संकलन : MAHENDRA DUTT MISHRA तिथि : 29-12-2020
यजमान :- यजमान का अर्थ ग्राहक अथवा खरीदने वाला कभी नहीं होता है, जबकि आज आधुनिक काल में यजमान को ग्राहक का ही पर्याय माना जाने लगा है। यह यजमान का तात्पर्य आधुनिक काल में समझ से बिल्कुल परे है। यजमान हिन्दी शब्दावली का अपभ्रन्श है, वास्तविक रूप से शब्दावली में यज्ञमान होता है यजमान नही। जन साधारण की आम बोलचाल में परिवर्तित होकर यजमान होता चला गया। यजमान यानि यज्ञ कराने वाला व्यक्ति है।
यज्ञ का तात्पर्य यदि पूर्ण रूप से ज्ञात हो गया, तो यजमान स्वतः ही समझ आ जाता है। किसी योजना अथवा प्रयोजन के पूर्ण होने के पश्चात ईश्वर अथवा दैवत्य को प्राप्त करने की इच्छा से किया गया कृत्य ही यज्ञ है। यज्ञ किसी भी योजनाओं के प्रारम्भ से योजना की पूर्णता तक माना जा सकता है। अर्थात् यजमान वह उद्यमी अथवा कार्मिक है, जो अपनी योजनाओं की पूर्णता के लिये प्रारम्भ से अन्त तक धार्मिक एवं व्यवहारिक सिद्धि की चाह में ज्ञाता, विद्वान, मार्ग-दर्शक (पंडित जी) की मदद अथवा सेवा लेता है और अपनी सामाजिक, पारिवारिक एवं अध्यात्मिक आवश्यकता को भी पूर्ण करता है। आलसी, आक्रर्मय और कुछ उधम न करने वाला यजमान नहीं हो सकता है। इसलिये सनातनी संस्कृति में यजमान को उद्योग, उद्यम, क्रियाशीलता एवं योजनात्मक वृद्धि का सूचक मानते है। बिना ज्ञाता, विद्वान, मार्ग-दर्शक (पंडित जी) की मदद से कोई भी यज्ञ सफलता पूर्वक पूर्ण कराया जाना सम्भव नही है। ज्ञाता, विद्वान, मार्ग-दर्शक (पंडित जी) के साथ होने से किये जा रहे कर्म में यदि कोई त्रुटि हो रही हो, तो उसे सही अथवा दूर किया जा सकता है।
निष्कर्षः- पंडित जी और यजमान का रिश्ता या सम्बन्ध पिता-पुत्र और भाई-बन्धु जैसा है। कभी यजमान पिता की भूमिका निभाता है, तो कभी पंडित जी पिता की भूमिका। यदि यजमान और पंडित जी के मध्य सखा सम्बन्ध हो जाए, तो न पंडित जी दुर्बल हो सकते है और न यजमान निर्बल। समान्य तर्क मे सर्व जनहिताय, सर्वजन सुखाय यही उचित यज्ञ है।
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