संकलन : MAHENDRA DUTT MISHRA तिथि : 29-12-2020
पंडित:- सनातनी संस्कृति पूर्ण रूपेण प्रकृति पर निर्भर करती है और प्रकृति कभी भी समान नहीं होती है। हर पग पर प्रकृति के रंग-रूप में परिवर्तन दिखता है। प्रकृति और जीवन के परिवर्तन को पंथ (धर्म) कहा जाता है और बदलते हुए परिवेश में सकारात्मक ज्ञान या विद्वत्ता की आवश्यकता सत्तत रहती है। विद्वत्ता को ही सनातन संस्कृति में पण्ड कहा गया है। पण्ड का वैसे एक मायने अर्जित करने वाला भी कहा गया है और इति के मायने अंत होता है। अर्थात् किसी भी ज्ञान में पारंगता पांडित्य और पारंगत व्यक्ति को पंडित कहलाता हैं। सनातन संस्कृति में वो वर्ग विशेष जो पंथ (धर्म) के अन्त तक ज्ञान में पारंगता रखता है, उसे पंडित का ही सम्बोधन मिलता है। सामान्य भाषा में पंडित (अध्यापक, मार्ग-दर्शक, विद्वान, को दिया गया) उपनाम है। संस्कृति ज्ञाता, प्रकाण्ड गायक, प्रकाण्ड वादक, विषय मर्मज्ञ और कर्मकाण्ड ज्ञाता को पंडित उपनाम से भी जाना जाता है। पंडित उपनाम को प्राप्त करना यानि ज्ञाता, विद्वान, मार्ग-दर्शक और कल्याण का पर्याय (दूसरा परिचय) होता है।
पृथ्वी पर मानवीय सभ्यता के विकास के साथ-साथ जीवन जीने की कला या सभ्यता का निर्माण व नव-आयाम मिलता गया, जो आज के युग में धर्म के रूप में स्थापित हैं। प्रकृति में विविधता है, इसलिये धर्म अनेक है और प्रत्येक धर्म के ईश्वर और सभ्यता भिन्न-भिन्न है, जिससे इनके विद्वानों में भी भेद रहता है।
सामान्यतः पंथ (धर्म) विशेष में इन विद्वानो को भिन्न भिन्न नामों से भी जाना जाता है :-
धर्मो या पन्थो के नाम एवं विद्वानो का नाम अलग-अलग है, परन्तु कर्म एक ही है। अपनी-अपनी सभ्यता के लोगों को मार्ग-दर्शन देना और शान्ति-उन्नति का मार्ग ढूढ़ना और बताना। किसी भी धर्म का पंडित होना यानी प्रकृति और जीवन के विकास की समझ और ज्ञान रखना। यह एक वास्तविक जिम्मेदारी है।
पंडित उपनाम प्राप्त करना सामाजिक व्यक्ति के लिये विशिष्ट उपलब्धि है और दायित्व भी है। एक पंडित जी से जुड़ते ही जनमानस को आनन्द, शान्ति, ज्ञान मिलता है। पंडित जी से लोगों को कष्ट-कुण्ठा से स्वतः मुक्ति मिलती है और भविष्य की ओर साकारात्मक उन्नति के अवसर प्रबल होते है। कार्यशील एवं उद्यमियो के लिये पंडित जी आवश्यक अंग सिद्ध होते है। सांसारिक गतिविधिया बिना पंडित के सम्भव ही नहीं है।
सनातन संस्कृति में प्रकृति को पूजनीय माना गया है। आदिम युग से सभ्य मनुष्य में बदलने की यात्रा के दौरान प्रकृति ने मनुष्य की बहुत सहायता की और उसने प्रकृति से बहुत सीखा भी। भारत ...
विश्व की सबसे प्राचीन भाषा संस्कृत है और समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। 3,000 वर्ष पूर्व भारत में संस्कृत मे ही बोलचाल की जाती थी। 1100 ईसवीं तक संस्कृत समस्त भारत की राजभाषा के ...
सृष्टि के आरंभ मे सांकेतिक भाषा ही प्रचलित थी, न ध्वनि या ना लिपकीय और ना भाषा। आदिकाल मे मानव सांकेतिक भाषा मे संवाद स्थापित करता और समझता था। कालान्तर मे मानवीय सभ्यता के विकसित ...