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Sanskrit - यात्रा - संस्कृत भाषा का देववाणी बनने का।


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संकलन : जया मिश्रा Advocate तिथि : 16-12-2020

सृष्टि के आरंभ मे सांकेतिक भाषा ही प्रचलित थी, न ध्वनि या ना लिपकीय और ना भाषा। आदिकाल मे मानव सांकेतिक भाषा मे संवाद स्थापित करता और समझता था। कालान्तर मे मानवीय सभ्यता के विकसित होने के साथ पहले चित्रलिपियों और ध्वनि संकेतो का प्रयोग हुए और फिर शब्दलिपियों का प्रयोग करना प्रारम्भ हुआ। कोई व्यक्ति क्या कहना चाहता है अपने-अपने ध्वनि संकेतों को चित्र रूप मे और फिर विशेष आकृति के रूप देना शुरू किया। इस तरह भाषा का क्रमश: विकास हुआ। मनुष्यों ने भाषाओ की रचना अपनी विशेष बौद्धिक प्रतिभा के बल पर नहीं की। लगभाग सभी भाषाओं का विकास मानव, पशु-पक्षियों द्वारा शुरुआत में बोले गए ध्वनि संकेतों के आधार पर किया, उन्होंने इसमें किसी भी प्रकार की बौद्धिक और वैज्ञानिक क्षमता का उपयोग नहीं किया गया। बस उन ध्वनियों को दोहरा कर सांकेतिक भाषा में प्रयोग किया जाता था।

लेकिन संस्कृत किसी देश या धर्म की भाषा नहीं यह अपौरूष भाषा है, क्योंकि इसकी उत्पत्ति और विकास ब्रह्मांड की ध्वनियों को सुन-जानकर हुआ। यह आम लोगों द्वारा बोली गई ध्वनियां नहीं हैं। संस्कृत ऐसी भाषा नहीं है जिसको जीव जंतुओं की ध्वनियों से निर्माण किया गया हो, संस्कृत की ब्रह्मांडीय रचना है।

वस्तु चाहे स्थिर हो या गतिमान, धरती और ब्रह्मांड में गति सर्वत्र है। गति होगी,तो ध्वनि निकलेगी और ध्वनि होगी,तो शब्द निकलेंगे। मानव ने उन ध्वनियों और शब्दों को पकड़कर उसे लिपि (लिखित) में बांधा और उसके महत्व व प्रभाव को समझा। भारत के हिमालय के उत्तर में रहने वाले लोगो ने इसका आविष्कार कर ऐसी भाषा को बोलना शुरू किया, जो प्रकृति सम्मत थी। पहली बार सोच-समझकर किसी भाषा का आविष्कार हुआ था और वो संस्कृत थी। चूंकि माना जाता है कि देवता भी हिमालय के आसपास रहते थे। देवलोक कारण इसे देववाणी कहा जाने लगा।

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