मेल से ही कर्तव्य और जिम्मेदारी जन्म लेता है । जिसके विचार उन्नत और अच्छे है, वह निन्दित कर्म करते-करते भी अच्छे कर्मो की ओर चला जाता है और जिनके विचारो मे मलिनता, अशु़द्धता और पाप समाहित है, उनके कर्म चाहे कितने भी अच्छे क्यो ना हो जाए, अन्त में वह अपने बुरे कर्मो से ही जाने जाते है। यह स्वयं पर निर्भर करता है कि क्या और कैसे विचार ग्रहण किये जा रहे है, क्योकि कर्म सिर्फ और सिर्फ विचारो के ही अधीन है।
पण्डित कर्म और धर्म अवश्य है, परन्तु इनमें उन्नत विचार ही उन्नतशीलता का मार्ग बनाते है। पण्डित कर्म विद्वता को दूसरा नाम है, इसीलिये पण्डित चाहे ज्ञानी हो या अज्ञानी, पण्डित जी को विद्यवान ही माना जाता है। पण्डित जी को ज्ञान न होना, बिलकूल भी बुरी बात नही, परन्तु पण्डित जी का ज्ञानी होकर भी विचारो में अशुद्ध और अस्पष्ट होना ही उनके पतन का कारण होता है। पाण्डित्य कर्म जिम्मेदारी के साथ ही सामाजिक दायित्व भी है, जिसका निर्वहन निर्विकार और निर्लिप्त भाव से होना चाहिये।
ज्ञान और विद्यवत्ता एक क्रमबद्ध यात्रा है, जो कभी पूर्ण नही हो सकता है। यह प्रकृति में चलते रहने वाली एक अनवरत यात्रा है। एक ज्ञानी एक ज्ञान छोडकर जाता है, दूसरा ज्ञानी उसी ज्ञान के बल पर आगे की ज्ञान-यात्रा पर चल पड़ता है। पण्डित जी केवल ज्ञान यात्रा का प्रतीक मात्र है। यह यात्रा एक जन साधारण से दिखने वाले व्यक्ति से प्रारम्भ होकर एक अदभूत और विशिष्ठ बनने की क्षमता का सफर है।
पण्डित जी की यात्रा में पूर्ण निष्ठा, पूर्ण विश्वास एवं पूर्ण प्रयास निहित है। यही वो तीन स्तम्भ (निष्ठा, विश्वास व प्रयास) है, जो साधारण से व्यक्ति को पण्डित जी बनाने की क्षमता रखता है। ज्ञान इन तीनो स्तम्भो का प्राप्त एक प्रतिफल मात्र है। यदि पण्डित जी को यह विश्वास हो गया कि वह ज्ञानी हो गये, तो समझो प्रकृति में उनकी यात्रा वही से समाप्त हो गयी अथवा स्वयं के पतन की ओर अग्रसर होना आरम्भ हो गया है।
पण्डित जी एक यात्री (पथिक), ज्ञान एक मार्ग (सड़क), विश्वास एक साधन, निष्ठा उर्जा (पेट्रोल) और प्रयास गति के रूप में कार्य करता है। इन्ही सारे योगो से एक महाप्रतापी, महाज्ञानी, अदभूत और विलक्षण पण्डित जी का जन्म होता है।
निष्कर्ष:- धार्मिक समाज में हर कोई पण्डित तो बनना चाहता है, परन्तु प्रयासरत व्यक्ति ही पण्डित बनने की योग्यता रखता है। साधन (विश्वास), उर्जा (निष्ठा), गति (प्रयास) के बल पर ही ज्ञान पथ पर आगे बढ़ा जा सकता है और यही एक पण्डित जी का परम कर्तव्य है।
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