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Kabir Das कबीर दास जयंती (कबीरदास की उलटी वाणी, बरसे कम्बल भींजे पानी)


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संकलन : वीनस दीक्षित तिथि : 24-06-2021

ज्येष्ठ माह, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा को लोकप्रिय लेखक व कवि, प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी कबीर दास की जयंती मनाई जाती हैं। कबीर दास जी ने जीवन पर्यन्त सामाजिक कुरीतियो को सुधारने पर कठोरता से प्रहार किया, इसलिए उन्हे संत की उपाधि मिली थी। कबीरदास की लोकप्रिय रचनाओं में बीजक, सखी ग्रंथ, कबीर ग्रंथावली और अनुराग सागर है।
ज्योतिष गणनानुसार संवत-1456 में ज्येष्ठ माह, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा तिथि सोमवार संत कबीरदास का जन्म हुआ था, यद्यपि जन्म देने वाले माता पिता के सम्बंध में कोई तथ्य प्राप्त नही हुआ। लेकिन किवदंती अनुसार काशी के लहरतारा में कबीर साहेब (परमेश्वर) जी का जन्म माता-पिता से नहीं हुआ बल्कि वह हर युग में अपने निजधाम सतलोक से चलकर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। कबीर के जन्म स्थान को लेकर सभी विद्वानों मे मतभेद है। विद्वानों का एक वर्ग उनका जन्म स्थान उत्तर प्रदेश की काशी नगरी को मानता है। जबकि दूसरा वर्ग उनका जन्म स्थान मगहर मानता है। तीसरा वर्ग उन्हें आजमगढ़ के गाँव बेलहरा का निवासी बताता है। उनके जन्म के साक्षात प्रमाण किसी के पास नहीं है। नूतन खोजों के बाद यह माना जाता है कि कबीर दास का जन्म काशी में हुआ था। यह दोहा "काशी में हम प्रकट भए हैं, रामानंद चिताए" इस तथ्य को प्रमाणित करता है।
काशी के लहरतारा तालाब की सीढ़ियों पर जुलाहा दंपत्ति (नीमा और नीरू) को रोता हुआ एक बालक मिला था। कुछ मतानुसार उन्हें वह बालक तालाब में कमल के पुष्प पर लेटा हुआ मिला था। संत कबीरदास ने सनातनी परिवार में जन्म लिया, लेकिन परवरिश मुस्लिम परिवार में हुई थी। अपने दत्तक माता-पिता के परंपरागत व्यवसाय मे निपूर्ण होकर जुलाहे का कार्य करते थे। कबीरदास कभी शिक्षा प्राप्ति हेतु विद्यालय नहीं गये और ना कभी किताबों से ज्ञान अर्जित किया, बल्कि समयरूपी पाठशाला में अनुभवरूपी गुरु से ही उन्होंने ज्ञान अर्जित किया था। जिसे उन्होने इस दोहा से परिभाषित किया है :–

"पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।"

कबीर दास जी ने स्वयं को धर्म और जाति विवाद से अलग रखते हुए खुद को न हिन्दू (सनातनी),  न मुस्लिम माना बल्कि सिर्फ जुलाहा मानते थे। कबीर दास के गुरू के लिये भी अलग-अलग मत है। कबीरदास जी को शेखतकी और रामानंद का शिष्य बताया जाता है। कबीरदास की पत्नी धनिया से दो संतानों का जन्म हुआ बेटा कमाल और बेटी कमाली। 

कबीरदास विशिष्ट व्यंग्यकार, मस्तमौला किस्म के असीम आत्मविश्वासी, असाधारण व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे। उन्हे जाति धर्म से ज्यादा बल प्रेम में दिखता था। उन्हे प्रेम ही साधना का सबसे अच्छा मार्ग दिखता था। उनके प्रेम का विश्वास बड़ा अद्भुत था। उनका प्रेम वज्र के समान कठोर और कुसुम (फूलो) से भी कोमल था। कबीर दास का प्रेम ही था जो उन्हें आध्यात्मिक रस की धारा मे बहाते-बहाते संत के मार्ग तक ले गयी, जिसे सन्त कबीर दास ने धारा साखी, सबद, रमैनी के माध्यम से लोक मानस मे सिंचन कर उस प्रेम रस को प्रवाहित किया। 
सोलहवीं सदी के महान संत कबीरदास ने सम्पूर्ण जीवन वाराणसी यानी काशी में ही बिताया, लेकिन जीवन के आख़िरी समय वो मगहर चले आए। प्राचीन काल से ही वाराणसी को मोक्षदायिनी नगरी मानी जाती थी, और मगहर को लोग उतना ही मोक्षबाधक मानते थे। इस सम्बन्ध में कहावत चरित्रार्थ है कि काशी मा मरत स्वर्ग जात है, मगहर मा मरत नर्क जात है। अर्थात मगहर मे मृत्यु पाने वाला अगले जन्म में गधा होता है या फिर नरक में जाता है। किंवदंतियों के ऐतिहासिक साक्ष्य भले ही न हों लेकिन इनकी ऐतिहासिकता को सिरे से ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता है। इन किंवदंतियो के कारण ही मार्गहर से मगहर नाम पड़ा।

'मार्गहर' अथवा मगहर के पीछे यह तथ्य है कि प्राचीन काल में कपिलवस्तु, लुंबिनी, कुशीनगर जैसे प्रसिद्ध बौद्ध स्थलों के दर्शन के लिए बौद्ध भिक्षु इसी मार्ग का उपयोग करते थे और अक़्सर इस क्षेत्र के आस-पास ही भिक्षुओं लूट-पाट कर हत्या कर जाती थी। जिस कारण से ही इन मार्गो को ही 'मार्गहर' अथवा मगहर नाम दिया गया। कुछ विद्वानों का मत है कि मार्गहर नाम इसलिए नहीं पड़ा कि यहां लोग लूट लिए जाते थे, बल्कि इसलिए पड़ा कि यहां से गुज़रने वाला व्यक्ति हरि यानी भगवान के पास ही जाता था। काशी में मोक्ष मिलता है और मगहर में नरक, इसी किंवदंती या अंधविश्वास को तोड़ने के लिए ही कबीर स्वेच्छा से मगहर आए थे और मगहर मे ही उनकी मृत्यु वर्ष-1518 में हुई।

संत कबीरदास की जयंती पर कबीर के अनुयायी उनकी कविताओं का पाठ करते हुए उन्हें याद करते हैं। कबीरदास के जन्म स्थान वाराणसी के लहरतारा व कबीर चोरा में सुबह से ही भजन कीर्तन आरम्भ हो जाते हैं।

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